चक्रवाक
चक्रवाक
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 152 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | रामप्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | श्याम तिवारी |
चक्रवाक (Ruddy Sheldrake) साहित्य का चिरपरिचित पक्षी है, जैसे बुलबुल उर्दू साहित्य का। इसके कोक, कोकनद आदि अनेक नाम हैं, लेकिन गाँवों में ये चकवा चकई के नाम से प्रसिद्ध है। यह पक्षी (Aves) वर्ग के हंस (Antidae) कुल का, मझोले कद का प्राणी है, जो प्रति वर्ष जाड़ों के प्रारंभ में हमारे देश में उत्तर की ओर से आकर जाड़ा समाप्त होते होते फिर उसी ओर लौट जाता है।
चक्रवाक (Casarca rufila) का रंग गाढ़ा नारंगी या हलका कत्थई होता है, लेकिन इसकी गरदन ओर सिर बदामी होता है। गरदन के चारों ओर एक काला कंठा रहता हैं, लेकिन मादा इस कंठे से रहित होती है। डैने और पर के कुछ पंख काले और सफेद रहते हैं और डैने का चित्ता (Speculum) हरा होता है।
चक्रवाक की एक प्रसिद्ध जाति शाह चकवा (Sheldrake, Tadorna tadorna) कहलाती है। यह काले और सफेद रंग का बहुत ही सुंदर चितकबरा पक्षी है, जिसका कद और आदतें चक्रवाक जैसी ही होती हैं।
चक्रवाक दो फुट लंबा पक्षी है, जिसके नर ओर मादा करीब करीब एक जैसे ही होते हैं। मादा नर से कुछ छोटी होती है और उसका रंग भी नर से कुछ हलका रहता है।
चक्रवाक सारे दक्षिणी पूर्वी यूरोप, मध्यएशिया और उत्तरी अफ्रीका के प्रदेशों में फैले हुए हैं, जहाँ ये झीलों, बड़ी नदियों तथा समुद्री किनारों पर अपना अधिक समय बिताते हैं। ये बहुत ढीठ पक्षी हैं। इनकी कर्कश बोली आबादी के निकटवर्ती जलाशयों में सुनाई पड़ती रहती है। हमारे कवियों ने इसी कारण शायद इनके बारे में यह कल्पना की है कि रात में नर पक्षी मादा से विलग हो जाता है और उसका मिलन सूर्योदय के पूर्व नहीं होता, लेकिन केवल साहित्यिक मान्यता के अतिरिक्त इसमें कोई तथ्य नहीं है।
चक्रवाक जोड़े में रहते हैं, लेकिन कभी कभी सैकड़ों का झुंड बना लेते हैं। ये अंडा देने के लिये घोंसला नहीं बनाते। इनकी मादा पहाड़ के सूराखों में अथवा जमीन पर ही थोड़ा घास फूस रखकर अपने अंडे देती है। इनका मुख्य भोजन घास पात, सेवर तथा अन्न के दाने आदि हैं, लेकिन छोटी छोटी मछलियाँ और घोंघे, कटुए आदि भी ये खा लेते हैं। इनका मांस साधारण तथा बिसैधा होता है। (सु.सिं.)
चक्रवाक (साहित्य) : नामकरण उसके बोलने के ढंग पर हुआ है। चकवा इसका अपभ्रंश हिंदी शब्द है। इस पक्षी का प्राचीनतम उल्लेख अश्वमेघ के अंतर्गत बलिजीवों की सूची में ऋग्वेद (2.39,3) तथा यजुर्वेद में हुआ है। इसके संबंध में प्रचलित किंवदंती, जो कविसमय के रूप में प्रसिद्ध होकर भारतीय प्राचीन और अर्वाचीन काव्यों में प्रयुक्त हुई है तथा जिसका इस अर्थ में सबसे पुराना प्रयोग अथर्ववेद (4.2.64) में दंपति की परस्पर निष्ठा और प्रेम जैसी चारित्रिक विशेषता के संदर्भ में हुआ है, यह है कि इसके जोड़े दिन में तो प्रेमपूर्वक साथ साथ विचरते हें किंतु सूर्यास्त के बाद बिछुड़ जाते हैं ओर रात भर अलग रहते हैं। अत्यंत प्राचीन काल से कवियों की संयोग तथा वियोगसंबंधी कोमल व्यंजनाएँ इस प्रसिद्धि से संबद्ध हैं। यह पक्षी मिलन की असमर्थता के प्रतीक रूप में अनेक उक्तियों का विषय रहा है। अंधविश्वास, किंवदंती और काल्पनिक मान्यता से युक्त इस पक्षी की तथाकतित उपर्युक्त