चर्यापद

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लेख सूचना
चर्यापद
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 178
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक रामप्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक रामपूजन तिवारी

चर्यापद चर्या का अर्थ आचरण या व्यवहार है। 'चर्या' के पद सहजिया बौद्ध सिद्धों द्वारा रचित हैं। इन पदों में बतलाया गया है कि साधक के लिये क्या आचरणीय और क्या अनाचरणीय है। इन पदों का संग्रह 'चर्यापद' के नाम से अभिहित किया जाता है। सिद्धों की संख्या चौरासी कही जाती है जिनमें कुछ प्रमुख सिद्ध निम्नलिखित हैं : लुइपा, शबरपा, सरहपा, शांतिपा, काह्नपा, जालंधरपा, भुसुकपा आदि। इन सिद्धों के काल का निर्णय करना कठिन हैं, फिर भी साधारणत: इनका काल सन्‌ 800 ई. से सन्‌ 1175 ई. तक माना जा सकता है।

'चर्यापद' में संगृहीत पदों की रचना कुछ ऐसे रहस्यात्मक ढंग से की गई है और कुछ ऐसी भाषा का सहारा लिया गया है कि बिना उसके मर्म को समझे इन पदों का अर्थ समझना कठिन है। इस भाषा को 'संघा' या 'संध्या भाषा' कहा गया है। 'संध्या भाषा' का अर्थ कई प्रकार से किया गया है। हरप्रसाद शास्त्री ने संध्या भाषा का अर्थ 'प्रकाश-अंधकारमयी' भाषा किया है। उनका कहना है कि उसमें कुछ प्रकाश और कुछ अंधकार मिले जुले रहते हैं, कुछ समझ में आता है, कुछ समझा में नहीं आता। महामहोपाध्याय पंडित विधुशेखर शास्त्री का मत है कि वस्तव में यह शब्द 'संध्या भाषा' नहीं है बल्कि 'संधा भाषा' है और इसका अर्थ यह है कि इस भाषा में शब्दों का प्रयोग साभिप्राय तथा विशेष रूप से निर्दिष्ट अर्थ में किया गया है (इंडियन हिस्टॉरिकल क्वार्टर्ली, 1928, पृ. 289)। इन शब्दों का अभीष्ट अर्थ अनुधावनपूर्वक ही समझा जा सकता है। अतएव कहा जा सकता है कि संध्या या संधा शब्द का प्रयोग 'अभिसंधि' या केवल 'संधि' के अर्थ में किया गया है। 'अभिसंधि' का तात्पर्य यहाँ अभीष्ट अर्थ है अथवा दो अर्थों का मिलन है अर्थात्‌ उस शब्द का एक साधारण अर्थ है तथा दूसरा अभीष्ट अर्थ। इसलिये संध्या के धुँधलेपन से इस शब्द का संबंध बतलाना उचित नहीं।

चर्यापद की संस्कृत टीका में टीकाकार मुनिदत्त ने संध्या भाषा शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है। 21 संख्यक भुसुकपाद की चर्या में कहा गया है, 'निसि अँधारी मुसा अचारा'। इसकी टीका करते हुए टीकाकार ने कहा है, 'भूषक: संध्यावचने चित्तपवन: बोद्धव्य:'। सरहपाद के 'दोहाकोश' के पंजिकाकार अद्वयवज्र (ईसवी सन्‌ की 12वीं शताब्दी) ने कहा है : 'तया श्वेतच्छागनियांतनया नरकादिदु:खमनुभवंति। संध्या भाषमजानानतत्वात्‌ च'। अर्थात्‌ यज्ञ करनेवाले ब्राह्मणगण वेदमंत्र की संध्या भाषा को जानने के कारण पशुबलि कर नरकादि दु:ख का अनुभव करते हैं।

चर्यापदों के अर्थ को समझने के लिय सहजिया बौद्धों के दृष्टिकोण को समझ लेना आवश्यक है। साधना और दार्शनिक तत्व दोनों ही दृष्टियों से इन पदों का अध्ययन अपेक्षित है। चर्याकार सिद्धों के लिये साधना ही मुख्य वस्तु थी, वैसे वे दार्शनिक तत्व को भी आँखों से ओझल नहीं होने देते। सहजिया बौद्धधर्म की उत्पत्ति महायान से हुई, अतएव यह स्वाभाविक ही है कि महायान बौद्धधर्म की कुछ विशेषताएँ इसमें पाई जाती हैं।

सहजिया साधक का चरम लक्ष्य शून्य की प्राप्ति है; लेकिन वह शून्य क्या है? परमार्थ सत्य के बारे में नागार्जुन ने बतलाया है कि उसके संबंध में यह नहीं कहा जा सकता कि वह है। फिर यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह नहीं है। इसी तरह यह भी कहना सही नहीं कि वह है भी और नहीं भी है, तथा यह भी कहने का उपाय नहीं है कि है और नहीं भी है इन दोनों में कोई भी सत्य नहीं। इस प्रकार से चतुष्कोटि विनिर्मुक्त जो तत्व है उसी को शून्य कहा गया है। वैसे अन्य बौद्ध दार्शनिकों ने इसपर और तरह से भी विचार किया है। विज्ञानवादी विज्ञप्तिमात्रता (विशुद्ध ज्ञान) को ही शून्य तत्व कहते हैं। शून्य ही गगन, रव अथवा आकाश है।

