गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 90

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गीता-प्रबंध
9. सांख्य, योग और वेंदांत

अक्षर निव्र्यक्तिक ब्रह्म की अनंत समता में अहंकार का निर्वाण और सांख्यों के अकर्ता मोक्ष – साधन के लिये आवश्यक है, इस सिद्धांत को गीता उतना ही मान देती है इस तरह से अंहकार का यह निर्वाण और अक्षर पुरूष का प्रकृति के कर्मो की उपाधि से निकल कर अपने स्परूप में लौट आना, इन दोनों बातों को गीता करीब - करीब एक कर देती है; गीता ने वेदांत और सांख्य दोनों की भाषाओं को मिलाकर एक कर दिया है, जैसा कि कतिपय उपनिषदों[१] में भी पहले किया गया था। फिर भी वेदांतियों के सिद्धांत में एक त्रुटि है जिसे दूर करना जरूरी है । शायद हम ऐसा अुनमान लगा सकते हैं कि इस समय तक वेदांत ने उन परवर्ती आस्तिक प्रवृत्तियों को पुनर्विकसित नहीं किया था जो उपनिषदों में तो तत्वरूप से पहले से उपस्थित थीं ; लेकिन वहां उनका महत्व इतना नहीं है जितना बाद के वैदांतिक वेष्णव दर्शन - शास्त्रों में पाया जाता है, जहां यह प्रवृत्ति केवल बहुत प्रधान ही नहीं, सर्वोपरि है। हम यह मान सकते हैं कि कट्टर वेदांत कम - से - कम अपनी प्रधान प्रवृत्तियों में , आधार में विश्व - ब्रह्मवादी और शिखर पर अद्वैतवादी था।[२] यह एकमेवाद्वितीय ब्रह्म का प्रतिपादक है, विष्णु , शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की इसमें ब्रह्म के ही नामरूप होने के नाते मान्यता है। परंतु एकमेव परब्रह्म को ईश्वर, पुरूष, देवरूप से मानने की भावना इसमें अपने उच्च स्थान से नीचे गिर गयी है।[३]
ईश्वर, पुरूष, देव- ये शब्द उपनिषदों में ब्रह्म के विशेषण रूप से प्रायः प्रयुक्त हुए हैं और वहां इनका प्रयोग ठीक भी है, किंतु वहां इनका आशय सांख्य और ईश्वर- वाद - विषयक धारणा की अपेक्षा अधिक व्यापक है। विशुद्ध तार्किक ब्रह्मवाद में इन नामों का प्रयोग बह्मभाव के गौण या कनिष्ठ पहलुओं के लिये ही हुआ है। गीता इन नामों की तथा इनसे सूचित होने वाले भावों की मूलगत समता को ही पुनः स्थापित करके चुप नहीं होती , बल्कि एक कदम और आगे बढना चाहती है। ब्रह्म का जो परम भाव है उसी को उसीको, उसके कनिष्ठ भाव को नहीं, पुरूष- रूप में और अपरा प्रकृति को उसी की माया के रूप में दिखाकर उसे वेदांत और सांख्य का संपूर्ण समन्वय साधना है और उसी को ईश्वर- रूप में दिखाकर उसे वेदांत और सांख्य का योग के साथ संपूर्ण समन्वय सिद्ध करना है। यही नहीं, बल्कि गीता ईश्वर अर्थात् पुरूषोत्तम को अचल, अक्षर, ब्रह्म से भी उत्तम दिखाने जा रही है और इस क्रम में निव्र्यक्तिक ब्रह्म में अहंकार के निर्वाण की जो बात आरंभ में आयी है वह पुरूषोत्तम के साथ एकता प्राप्त करने के साधन का केवल एक महान् प्राथमिक और आवश्यक सोपान - मात्र है। कारण पुरूषोत्तम ही परब्रह्म है। इसलिये गीता वेदों उपनिषदों के सर्वोत्तम अधिकारी व्याख्याताओं द्वारा उपदिष्ट शिक्षा का साहस के साथ अतिक्रमण करके इन ग्रंथों के संबंध में स्वयं अपनी एक शिक्षा को , जिसको गीता ने ने इन्ही ग्रंथों से निकाला है, निश्चित रूप से घोषित करती है; तब हो सकता है कि इन ग्रंथों का वेदांती लोग साधारणतया जो अर्थ करते हैं उसकी चहारदीवारी के अंदर गीता के इस अर्थ को शायद न बैठाया जा सके ।[४]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विशेषकर श्रोताश्रतरोपनिषद् में।
  2. विश्वब्रह्मवादियों का मूल सूत्र यह है कि ब्रह्म और विश्व एक ही हैं, अद्वैतवादी उसमें यह जोड़ देते हैं कि केवल ब्रह्म का ही अस्तित्व है और यह विश्व केवल मिथ्या आभास है, या एक वास्तविक पर आंशिक अभिवयक्ति है।
  3. यह कुछ संदेहजनक है , पर कम - से - कम यह तो कहा जा सकता है कि इस तरह की एक प्रबल विचारधारा थी और उसी की परिसमाप्ति आचार्य शंकर के सिद्धांत में हुई है।
  4. वस्तुतः पुरूषोत्तम का सिद्धांत उपनिषदों में आ चुका है, अवश्य ही गीता की तरह नहीं ,बल्कि कुछ बिखरे हुए ढंग से । पर गीता के समान ही उपनिषदों में भी जहां - तहां ब्रह्म या परम पुरूष का इस प्रकार वर्णन आता है कि उसमें समुण ब्रह्म और निगुण ब्रह्म दोनों का समावेश है, वह निर्गुणोगुणी है। यह नहीं कि वह इनमें से एक चीज तो हो पर दूसरी न हो , जो हमारी बुद्धि को उसके विपरीत प्रतीत होती है।

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