घाघ

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
घाघ
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 114
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक शिवगोपाल मिश्र
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
स्रोत शिवगोपाल मिश्र : भारतीय कृषि का विकास।
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक शिव गोपाल मिश्र

घाघ कृषि पंडित एवं व्यावहारिक पुरुष होने के नाते धाध का नाम भारतवर्ष के, विशेषत: उत्तरी भारत के, कृषकों के जिह्वाग्र पर रहता है। चाहे बैल खरीदना हो या खेत जोतना, बीज बोना हो अथवा फसल काटना, घाघ की कहावतें उनका पथप्रदार्शन करती हैं। ये कहावतें मौखिक रूप से परंपरया भारत भर में प्रचलित हैं।

घाघ के जन्मकाल एवं जन्मस्थान के संबंध में बड़ा मतभेद है। शिवसिंह सरोज का मत है कि इनका जन्म सं. १७५३ में हुआ था, किंतु पं. रामनरेश त्रिपाठी ने बहुत खोजबीन करके इनके कार्यकाल को सम्राट् अकबर के राज्यकाल में माना है। इनकी जन्मभूमि कन्नौज के पास चौधरीसराय नामक ग्राम बताई जात है। ये दुबे ब्राह्मण थे। कहा जाता है, अकबर ने प्रसन्न होकर इन्हें सरायघाघ बसाने की आज्ञा दी थी, जो कन्नौज से एक मील दक्षिण स्थित है।

अभी तक घाघ की लिखी हुई कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं हुई। हाँ, उनकी वाणी कहावतों के रूप में बिखरी हुई है, जिसे अनेक लोगों ने संग्रहीत किया है। इनमें रामनरेश त्रिपाठी कृत 'घाघ और भड्डरी' अत्यंत महत्वपूर्ण संकलन है।

घाघ के कृषिज्ञान का पूरा पूरा परिचय उनकी कहावतों से मिलता है। उनका यह ज्ञान खादों के विभिन्न रूपों, गहरी जोत, मेंड़ बाँधने, फसलों के बोने के समय, बीज की मात्रा, दालों की खेती के महत्व एवं ज्योतिष ज्ञान, शीर्षकों के अंतर्गत विभाजित किया जा सकता है। घाघ का अभिमत था कि कृषि सबसे उत्तम व्यवसाय है, जिसमें किसान भूमि को स्वयं जोतता है :

  • उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान।१।
  • खेती करै बनिज को धावै, ऐसा डूबै थाह न पावै।२।
  • उत्तम खेती जो हर गहा, मध्यम खेती जो सँग रहा।३।

अथवा- जो हल जोतै खेती वाकी, और नहीं तो जाकी ताकी।१।

खादों के संबंध में घाघ के विचार अत्यंत पुष्ट थे। उन्होंने गोबर, कूड़ा, हड्डी, नील, सनई, आदि की खादों को कृषि में प्रयुक्त किए जाने के लिये वैसा ही सराहनीय प्रयास किया जैसा कि १८४० ई. के आसपास जर्मनी के सप्रसिद्ध वैज्ञानिक लिबिग ने यूराप में कृत्रिम उर्वरकों के संबंध में किया था। घाघ की निम्नलिखित कहावतें अत्यंत सारगर्भित हैं :

  • खाद पड़े तो खेत, नहीं तो कूड़ा रेत।५।
  • गोबर राखी पाती सड़ै, फिर खेती में दाना पड़ै।६।
  • सन के डंठल खेत छिटावै, तिनते लाभ चौगुनो पावै।७।
  • गोबर, मैला, नीम की खली, या से खेती दुनी फली।८।
  • वही किसानों में है पूरा, जो छोड़ै हड्डी का चूरा९।

घाघ ने गहरी जुताई को सर्वश्रेष्ठ जुताई बताया। यदि खाद छोड़कर गहरी जोत कर दी जाय तो खेती को बड़ा लाभ पहुँचता है :

  • छोड़ै खाद जोत गहराई, फिर खेती का मजा दिखाई।१०।

बांध न बाँधने से भूमि के आवश्यक तत्व घुल जाते और उपज घट जाती है। इसलिये किसानों को चाहिए कि खेतों में बाँध अथवा मेंड़ बाँधे,

  • सौ की जोत पचासै जोतै, ऊँच के बाँधै बारी
  • जो पचास का सौ न तुलै, दव घाघ को गारी।११।

घाघ ने फसलों के बोने का उचित काल एवं बीज की मात्रा का भी निर्देश किया है। उनके अनुसार प्रति बीघे में पाँच पसेरी गेहूँ तथा जौ, छ: पसेरी मटर, तीन पसेरी चना, दो सेर मोथी, अरहर और मास, तथा डेढ़ सेर कपास, बजरा बजरी, साँवाँ कोदों और अंजुली भर सरसों बोकर किसान दूना लाभ उठा सकते हैं। यही नहीं, उन्होंने बीज बोते समय बीजों के बीच की दूरी का भी उल्लेख किया है, जैसे घना-घना सन, मेंढ़क की छलांग पर ज्वार, पग पग पर बाजरा और कपास; हिरन की छँलाग पर ककड़ी और पास पास ऊख को बोना चाहिए। कच्चे खेत को नहीं जोतना चाहिए, नहीं तो बीज में अंकुर नहीं आते। यदि खेत में ढेले हों, तो उन्हें तोड़ देना चाहिए।

आजकल दालों की खेती पर विशेष बल दिया जाता है, क्योंकि उनसे खेतों में नाइट्रोजन की वृद्धि होती है। घाघ ने सनई, नील, उर्द, मोथी आदि द्विदलों को खेत में जोतकर खेतों की उर्वरता बढ़ाने का स्पष्ट उल्लेख किया है। खेतों की उचित समय पर सिंचाई की ओर भी उनका ध्यान था।

भड्डरी की ही भाँति वे भी ज्योतिषी थे। किस मास में किधर से हवा चले तो कितनी वर्षा हो, अथवा किस मास की वर्षा से खेती में कीड़े लगेंगे, इसका अच्छा व्यावहारिक ज्ञान उन्हें था। आज भी किसान उनकी ऐसी कहावतों से लाभान्वित होते हैं।

बैल ही खेती का मूलधार है, अत: घाघ ने बैलों के आवश्यक गुणों का सविस्तार वर्णन किया है। हल तैयार करने के लिये आवश्यक लकड़ी एवं उसके परिमाण का भी उल्लेख उनकी कहावतों में मिलता है।

उपलब्ध कहावतों के आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि घाघ ने भारतीय कृषि को व्यावहारिक दृष्टि प्रदान की। उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी और उनमें नेतृत्व की क्षमता भी थी। उनके कृषि संबंधी ज्ञान से आज भी अनेकानेक किसान लाभ उठाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से उनकी ये समस्त कहावतें अत्यत सारगर्भित हैं, अत: भारतीय कृषिविज्ञान में घाघ का विशिष्ट स्थान हैं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