ग्रियर्सन, जार्ज अब्राहम

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लेख सूचना
ग्रियर्सन, जार्ज अब्राहम
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 68
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक लक्ष्मीसागर वाष्णेंय

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ग्रियर्सन, जार्ज अब्राहम, (१८५१-१९४१) ई. : भारतीय विद्याविशारदों में, विशेषत: भाषाविज्ञान के क्षेत्र में सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन का 'लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया' के प्रणेता के रूप में अमर स्थान है। ग्राउज और बीम्स की भाँति वे भी इंडियन सिविल सर्विस के कर्मचारी थे। उनका जन्म डब्लिन के निकट ७ जनवरी, १८५१ को हुआ था। उनके पिता आयरलैंड में क्वींस प्रिंटर थे। १८६८ से डब्लिन में ही उन्होंने संस्कृत और हिंदुस्तानी का अध्ययन प्रारंभ कर दिया था। बीज़ (Bee's) स्कूल श्यूजबरी, ट्रिनटी कालेज, डब्लिन और केंब्रिज तथा हले (Halle) (जर्मनी) में शिक्षा ग्रहण कर १८७३ में वे इंडियन सिविल सर्विस के कर्मचारी के रूप में बंगाल आए और प्रारंभ से ही भारतीय आर्य तथा अन्य भारतीय भाषाओं के अध्ययन की ओर रुचि प्रकट की। १८८० में इंस्पेक्टर ऑव स्कूल्स, बिहार और १८६९ तक पटना के ऐडिशनल कमिश्नर और औपियम एज़ेंट, बिहार के रूप में उन्होंने कार्य किया। सरकारी कामों से छुट्टी पाने के बाद वे अपना अतिरिक्त समय संस्कृत, प्राकृत, पुरानी हिंदी, बिहारी और बंगला भाषाओं और साहित्यों के अध्ययन में लगाते थे। जहाँ भी उनकी नियुक्ति होती थी वहीं की भाषा, बोली, साहित्य और लोकजीवन की ओर उनका ध्यान आकृष्ट होता था।

१८७३ और १८६९ के कार्यकाल में ग्रियर्सन ने अपने महत्वपूर्ण खोज कार्य किए। उत्तरी बंगाल के लोकगीत, कविता और रंगपुर की बँगला बोली जर्नल ऑव दि एशियाटिक सोसायटी ऑव बंगाल[१] राजा गोपीचंद की कथा वही[२] मैथिली ग्रामर (१८८०) सेवेन ग्रामर्स आव दि डायलेक्ट्स ऑव दि बिहारी लैंग्वेज इंट्रोडक्शन टु दि मैथिली लैंग्वेज; ए हैंड बुक टु दि कैथी कैरेक्टर, बिहार पेजेंट लाइफ, बीइग डेस्क्रिप्टिव कैटेलाग ऑव दि सराउंडिंग्ज ऑव दि वर्नाक्युलर्स, जर्नल ऑव दि जर्मन ओरिएंटल सोसाइटी, कश्मीरी व्याकरण और कोश, कश्मीरी मैनुएल, पद्मावती का संपादन (१९०२) महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी की सहकारिता में, बिहारकृत सतसई[३] का संपादन, नोट्स ऑन तुलसीदास, दि माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑव हिंदुस्तान (१८८९) आदि उनकी कुछ महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं।

उनकी ख्याति का प्रधान स्तंभ लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया ही है। १८८५ में प्राच्य विद्याविशारदों की अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस ने विएना अधिवेशन में भारतवर्ष के भाषा सर्वेक्षण की आवश्यकता का अनुभव करते हुए भारतीय सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया। फलत: भारतीय सरकार ने १८८८ में ग्रियर्सन की अध्यक्षता में सर्वेक्षण कार्य प्रारंभ किया। १८८८ से १९०३ तक उन्होंने इस कार्य के लिये सामग्री संकलित की। १९०२ में नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात्‌ १९०३ में जब उन्होंने भारत छोड़ा सर्वे के विभिन्न खंड क्रमश: प्रकाशित होने लगे। वह २१ जिल्दों में है और उसमें भारत की १७९ भाषाओं और ५४४ बोलियों का सविस्तार सर्वेक्षण है। साथ ही भाषाविज्ञान और व्याकरण संबंधी सामग्री से भी वह पूर्ण है। ग्रियर्सन कृत सर्वे अपने ढंग का एक विशिष्ट ग्रंथ है। उसमें हमें भारतवर्ष का भाषा संबंधी मानचित्र मिलता है और उसका अत्यधिक सांस्कृतिक महत्व है। दैनिक जीवन में व्यवहृत भाषाओं और बोलियों का इतना सूक्ष्म अध्ययन पहले कभी नहीं हुआ था। बुद्ध और अशोक की धर्मलिपि के बाद ग्रियर्सन कृत सर्वे ही एक ऐसा पहला ग्रंथ है जिसमें दैनिक जीवन में बोली जानेवाली भाषाओं और बोलियों का दिग्दर्शन प्राप्त होता है।

इन्हें सरकार की ओर से १८९४ में सी.आई.ई. और १९१२ में 'सर' की उपाधि दी गई। अवकाश ग्रहण करने के पश्चात्‌ ये कैंबले में रहते थे। आधुनिक भारतीय भाषाओं के अध्ययन क्षेत्र में सभी विद्वान्‌ उनका भार स्वीकार करते थे। १८७६ से ही वे बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के सदस्य थे। उनकी रचनाएँ प्रधानत: सोसायटी के जर्नल में ही प्रकाशित हुईं। १८९३ में वे मंत्री के रूप में सोसाइटी की कौंसिल के सदस्य और १९०४ में आनरेरी फेलो मनोनीत हुए। १८९४ में उन्होंने हले से पी.एच.डी. और १९०२ में ट्रिनिटी कालेज डब्लिन से डी.लिट्. की उपाधियाँ प्राप्त कीं। वे रॉयल एशियाटिक सोसायटी के भी सदस्य थे। उनकी मृत्यु १९४१ में हुई।

ग्रियर्सन को भारतीय संस्कृति और यहाँ के निवासियों के प्रति अगाध प्रेम था। भारतीय भाषाविज्ञान के वे महान्‌ उन्नायक थे। नव्य भारतीय आर्यभाषाओं के अध्ययन की दृष्टि से उन्हें बीम्स, भांडारकर और हार्नली के समकक्ष रखा जा सकता है। एक सहृदय व्यक्ति के रूप में भी वे भारतवासियों की श्रद्धा के पात्र बने।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. १८७७, जि. १ सं. ३, पृ. १८६-२२६ :
  2. १८७८, जि. १ सं. ३ पृ. १३५-२३८
  3. लल्लूलालकृत टीका सहित