कालक्रम से महायान के स्वरूप में परिवर्तन हुए। प्राचीन अर्हतगण निर्वाण की प्राप्ति का चरम लक्ष्य मानते थे, लेकिन महायानियों ने बोधिसत्व के आदर्श को उच्च माना। महायानियों के अनुसार दु:ख से जर्जरित इस संसार के प्राणियों के लिये देह धारण कर करुणा का अवलंबन करना निर्वाण से श्रेयस्कर है। महायानी मानते हैं कि करुणा का आधार अद्वयबोध है। समस्त प्राणियों के साथ अपने को संपूर्ण रूप से एक समझना अद्वयबोध है। इस करुणा को महायानियों ने अपनी साधना, अपनी विचारधारा का मूलमंत्र स्वीकार किया। उनका कहना है कि अद्वय की स्थिति ही साधकों की काम्य है। इसमें सभी संकल्प विकल्प विलुप्त हो जाते हैं। इस स्थिति में ज्ञातृत्व ज्ञेयत्व तथा ग्राकत्व ग्राह्मत्व का ज्ञान नहीं रह जाता। तांत्रिक बौद्धों ने निर्वाण का परम सुख कहा। उनके अनुसार 'महासुख' ही निर्वाण है। वे मानते थे कि विशेष साधनापद्धति द्वारा चित्त को महासुख में निमज्जित कर देना ही साधक का चरम लक्ष्य है। महासुख में निमिज्जित चित्त की स्थिति ही बोधिचित्त की प्राप्ति है। चित्त की यह वह स्थिति है जिसतें चित्त बोधिलाभ के उपयुक्त होकर तथा उसे प्राप्त कर सभी प्राणियों की मंगलसाधना में लग जाता है।

साधना की दृष्टि से अद्वय बोधिचित्त की दो धाराएँ हैं: प्रज्ञा और उपाय। शून्यताज्ञान को तांत्रिक बौद्ध साधकों ने 'प्रज्ञा' कहा है। यह निवृत्तिमूलक है और इसमें साधक का चित्त संसार का कल्याण करने की ओर अनुप्रेरित न होकर अपनी ही ओर लगा रहता है। करुणा को उन्होंने उपाय कहा है। यह प्रवृत्तिमूलक है और विश्वमंगल की साधना में नियोजित रहता है। इन दोनों के मिलन का 'प्रज्ञोपाय' कहा गया है। इन दोनों के मिलन से ही बोधिचित्त की प्राप्ति होती है। इन दोनों के मिलन की निम्नगा धारा ही सुख दु:ख वाली त्रिगुणात्मिका सृष्टि है और उसकी ऊर्ध्वधारा का अनुसरण कर चलने में महासुख की प्राप्ति होती है। इसे 'सामरस्य' कहा गया है। शून्यता और करुणा परस्पर विरोधी धर्मवाली हैं, और स्वाभाविक रूप से निम्नगा हैं। इन दोनों का मध्यमार्ग में एक होकर प्रवाहित हाना ही 'समरस' हैं। जब ये ऊर्ध्वगामिनी होती हैं, 'समरस' की विशुद्धि होती है और इनकी ऊर्ध्वतम अवस्थिति ही विशुद्ध सामरस्य हैं। इस सामरस्य का पूर्णतम रूप ही सहजानंद है। यही अद्वयबोधिचित्त है। इसी को प्राप्त करने की साधना सहजिया बौद्धधर्म का चरम लक्ष्य है।

इस आनंद को माध्यमिकों ने तत्व माना है लेकिन बौद्ध सहजिया साधकों ने इसे रूप तथा नाम प्रदान किया है और इसका वासस्थान भी बतलाया है। उन्होंने इसे नैरात्मा देवी तथा परिशुद्धावधूतिका कहा है। इसे शून्यता की सहचारिणी कहा गया है। साधक जब पार्थिव माया मोह से शून्य हो जाता है और धर्मकाय (तथता अर्थात्‌ शून्यता) में लीन हो जाता है, वह मानो नैरात्मा का आलिंगन किए हुए महाशून्य में गोता लगाता है। नैरात्मा इंद्रियग्राह्य नही, इसीलिये एक पद में उसे अस्पृश्य डोंबी कहा गया है और कहा गया है कि नगर के बाहर अर्थात्‌ देहसुमेरु के शिखरप्रदेश अर्थात्‌ उष्णीषकमल में उसका वासस्थान है:

नगर बाहिरि रे डोंबि तोहारि कुड़िआ।
छोइ छोइ जाइ सो बाह्य नाड़िआ।।

यहाँ इस बात की ओर ध्यान दिला देना आवश्यक है कि हिंदू तंत्र की तरह बौद्धतंत्र में भी शरीर के भीतर ही साधक उस अशरीरी को पाने की साधना करते हैं। इड़ा, पिंगला, और सुषुम्ना को बौद्धतंत्र में क्रमश: ललना, रसना और अवधूती या अवधूतिका कहा गया है। अवधूतो ही मध्य मार्ग हैं जिससे होकर अद्वयबोधिचित्त या सहाजनंद की प्राप्ति होती है। मूलाधार बौद्धतंत्र का वज्रागार है और सहस्त्रार के जैसा ६४ दलों का उष्णीष कमल है, जिसमें आनंद का आस्वादन होता है।

चर्यापदों में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के लिये और भी नाम प्रयुक्त हुए हैं, जैसे इड़ा के लिये प्रज्ञा, ललना, वामगा, शून्यता, विंदु, निवृत्ति, ग्राहक, वज्र, कुलिश, आलि (अकारादि स्वरवर्ण), गंगा, चंद्र, रात्रि, प्रण, चमन, ए, भव आदि; पिंगला के लिये उपाय, रसना, दक्षिणगा करुणा, नाद, प्रवृत्ति, ग्राह्य, पद्म, कमल, कालि (काकारादि व्यंजनवर्ण), यमुना, सूर्य दिवा, अपान, धमन, वं, निर्वाण, आदि। चर्यापद के अध्ययन के लिये इनकी जानकारी आवश्यक है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