गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 83

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गीता-प्रबंध
9. सांख्य, योग और वेंदांत


वही पहुंचते है; सांख्य और योग दोनों को जो एक देखता है, वही देखता है। पर योग के बिना संन्यास कठिन है ; जो मुनि योग करता है वह शीघ्र ब्रह्म को प्राप्त होता है; उसकी आत्मा सारी सृष्टि की आत्मा हो जाती है, और कर्म करते हुए भी वह उनमें लिप्त नहीं होता।“[१] वह जानता है कर्म उसके नहीं हैं बल्कि प्रकृति के हैं और इसी ज्ञान के द्वारा वह मुक्त है; वह कर्मसंन्यास कर चुका है, वह कोई कर्म नहीं करता ,यद्यपि उसके द्वारा कर्म होता है; वह आत्मा हो जाता है, ब्रह्मभूत हो जाता है , वह देखता है कि इस सृष्टि के समस्त प्राणी उसी एक स्वतः सिद्ध सत्ता के व्यक्ति रूप , भूतानि, हैं और वह स्वयं अनके व्यक्त रूपों में से एक है, वह देखता है कि इनके समस्त कर्म केवल विश्व - प्रकृति का विकासमात्र हैं जो उनके व्यष्टिगत स्वभाव के अंदर से कार्य कर रही है और वह देखता है कि उसके अपने कर्म भी इसी विश्व - क्रिया का ही एक अंशमात्र हैं । गीता की संपूर्ण शिक्षा यही नहीं है; क्योंकि यहां तक केवल अविकार्य आत्मा या पुरूष, अर्थात् अक्षर ब्रह्म का और उस प्रकृति का ही वर्णन है जो विसर्जन का कारण है , अभीतक ईश्वर को, पुरूषोत्तम की बात साफ तौर पर नहीं कही गयी है; यहां तक कर्म और ज्ञान का ही समन्वय साधित हुआ है, किंतु अभी तक, कुछ संकेत मात्र किये जाने पर भी, भक्ति का वह परम तत्व नहीं विवृत किया गया जो आगे चलकर इतना महत्वपूर्ण हो जाता है ; यहां तक केवल एक अकर्ता पुरूष और अपरा प्रकृति की ही बात कही गयी है, अभी तक त्रिविध पुरूष और द्विविध प्रकृति का स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। ईश्वर की बात आयी तो जरूर है, पर ईश्वर का आत्मा और प्रकृति के साथ क्या संबंध है यह निश्चत रूप से निर्दिष्ट नहीं हुआ ।
प्रथम छः अध्यायों में जो समन्वय साधित हुआ है वह उतना ही है जितना कि आगे बताये गये अति महत्वपर्ण सत्यों की व्याख्या के बिना हो सकता है और जब इन सत्यो का प्रवेश होगा तो इससे पूर्व - साधित समन्वय का परिहार तो नहीं होगा , बल्कि वह बहुत कुछ विस्तृत और परिवर्तित हो जायेगा। श्रीकृष्ण कहते है कि पुरूष की निष्ठ दो प्रकार की होती है जिससे वह ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त होता है; “ सांख्यों की ज्ञानयोग के द्वारा और योगियों की कर्म योग के द्वारा।“२ यहां सांख्य का ज्ञानयोग से और योग का कर्ममार्ग से जो तादात्म्य बताया गया है वह ध्यान देने योग्य है, क्योंकि इससे पता चलता है कि उन दिनों आज की वेदांत से प्रभावित पद्धति से बिलकुल भिन्न विचार - पद्धति प्रचलित थी । भारतीय चिंतन पर महान वैदांतिक विकास के फल – स्वरूप - स्पष्टतः यह गीता की रचना के बाद की बात है- मौक्ष के व्यावहारिक साधन के रूप में अन्य वैदिक दर्शनों का चलन नहीं रहा ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुराणों और तंत्रों में सांख्यों के विचार भरे पड़े हैं , अवश्य ही उन पर वेदांत के विचार की छाप है और उनके साथ अन्य विचार भी मिले हुए हैं ।

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