गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 68

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गीता-प्रबंध
8.सांख्य और योग

ये अवश्य ही वे दर्शन नहीं है जो हमें यथाक्रम ईश्वर की सांख्यकारिका और पतंजलि के योगासूत्रों के रूप में प्राप्त हैं, यह सांख्यकारिका का सांख्य नहीं है - सांख्य शब्द से जो साधरण धारणा होती है, कम - से- कम वह नहीं है; क्योंकि गीता कहीं एक क्षण के लिये भी जीवन के मूल स्त्य- रूप से बहु पुरूषों का होना स्वीकार नहीं करती , बल्कि सांख्य- परंपरा जिसका जोरदार शब्दों से इंकार करती है उसी “एक” को गीता दृढता के साथ आत्मा और पुरूष फिर उसी “एक” को परमेश्वर , ईश्वर या पुरूषोत्तम तथा जगत् का आदिकारण घोषित करती है । सांख्य - परंपरा ,आधुनिक परिभाषा में कहना हो तो , अनीश्वरवादी है ; पर गीता के सांख्य में जगत्- कारण- रूप से ईश्वरवाद, बहुद्वेववाद और अद्वैतवाद , इन सभी सिद्धांतों को स्वीकार और सूक्ष्म समन्वय है। न गीता का योग पतंजलि का योगदर्शन ही है। पतंजलि का योगदर्शन राजयोग की केवल एक आत्मनिष्ठ प्रणाली है, एक आंतरिक अनुशासन है, एक नपी - तुली पद्धति है , एक बंधा हुआ कठोर साधन सूत्र है, जिसमें उत्तरोत्तर चढता हुआ एक कठोर शास्त्रीय साधन क्रम है, जिसके द्वारा मन को निस्तब्ध करके समाधि में पहुंचाया जाता है जिससे हमारे आत्म - अतिक्रमण के ऐहिक और परलौकिक , दोनों फल प्राप्त हों; ऐहिक, जीवन के ज्ञान और बल के अति विस्तार द्वारा और पारलौकिक , भगवान् के साथ एकता द्वारा । परंतु गीता का योग एक उदार ,लचीली और बहुमुखी पद्धति है, जिसमें अनेक प्रकार के तत्वों का समावेश है , और ये स्तम्भ तत्व एक प्रकर के स्वाभाविक और सजीव साम्यकरण द्वारा गीता में समन्वित किये गये है; राजयोग तो इन तत्वों मे से केवल एक तत्व है और वह भी केई अत्यंत महत्वपूर्ण नहीं । गीता के योग में कोई नियमबद्ध और शास्त्रीय श्रेणीविभाग का विधान नहीं है , यह योग तो स्वाभाविक आत्म - विकस की प्रक्रिया है । गीता चाहती है कि अंदर की संतुलित अवस्था द्वारा और कर्म के कुछ सिद्धातों के अवलंबन द्वारा जीवन का पुनःद्धार करे, निम्न प्रकृति से दिव्य प्रकृति मे कोई परिवर्तन , आरोहण या नवजन्म लाये । इसी तरह इसका समाधि का विचार भी साधारणतया जो समाधि समझी जाती है उससे सर्वथा भिन्न है। पतंजलि योग में कर्म को एक प्रारंभिक महत्ता देते हैं जिसकी आवश्यकता केवल नैतिक शुद्धि और धार्मिक एकाग्रता के लिये है , पर गीता कर्म को योग का विशेष लच्क्षण तक मानती है पतंजलि कर्म को प्रारंभिक साधनमात्र मानते है ओर गीता में कर्म चिरंतन आधरभूत है । राजयोग में सिद्धि के मिलते ही कर्म को हटा देना पड़ता है या यह कहिये कि योग साधन के लिये उसकी आवश्यकता नहीं रहती और गीता में कर्म सवोच्च अवस्था मे पहुंचने का जहां साधन है वहां आत्मा के पूर्ण मोक्ष लाभ कर चुकने के बाद भी बना रहता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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