चरणदास

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लेख सूचना
चरणदास
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 168
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक रामप्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक पराुराम चतुर्वेदी

चरणदास और चरणदासी संप्रदाय संत चरणदास का जन्म मेवात के अंतर्गत, डेहरा नामक स्थान में सं. 1760 की भाद्रपद शुक्ला तृतीया को मंगलवार के दिन हुआ था। इनके मातापिता, क्रमश: कुंजो एवं मुरलीधर, ढूसर जाति के थे। उन्होंने स्वयं कहा है 'मेरा जन्मनाम रणजीत रहा, मैं बाल्यावस्था में ही घूमता घामता दिल्ली के निकट श्री शुकदेव से मिला जिन्होंने मेरा नाम चरणदास रख दिया और मैं योगमुक्ति एवं हीरभक्ति द्वारा ब्रह्मज्ञान में दृढ़ता उपलब्ध करके, अजपा में लीन रहने लगा।' (ज्ञानस्वरोदय अंतिम छप्पय)। विलियम क्रुक्स के अनुसार उस समय इनकी अवस्था 19 वर्ष की थी और ये मुजफ्फरनगर के पास शूकरताल में किसी बाबा सुखदेवदास द्वारा दीक्षित हुए थे'[१]। परंतु स्वयं इनकी रचनाओं से इनका वस्तुत: प्रसिद्ध व्यासपुत्र शुकदेव मुनि से दीक्षा ग्रहण करना जान पड़ता है (अष्टांगयोग, ब्रह्मज्ञानसागर भक्तिसागर आदि)। संत चरणदास ने फिर अनेक तीर्थों में भ्रमण किया और श्रीमद्भागवत द्वारा प्रभावित होकर उसके एकादशवें स्कंध को आदर्शग्रंथ मान लिया। इनके शिष्य रामरूप के ग्रंथ 'गुरुभक्तिप्रकाश' में इनके अध्ययन एवं विवाह के प्रति उपेक्षा प्रकट करने का संकेत मिलता है। वहीं से यह भी प्रकट होता है कि अपनी आयु के 35वें वर्ष में इन्होंने, सं. 1795-96 में, इस संप्रदाय की स्थापना की होगी[२]। उसमें इनके विविध चमत्कारों का भी वर्णन किया गया है तथा इनकी वेशभूषा एवं रहन सहन की चर्चा की गई है। इन्होंने अपन जीवन के प्राय: 50 वर्ष अपने मत के प्रचार में व्यतीत किए और अंत में, सं. 1838 की अगहन शुक्ला तृतीया को अपना शरीरत्याग किया। इनके मृत्युस्थान पर दिल्ली में, एक समाधि बनी हुई है। इनके जन्मस्थान डेहरा में भी इनकी छतरी है जहाँ इनका भाला, वस्त्र और टोपी सुरक्षित है तथा उसी के निकट निर्मित मंदिर में, इनके चरण चिन्ह भी बने हैं जहां पर प्रति वर्ष वसंत पंचमी को एक मेला लगता है। रूपमाधुरीशरण ने अपनी रचना 'गुरुमहिमा' के अंतर्गत इनके बावन शिष्यों के नाम लेकर फिर एकतीस अन्य ऐसे लोगों का भी उल्लेख किया है जो, अपनी साधना में विशेष सफलता प्राप्त कर लेने के कारण इन्हें अधिक प्रिय थे। इन शिष्यों में सभी वर्ण के पुरुष थे। इनमें स्त्रियाँ भी थीं जिनमें सहजोबाई एवं दयाबाई के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

संत चरणदास द्वारा रचे गए 20 ग्रंथ प्रसिद्ध हैं जिन्हें, उनके विषयानुसार, तीन मुख्य वर्गो में विभाजित किया जा सकता है। इनमें से प्रथम का संबंध 'योगसाधना' से, द्वितीय का 'भक्ति से तथा तृतीय का ब्रह्मज्ञान के साथ है। इनमें अधिकतर वर्णनात्मक शैली अपनाई गई है। कुछ ऐसे ग्रंथ भी हैं जिनका मूल संस्कृत रचनाओं पर आधारित रहना स्पष्ट है। योगसाधना की चर्चा करते समय चरणदास ने मानव शरीर में पाई जानेवाली विविध नाड़ियों तथा अन्य रहस्यमयी बातों का परिचय देकर उनके महत्व की ओर ध्यान दिलाया है तथा उन्हें सुस्थित रखने का भी परामर्श दिया है। इन्होंने 'अष्टांग योग' एवं 'षट्कर्म' का वर्णन किया है तथा 'समाधि' के क्रमश: 'भक्तिसमाधि' 'योगसमाधि' एवं 'ज्ञानसमाधि' नामक तीन रूप बतलाए हैं जिनमें से प्रत्येक की अंतिम स्थिति प्राय: एक सी ही लगती है और इनमें जो कुछ भी भेद लक्षित होता है वह केवल प्रक्रियाओं का है। अपने भक्तियोगवाले वर्णन में ये वृंदावन आदि तीर्थों को कोई भौतिक रूप न देकर उन्हें अलौकिक धाम जैसा प्रकट करते हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं में निष्काम प्रेमभक्ति का प्रतिपादन किया है तथा सामाजिक व्यवहार में सदाचरण को महत्व दिया है। ये अपने मत को 'शुकदेवानुमोदित भागवत' स्वीकार करते जान पड़ते हैं तथा इसी के अनुसार, उसमें ज्ञानयोग का भी स्थान है।

