गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 89
यज्ञ के बिना जीवन की स्थिति ही संभव नहीं है; प्रजापति ने प्रजाओ का ‘ सह यज्ञा:’ यानी यज्ञ के साथ निर्माण किया है । पर वेदवादियों के यज्ञ काममूलक हैं, वैषयिक भोगों के लिये हैं; उनका यह काम कर्मो के फल के लिये उत्सुक है , स्वर्ग का विशाल भोग चाहता है, उसी को अमृतत्व और परम मुक्तिधाम जानता है । गीता अपनी साधन - प्रणाली में इसका समावेश नहीं कर सकती ; क्योंकि गीता आरंभ से ही कहती है कि वासना का त्याग करो, इसे आत्मा का शत्रु जानकर त्यागो और नष्ट करो। वैदिक याग - यज्ञों की सार्थकता को भी गीता अस्वीकार नहीं करती गीता उन्हे स्वीकार करती है और कहती है कि इन साधनों के द्वारा इस लोक में भोग और ऐश्वर्य और परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति होती है। भगवान् गुरू कहते हैं कि वह “मैं” ही हूं जो इन यज्ञों को ग्रहण करता है जिसके प्रीत्यर्थ ये यज्ञ किये जाते हैं और जो दवताओं के रूप में इनके फल प्रदान करता है, क्योंकि इसी भाव से लोग मेरे पास आना पसंद करते हैं। पर यह सच्चा पथ नहीं है, न स्वर्ग का का सुखभोग ही वह मोक्ष और पूर्णत्व है जिसे मनुष्य को प्राप्त करना है।
अज्ञानी ही देवताओं को भजते है, वे नहीं जानते कि इन सब देव - रूपों में अज्ञात रूप से वे किसको भज रहे हैं क्योंकि चाहे अज्ञान की अवस्था में ही क्यों न हो, पर वे भजते हैं उसी “एक” को , उसी ईश्वर को, उसी एकमात्र देव को और यह वही है जो इनका हव्य ग्रहण करता है । इसी ईश्वर के प्रति यज्ञ, को जीवन की सारी शक्तियों और कर्मो के उस सच्चे यज्ञ को, भक्तिभाव के साथ, निष्काम होकर, उसीके लिये लोक - कल्याण के लिये अर्पण करना होगा। चूंकि वेदवाद इस सत्य को ढांक देता है और अपने विधि- विधानों की गांठ लगाकर मनुष्य को त्रिगुण के कर्म में बांध डालता है, इसलिये वेदवाद की तीव्र भत्र्सना करनी पडी और उसे इतने रूखेपन के साथ एक किनारे रख देना पड़ा ; पर उसकी केंद्रित भावना नष्ट नहीं की गयी है ; उसे रूपांतरित और समुन्नत किया गया है, उसे सच्चे अध्यात्मिक अनुभव के और मोक्ष – साधन- मार्ग के एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग में परिणत कर दिया गया है। ज्ञान के संबध में वेदांत का जो सिद्धांत है उसमें ठीक ऐसी ही कठिनाइयां उपस्थित नहीं होती । गीता इस सिद्धांत को तुरत और पूरे तौर पर अपनाती है और पहले छः अध्यायों में सर्वत्र सांख्यों के अचल, अक्षर, किंतु बहुपुरूष के स्थान पर वेदांतियों के अक्षर एकमेवाद्वितीय, विश्वव्यापक ब्रह्म को धीरे से लाकर बैठा देती है । इन अध्यायों में सर्वत्र, निष्काम कर्म को ज्ञान का परमावश्यक अंग बतलाते हुए भी ,ज्ञान और बह्मानुभूति को मोक्ष का सर्वप्रधान और अनिवार्य साधन माना है ।
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