गुरु गोविंदसिंह

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
चित्र:Tranfer-icon.png यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें
लेख सूचना
गुरु गोविंदसिंह
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 43
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक हरदेव बाहरी


गोविंदसिंह, गुरु (1666-1708 ई.) सिक्खों के 10वें और अंतिम गुरु। बचपन गंगा नदी में नाव खेने, साथियों से मल्लयुद्ध करने कराने, वाणविद्या का अभ्यास, घुड़सवारी और शिकार करने में बीता। ये नौ वर्ष के थे जब इनके पिता गुरु तेगबहदुर ने दिल्ली में अपना बलिदान दिया। मुगलों से अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिये बालक गोविंद ने 11 वर्ष तक नाहन की पहाड़ियों में तप किया, एवं भगवद्भजन और विद्यासंग्रह के अतिरिक्त शस्त्रविद्या का अभ्यास किया, नवयुवकों को भरती किया, (देहरादून से 30 मील) पौंटा में एक किला और आनंदपुर में एक शस्त्रागार बनवाया। पौंटा में रहकर इन्होंने श्रीकृष्णचरित से संबंधित अपनी प्रारंभिक रचनाएँ लिखीं। स्थायी वास आनंदपुर में रखा। इनके दरबार में बावन (52) कवि- नंदलाल, हुसेन अली, मंगल, चंदन, ईशरदास, कुँवर आदि थे। कुँवर हिंदी के प्रसिद्ध कवि केशवदास के पुत्र थे। इन कवियों ने पुराण, रामयण, महभारत आदि का उल्था किया और मौलिक साहित्य भी लिखा, किंतु वह सब बाद में युद्धयात्राओं में सतलज नदी की भेंट हो गया।

गुरु गोविंदसिंह ने दो विवाह किए थे। सुंदरी से अजीतसिंह, और जीतो से जुझारसिंह, जोरावरसिंह और फतहसिंह चार पुत्र हुए। बाद में चारों बालक शत्रुओं के हाथों मारे गए। जोरावर और फतह सरहिंद में वहाँ के शासक वजीरखाँ की आज्ञा से जीते जी दीवार में चुनवा दिए गए। सन्‌ 1699 में गुरु गोविंदसिंह ने वैशाखी संक्रांति के दिन एक बड़ा भारी यज्ञ किया। इसमें उन्होंने 'पाँच प्यारे' सिक्खों का चुनाव किया और उन्हें वह रूप दिया जो आज सिक्खों का है- अर्थात्‌ उन्हें केश, कंघा, कच्छ (जांघिया), कड़ा और कृपाण इन पाँच ककारों में सुसज्जित किया। इसी से 'खालसा' की नींव पड़ी। धीरे धीरे इनकी सेना और शक्ति बढ़ने लगी। आनंदपुर, चमकौर, मुक्तिसर आदि स्थानों पर सिक्खों की मुगलों के साथ घमासान लड़ाइयां हुईं जिनमें गुरु गोविंदसिंह की अद्भुत संगठनशक्ति, त्याग, तपस्या, आस्तिकता और आत्मविश्वास का प्रमाण मिला। अंतिम दिनों में ये दक्षिण में थे जहाँ नांदेड़[१] में एक पठान के हाथों घायल होने के कारण इनका देहांत हुआ।

गुरु गोविंदसिंह की साहित्यिक रचनाओं में 'दशम ग्रंथ', 'गोविंदगीता' और 'प्रेमबोध' प्रसिद्ध हैं। 'दशम ग्रंथ' की भावधारा हिंदू पद्धति की है, संभवत: इसीलिये इसे सिक्खों में इतनी मान्यता नहीं दी गई जितनी आदिग्रंथ को। दशम ग्रंथ के अंतर्गत 'ज़फरनामा' फारसी में लिखा औरंगजेब के नाम पत्र है। 'चंडी दी वार' इनकी एकमात्र पंजाबी की कविता है। शेष संपूर्ण साहित्य हिंदी में है- (भक्तिरस का) जाप साहब, अकाल उस्तुत, चौपई, वार स्त्री भगौती; (वीररस की) विचित्र नाटक (आत्मचरित), चौबीस अवतार और शस्त्र नाममाला। छंदों की विविधता, भाषा की ओजस्विता, भावों की स्पष्टता और कल्पना की मौलिकता इनके काव्य के शृंगार हैं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अब अविचल नगर