गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 199
उदासीनतारूपी दार्शनिक प्रेरक - भाव को गीता एक प्रारंभिक साधन के तौर पर स्वीकार करती है; परंतु उदासीनता का गीता में जो अंतिम रूप है- उसके लिये यदि इस अपर्याप्त शब्द का किसी तरह से व्यवहार किया भी जाये तो - उसमें दार्शनिक अलगाव का भाव नहीं है। वह ‘उदासीनवत्’ आसीन होना है सही, पर वैसे ही जैसे भगवान् ऊध्र्व में आसीन हैं, जिन्हें इस जगत् में किसी चीज की जरूरत नहीं, फिर भी जो सतत कर्म करते और सर्वत्र वर्तमान रहकर प्राणियों के प्रयत्न के आश्रय, सहायक और परिचालक होते हैं। यह समता सब प्राणियों के साथ एकत्व पर प्रतिष्ठित है। दार्शनिक समता में जो कमी है वह इससे पूरी होती है; क्योंकि उसकी आत्मा शांति की आत्मा है और प्रेम की आत्मा भी। इस समता में भगवान् के अंदर बिना अपवाद सबके दर्शन होते हैं। यह सब प्राणियों के साथ एकात्मभूत हो जाना है और इसलिये इसमें सबके साथ परम सहानुभूति रहती है। इस सर्वव्यापक, संपूर्ण आत्मगत सहानुभूति और आध्यात्मिक एकता में सबका अशेषेण (बिना अपवाद) समावेश होता है, जो कुछ अच्छा है, सुन्दर है केवल उसीके साथ नहीं बल्कि इसके अंदर सब कुछ आ जाता है,।
फिर चाहे वह कितना ही नींच , पतित, पापी या घृणित प्रतीत होता है। केवल द्वेष, क्रोध या अनुदारता के लिये ही नही, बल्कि अलगाव, घृणा या किसी प्रकार के श्रेष्ठतारूपी क्षुद्र गर्व के लिये भी इसमें कोई स्थान नहीं है। इस समता में भागसमान , बाह्म मनुष्य के संघर्षरत मन की अज्ञानता के प्रति एक दिव्य करूणा होगी, उस पर समस्त प्रकाश और शक्ति और सुख की वर्षा करने के लिये एक दिव्य संकल्प होगा सही, पर उसके अंदर की आत्मा के प्रति इनसे भी कोई चीज होगी, उसके प्रति श्रद्धा और प्रेम । क्योंकि सबके भीतर से, जैसे साधु महात्माओं के अंदर से वैसे ही चोर, वेश्या और चाण्डाल के अंदर से भी वे ही प्रियतम ताका करते और पुकार कर कहते हैं “यह मैं हूं।” सब भूतों में जो मुझको प्यार करता है” - दिव्य सार्वत्रिक प्रेम की परम प्रगाढ़ता और गंभीर्य को देने वाली इससे अधिक शक्तिशाली वाणी का प्रयोग संसार के और किस दर्शनशास्त्र या धर्म में हुआ है?
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