गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 72

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गीता-प्रबंध
8.सांख्य और योग

मन मूल इन्द्रिय है, यह बाह्म पदार्थो का अनुभव करता और उन पर प्रतिक्रिया करता है ; क्योंकि इसमें अंतर्मुखी और बहिर्मुखी दोनों क्रियाएं साथ - साथ होती रहती है ; इन्द्रियानुभव के द्वारा यह उन अर्थो को गहण करता है जिन्हे गीता में “बाह्म स्पर्श” कहा गया है और उनके द्वारा जगत् को जनता और सक्रिय प्राणशक्ति द्वारा उस पर प्रतिक्रिया करता है । परंतु पांच ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से , शब्द स्पर्श रूप रस और गंध जिनके विषय हैं ,यह अपनी ग्रहण करने की अति सामान्य क्रियाओं को विशेष रूप से चलाता है; इसी प्रकार पांच कर्मेन्द्रियों की सहायता से वाणी, गति, वस्तुओं के ग्रहण, विसर्जन और प्रजनन के द्वारा यह प्रतिक्रिया करने वाली कतिपय प्राणी की आवश्यक क्रियाओं को विशेष रूप से चलाता है । बुद्धि जो विवेक - तत्व है , वह एक ही साथ बोध और संकल्प दोनों है , यह प्रकृति की वह शक्ति है जो विवेक के द्वारा पदार्थो को उनके गुण - धर्मानुसार पृथक करती और उनमें संगति बैठाती है । अहंकार बुद्धि का अहं‘- पद - वाच्य वह तत्व है जिससे पुरूष प्रकृति और उसी क्रियाओं के साथ तादात्म्य को प्राप्त होता है । परंतु ये आत्मनिष्ठ करण उतने ही यांत्रिक हैं , अचेतन प्रकृति उतने ही अंश हैं जितने कि उसके वस्तुनिष्ठ करण ।
यदि हमारी समझ में यह बात न आती हो कि केसे बुद्धि और मन जड़ प्रकृति के अंश है या स्वयं जड़ हैं तो हमें इतना ही याद रखना चाहिये कि आधुनिक सायंस को भी यही सिद्धांत ग्रहण करना पड़ा है । परमाणु की अचेतन क्रिया में भी एक शक्ति होती है जिसे अचेतन संकल्प ही कह सकते हैं, प्रकृति के सब कर्मो में यही व्यापक संकल्प अचेतन रूप से बुद्धि का काम करता है । हम लोग जिसे मानसिक बुद्धि कहते हैं वह तत्वत: ठीक वही चीज है, जो इस जड़ - प्राकृतिक विश्व के सब कार्यो मे अवचेतन रूप से विवेक करने और संगति मिलाने का काम किया करती है । और आधुनिक सायंस यह दिखलाने का यत्न करती है कि मनुष्य के अंदर जो सचेतन मन है वह भी अचेतन प्रकृति के जड़ कर्म का ही परिणाम और प्रतिलिपि है। परंतु आधुनिक विज्ञान जिसे विषय को अंधेरे में छोड देता है अर्थात् किस प्रकार जड़ और अचेतन सचेतन का रूप धारण करता है , उसे सांख्यशास्त्र समझा देता है । सांख्य के अनुसार इसका कारण है प्रकृति का पुरूष में प्रतिभासित होना ; पुरूष के चैतन्य का प्रकाश जड़ प्रकति के कर्मो पर आरोपित होता है ओर पुरूष साक्षी- रूप से प्रकृति को देखता और अपने - आपको भूलता हुआ प्रकृति द्वारा प्रेरित भाव से विमोहित होकर यह समझता है कि मैं ही सोचता , अनुभव करता और संकल्प करता हूं, मैं ही सब कार्मो का कर्ता हूं , जब कि यथार्थ में ये सब कर्म प्रकृति और उसके तीन गुणो द्वारा जरा भी नहीं । इस मोह को दूर करना प्रकृति और उसके कर्मो से आत्मा के मुक्त होने का प्रथम सोपान है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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