इनके शिष्यों और शिष्याओं में से तथा कतिपय प्रशिष्यों में भी कई ने अनेक रचनाएँ प्रस्तुत की हैं जिनमें उक्त विषयों के अतिरिक्त बहुत से पौराणिक उपाख्यानों की चर्चा आती है और उनमें उन जैसे उपयोगी शास्त्रों की समावेश किया गया भी मिलता है। सहजोबाई ने अपने गुरु को हरि से भी बड़ा माना है और 'राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ। गुरु के सम हरि को न निहारूँ'। (सहजप्रकाश, पृ. 3) जैसा तक उद्गार प्रकट किया है।

चरणदासी संप्रदाय के अनुयायी विरक्त एवं संसारी दोनों ही प्रकार के होते हैं। विरक्त बहुधा पीले वस्त्र पहनते हैं, गोपीचंदन का एक लंबा तिलक ललाट पर धारण करते हैं और तुलसी का माला तथा सुमिरनी भी अपने पास रखते हैं। इनकी टोपी छोटी तथा नुकीली होती है जिसपर साधरणत: पीला साफा भी बाँध लिया जाता है। ऐसे लोग गृहस्थों में सम्मानित हुआ करते हैं। इस पंथ के अनेक मठ यत्र तत्र मिलते हैं जिनका व्यवहार चलाने के लिये मुगल बादशाहों के समय से कुछ न कुछ भूमि मिली है। इसके अनुयायी श्री मद्भागवत्‌ को बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं और श्रीकृष्ण की लीलाओं का कीर्तन भी किया करते हैं। इसका प्रचारक्षेत्र अधिकतर दिल्ली प्रांत, उत्तर प्रदेश, पूर्वी पंजाब एवं राजस्थान तक सीमित रहा है।

संत चरणदास के प्रसिद्ध बावन शिष्यों के कोई बावन मठ आजतक उपलब्ध नहीं है और संप्रदाय के अनेक अनुयायी साधारण वैष्णवों में हिल मिल गए हैं। इनमें से बहुत से लोग, वाणिज्य व्यापार द्वारा अर्जित ऐश्वर्य के कारण, बाह्याडंबर के प्रेमी भी बन गए हैं। इनके यहाँ जो निर्धन रहते हैं वे भी भिक्षावृत्ति से जीवन का निर्वाह करना गर्हित समझते हैं। भंग, तंबाकू, लहसुन, गाजर, प्यास और मंसूर की दाल जैसे कई पदार्थ इनके यहाँ सर्वथा त्याज्य हैं तथा कमंडलु एवं श्रीतिलक का धारण करना अनिवार्य सा रहता है। संप्रदाय में सद्गुरु द्वारा दीक्षित होने को विशेष महत्व दिया जाता है और इसके लिये दीक्षोत्सव का बहुत बड़ा समारोह भी किया जाता है। दीक्षार्थी सर्वप्रथम 'शरणागत' कहलाकर उपस्थित होता है और उसका क्षौरकर्म करके तथा पंचाग्नि द्वारा उसे शुद्ध करके, कंठी बाँधी जाती है। दीक्षामंत्र यहाँ शरणागत के विरक्त अथवा संसारी बनने की दृष्टि से दो प्रकार से देते हैं किंतु दोनों ही दशाओं में इसका महात्म्य बड़ा है।

संप्रदाय के मूलप्रवर्तक संत चरणदास की समन्वयात्मक बुद्धि, उनका संतमतानुमोदित उच्चादर्श एवं सदाचरण के लिये निर्दिष्ट किए गए उनके विविध नियमों का प्रभाव अब उनके अनुयायियों में पूर्ववत्‌ लक्षित नहीं होता और न वैसी कोई प्रगति ही दिखाई पड़ती है।[३]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ट्रा.ऐं.का.ना.वे.प्रा., भा. 2, पृ. 201
  2. पृ. 79-81
  3. सं.ग्रं.- क्रुक्स : कास्ट्स ऑव नार्थवेस्ट प्राविंसेज़ (भाग २), भक्तिसागर; परशुराम चतुर्वेदी : उत्तर भारत की संतपरंपरा; त्रिलोकीनारायण दीक्षित : संत चरणदास (हिंदुस्तानी एकेडेमी, प्रयाग, 1961)।