चश्मा

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लेख सूचना
चश्मा
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 155
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक रामप्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक सुरेश चंद गौड़

चश्मा (Spectacles) दृष्टि संबंधी दोषों का परिहार करने अथवा तीव्र एवं अरुचिकर प्रकाश से नेत्रों की रक्षा करने के लिये प्रयुक्त लेंसों को चश्मे के फ्रेम में धारण करने का प्रयोग बहुत प्राचीन काल से ही संसार के प्राय: सभी सभ्य देशों में चला आ रहा है। मुद्रण कला का विकास हाने पर जब अत्यंत छोटे एवं सघन अक्षरों में छपी पुस्तकों का बाहुल्य हुआ, तो उन्हें पढ़ने के लिये चश्मे की आवश्यकता का विशेष अनुभव होने लगा। फलस्वरूप १७वीं शताब्दी में चश्मानिर्माण उद्योग बड़ी तेजी से बढ़ा और आज तो संसार के विभिन्न देशों में 35 से लेकर 50 प्रतिशत तक लोग किसी न किसी प्रकार के चश्मे का प्रयोग करते हैं।

दृष्टिदोषों के परिहार के लिये प्रयुक्त चश्मों में प्राय: तीन प्रकार के लेंस प्रयुक्त होते हैं। ये दृष्टिदोष की प्रकृति पर निर्भर करते हैं। सामान्यतया चार प्रकार के दोष आँखों में ऐसे पाए जाते हैं जिनसे चश्मों की सहायता से त्राण हो सकता है :

  1. दूरदृष्टि या हाइपरमेट्रोपिया (Long sight or hypermetropia) - इस दोष से पीड़ित नेत्र दूर की वस्तुएँ स्पष्ट देख लेते हैं, किंतु निकटवर्ती वस्तुएँ स्पष्ट नहीं दिखलाई पड़तीं, क्योंकि नेत्रों के लेंस की वर्तन शक्ति (refractive power) कम हो जाती है और वह आपाती किरणों को दृष्टिपटल (retina) से दूर अभिसृत (converge) करती है। अत: इस दोष का परिहार करने के लिये एक उत्तल या अभिसारी लेंस (convex or converging lens) युक्त चश्मा धारण कराया जाता है, जो किरणों को झुकाकर दृष्टि पटल पर ही अभिसृत करता है।
  2. निकटदृष्टि (Short sight) या मायोपिया (Myopia) - यह दोष दूरदृष्टि का ठीक उलटा है, अर्थात्‌ इसमें निकट की वस्तुएँ अधिक स्पष्ट दिखलाई पड़ती हैं और दूर की वस्तुएँ साफ साफ नहीं दिखलाई पड़तीं। इसका कारण यह है कि नेत्र के लेंस आपाती किरणां को दृष्टिपटल के पहले ही अभिसृत कर देते हैं। इस दोष का निवारण करने के लिये व्यक्ति को अवतल या अपसारी (concave or diverging) लेंस युक्त चश्मा धारण कराया जाता है। इससे किरणें दृष्टिपटल पर ही अभिसृत होती हैं, क्योंकि ऐसे चश्मे के संयोग से नेत्र के लेंस की वर्तनशक्ति घट जाती है।
  3. जरा-दूर दृष्टि या प्रेस्बायोपिया (Presbyopia) - इस दोष से पीड़ित नेत्रों की संधान क्षमता या स्वत: समायोजन (accommodation) का ह्रास हो जाता है। अत: व्यक्ति को दूर तथा निकट, दोनों स्थितियों की वस्तुओं को देखने में कठिनाई होती है। इसका परिहार करने के लिये ऐसे चश्मों का प्रयोग किया जाता है जिसके आधे भाग में दूर की तथा आधे में निकट की वस्तुओं को देखने के लिये उपयुक्त शक्तियुक्त लेंस लगे होते हैं। यह रोग सामान्यतया ४०-४५ वर्ष की आयु के बाद उत्पन्न होता है, जब कि शरीर की अन्यान्य मांसपेशियों की भांति आँखों की मांसपेशियाँ भी निर्बल होने लगती हैं। ऐसे चश्मों में गोलीय लेंस (spherical lenses) लगाए जाते हैं।
  4. दृष्टिवैषम्य या अबिंदुकता (Astigmatism) - इस विकार से ग्रस्त नेत्र की वर्तक शक्ति भिन्न भिन्न दिशाओं में भिन्न होती है और साधारणतया किसी एक दिशा में यह अधिकतम तथा उसकी लंबवत्‌ दिशा में न्यूनतम होती है। परिणामस्वरूप किसी वस्तु से आनेवाली सभी किरणें एक ही स्थान पर अभिसृत नहीं हो पाती और वस्तु धुँधली एवं अस्पष्ट (blurred) दिखलाई पड़ती है। इस दोष के निवारणार्थ ऐसे बेलनाकार (cylindrical) लेंसों का प्रयोग किया जाता है जिनकी शक्ति (power) एक दिशा में अधिकतम और उसकी लंबवत्‌ दिशा में न्यूनतम होती हैं। इन्हें चश्मे के अंदर सही अक्ष पर बैठाया जाता है।

