गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 92
पिछले दो परिच्छेदों में मुझे मुख्य विषय से हटकर दार्शनिक मतवाद के नीरस क्षेत्र में पाठकों को अपने साथ इसलिये घसीट ले जाना पड़ा - यद्यपि विभिन्न दार्शनिक मतवादों का निरूपण बहुत ही सरसरी तौर पर किया गया है और वह बहुत ही अपर्याप्त और ऊपरी है - कि हम इस बात को समझ लें कि गीता ने जिस विशिष्ट प्रतिपादन शैली को अपनाया है उसका वह अंत तक क्यों अनुसरण करती है । वह शैली यह है कि पहले तो गीता किसी आंशिक सत्य का मृदुमंद संकेत भर कर देती है । और फिर आगे चलकर अपने इन संकेतों की ओर लौटती है और उनके मर्म को दिखलाती है और यह उस समय तक होता रहता है जब तक कि वह इन सबके ऊपर उठकर अपनी उस अंतिम महान् सूचना में, अपने उस परम रहस्य में नहीं पहुंच जाती जिसका वह स्वयं कोई खुलास नहीं करती , बल्कि उसको मनुष्य जीवन में प्रस्तुफुटित होने के लिये छोड़ देती है ,जिस सूचना या परम रहस्य का भारतीय आध्यत्मिकता के उत्तर युगों में प्रेम की, आत्मसमर्पण की और आनंद की महान् लहरों में उपलब्ध करने का प्रयास किया गया । गीता की दृष्टि सदा अपने समन्वय पर है और उसमें जो विभिन्न विरारधाराओं का वर्णन है वह इसलिये है कि मानव - मन को क्रमशः अंतिम महान् वचन के लिये तैयार किया जाये।
भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि सांख्यों में मोक्षदायिनी बुद्धि की जो संतुलित अवस्था है वह, मैंने तुझे बता दी, और अब योग में जो दूसरी संतुलित अवस्था है उसका वर्णन करूंगा। तू अपने कर्मो के फलों से डर रहा है , तू कोई दूसरा ही फल चाहता है और अपने जीवन के सच्चे कर्म - पथ से हट रहा है ; क्योंकि यह पथ तुझे तेरे वांछित फलों की ओर नहीं ले जाता । परंतु कर्म और कर्मफल को इस दृष्टि से देखना, फल की इच्छा से कर्म में प्रवृत्त होना , कर्म को अपनी इच्दापूर्ति का साधन बनाना बंधन है जो उन अज्ञानियों को बांधता है जो यह नहीं जानते कि कर्म क्या चीज है, कहां से इसका प्रवाह चला है, यह कैसे होता है और इसका श्रेष्ठ उपयोग क्या है । मेरा योग तुझे इन कर्म - बंधनों से मुक्त कर देगा। तुझे बहुत - सी चीजों का डर लग रहा है- पाप का डर, दुख का डर, नरक और दंड पाने का डर, ईश्वर का डर और इस जगत् का डर, परलोक का डर और अपना डर। भला बता तो, इस समय ऐसी कौन - सी चीज है जिसका, हे आर्य वीर ,जगत्त के वीरशिरोमणि, तुझे डर न लगता हो? परंतु यह महाभय ही तो मानव जाति को घेरे रहता है- लोक और परलोक में पाप और दु:ख का भय , जिस संसार के सम्य स्वभाव को वह नहीं जानती उस संसार में भय, उस ईश्वर का भय जिसकी सत्य सत्ता को उसने नहीं देखा है और न जिसकी विश्वलीला के अभिप्राय को ही समझा है। मेरा योग तुझे इस महाभय से तार देगा और इस योग का स्वल्प- सा साधन भी तुझे मुक्ति दिला देगा।
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