विशेषता ने इसे कविसमय तथा रूढ़ उपमान के रूप में प्रसिद्ध कर दिया है। (चक्रवाक (Ruddy Sheldrake) साहित्य का चिरपरिचित पक्षी है, जैसे बुलबुल उर्दू साहित्य का। इसके कोक, कोकनद आदि अनेक नाम हैं, लेकिन गाँवों में ये चकवा चकई के नाम से प्रसिद्ध है। यह पक्षी (Aves) वर्ग के हंस (Antidae) कुल का, मझोले कद का प्राणी है, जो प्रति वर्ष जाड़ों के प्रारंभ में हमारे देश में उत्तर की ओर से आकर जाड़ा समाप्त होते होते फिर उसी ओर लौट जाता है।
चक्रवाक (Casarca rufila) का रंग गाढ़ा नारंगी या हलका कत्थई होता है, लेकिन इसकी गरदन ओर सिर बदामी होता है। गरदन के चारों ओर एक काला कंठा रहता हैं, लेकिन मादा इस कंठे से रहित होती है। डैने और पर के कुछ पंख काले और सफेद रहते हैं और डैने का चित्ता (Speculum) हरा होता है।
चक्रवाक की एक प्रसिद्ध जाति शाह चकवा (Sheldrake, Tadorna tadorna) कहलाती है। यह काले और सफेद रंग का बहुत ही सुंदर चितकबरा पक्षी है, जिसका कद और आदतें चक्रवाक जैसी ही होती हैं।
चक्रवाक दो फुट लंबा पक्षी है, जिसके नर ओर मादा करीब करीब एक जैसे ही होते हैं। मादा नर से कुछ छोटी होती है और उसका रंग भी नर से कुछ हलका रहता है।
चक्रवाक सारे दक्षिणी पूर्वी यूरोप, मध्यएशिया और उत्तरी अफ्रीका के प्रदेशों में फैले हुए हैं, जहाँ ये झीलों, बड़ी नदियों तथा समुद्री किनारों पर अपना अधिक समय बिताते हैं। ये बहुत ढीठ पक्षी हैं। इनकी कर्कश बोली आबादी के निकटवर्ती जलाशयों में सुनाई पड़ती रहती है। हमारे कवियों ने इसी कारण शायद इनके बारे में यह कल्पना की है कि रात में नर पक्षी मादा से विलग हो जाता है और उसका मिलन सूर्योदय के पूर्व नहीं होता, लेकिन केवल साहित्यिक मान्यता के अतिरिक्त इसमें कोई तथ्य नहीं है।
चक्रवाक जोड़े में रहते हैं, लेकिन कभी कभी सैकड़ों का झुंड बना लेते हैं। ये अंडा देने के लिये घोंसला नहीं बनाते। इनकी मादा पहाड़ के सूराखों में अथवा जमीन पर ही थोड़ा घास फूस रखकर अपने अंडे देती है। इनका मुख्य भोजन घास पात, सेवर तथा अन्न के दाने आदि हैं, लेकिन छोटी छोटी मछलियाँ और घोंघे, कटुए आदि भी ये खा लेते हैं। इनका मांस साधारण तथा बिसैधा होता है।[१]
चक्रवाक (साहित्य) : नामकरण उसके बोलने के ढंग पर हुआ है। चकवा इसका अपभ्रंश हिंदी शब्द है। इस पक्षी का प्राचीनतम उल्लेख अश्वमेघ के अंतर्गत बलिजीवों की सूची में ऋग्वेद (2.39,3) तथा यजुर्वेद में हुआ है। इसके संबंध में प्रचलित किंवदंती, जो कविसमय के रूप में प्रसिद्ध होकर भारतीय प्राचीन और अर्वाचीन काव्यों में प्रयुक्त हुई है तथा जिसका इस अर्थ में सबसे पुराना प्रयोग अथर्ववेद (4.2.64) में दंपति की परस्पर निष्ठा और प्रेम जैसी चारित्रिक विशेषता के संदर्भ में हुआ है, यह है कि इसके जोड़े दिन में तो प्रेमपूर्वक साथ साथ विचरते हें किंतु सूर्यास्त के बाद बिछुड़ जाते हैं ओर रात भर अलग रहते हैं। अत्यंत प्राचीन काल से कवियों की संयोग तथा वियोगसंबंधी कोमल व्यंजनाएँ इस प्रसिद्धि से संबद्ध हैं। यह पक्षी मिलन की असमर्थता के प्रतीक रूप में अनेक उक्तियों का विषय रहा है। अंधविश्वास, किंवदंती और काल्पनिक मान्यता से युक्त इस पक्षी की तथाकतित उपर्युक्त विशेषता ने इसे कविसमय तथा रूढ़ उपमान के रूप में प्रसिद्ध कर दिया है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सुरेश सिंह कुअर