दृष्टिदोष के निवारण के अतिरिक्त आपाती प्रकाश के अवांछनीय अंश को नेत्रों तक पहूँचने से रोकना भी चश्मे का एक मुख्य कार्य है। रंगीन शीशों के बने हुए लेंसों से युक्त चश्मे धूप या तीव्र प्रकाश के कुप्रभावों से नत्रों की रक्षा करते हैं। सूर्य की किरणों से आनेवाली पराबैंगनी (ultraviolet) किरणों से नेत्रों की रक्षा करने के लिये वायुयानों के पाइलट विशेष चश्मों का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार तेज आँच के सामने कार्य करनेवाले संधायक (welders), धातुशोधक (metal processors) तथा भट्ठियों के कारीगर (furnace workers) आदि ऐसे लेंसों के चश्मों का व्यवहार करते हैं जो अवरक्त (infra-red) प्रकाश के लिये अपारदर्शी होते हैं। इनके अतिरिक्त अनेक विभिन्न प्रयोजनों के लिय भिन्न भिन्न प्रकार के चश्मों का प्रयोग किया जाता है।

ऊपर अबिंदुकता (astigmatism) दोष के निवारणार्थ प्रयुक्त होनेवाले द्वि-फोकसी (bifocal) लेंस का उल्लेख किया जा चुका है। इनमें एक ही फ्रेम के अंदर दो भिन्न भिन्न संगमांतरवाले लेंस लगे होते हैं। इसी प्रकार ऐसे भी चश्मे बनाए जाते हैं जिनके अंदर तीन भिन्न भिन्न संगमांतर (focal length) वाले लेंस एक साथ लगे होते हैं। इनमें से एक लेंस दूर देखने के लिये, दूसरा मध्यवर्ती दृष्टि के लिये तथा तीसरा निकट की वस्तुओं को देखने के लिये होता है। इन्हें त्रिफकसी (trifocal) लेंस कहते हैं।

लेंस की शक्ति (power) - चश्मे में प्रयुक्त होनेवाले लेंस की शक्ति को डायोप्टर (dioptre) कहते हैं। लेंस की फोकस दूरी का 100 में भाग देने पर उस लेंस की शक्ति डायोप्टरों में ज्ञात होती है। लेंस का प्रकार व्यक्त करने के लिय शक्ति की संख्या के पहले + या - चिह्न लिखा जाता है। + चिह्न उत्तर लेंस तथा - चिह्न अवतल लेंस का द्योतक है। उदाहरणार्थ + 5D से अभिप्राय है 5 डायोप्टर शक्तिवाला (अर्थात्‌ 20 सेंमी. संगमांतरवाला) उत्ताल लेंस।


टीका टिप्पणी और संदर्भ