जंतुओं का विस्तार

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जंतुओं का विस्तार
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 338
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक सत्यानारायण प्रसाद

जंतुओं का विस्तार

संसार में चारों ओर भ्रमण करके जिस किसी ने जंतुजीवन का अध्ययन किया है, वह जानता है कि संसार में जंतुओं का वितरण सर्वत्र एक जैसा नहीं है, यद्यपि संसार के हर कोने में प्राणी मिलते हैं। संसार के हर भाग के जंतु उसके अपने होते हैं, अर्थात्‌ आस्ट्रेलिया में पाए जानेवाले जंतु भारत में नहीं पाए जाते और भारत में पाए जानेवाले जंतु यूरोप में नहीं मिलते। हसका कदाचित्‌ एक कारण यह है कि जानवरों में अनुकूलन शक्ति कम होती है। इसलिये एक भाग की जलवायु में पनपनेवाले प्राणी दूसरे भाग की जलवायु में पनप नहीं पाते। कभी कभी ऐस भी होता है कि किसी विशेष जाति के जानवर के लिये उपयुक्त वातावरण कहीं पर हो, पर वह वहाँ विशेष रुकावटों के कारण पहुँच न सके। कुछ ऐसे भी जानवर हैं जो अपने आदि निवासस्थान को छोड़कर दूसरे देशों को चले गए और वहाँ भली-भाँति पनपे, जैसे खरगोश आस्ट्रेलिया में, नेवला जामेका में और अंग्रेजी स्पैरो अमरीका में।

जंतुओं के वितरण के अध्ययन को जंतु-विस्तार-विज्ञान कहते हैं। यह जंतुशास्त्र की एक विशेष शाखा है। जंतुविस्तार का अध्ययन कई ढंगों से होता है। पहले जानवरों के विस्तार का अध्ययन पृथ्वी की सतह पर किया जाता है, जिसे भौगोलिक विस्तार या क्षैतिज विस्तार कहते हैं। इसके पश्चात्‌ जानवरों के विस्तार का अध्ययन पहाड़ की चोटी से लेकर समुद्र की गहराई तक करते हैं। इसे ऊर्ध्वाधर या शीर्षलंब संबंधी (altitudinal) विस्तार, अथवा उदग्र (bathymetric) विस्तार कहते हैं। इन दोनों विस्तारों को अवकाश में विस्तार कहते हैं। इसके अतिरिक्त जानवरों के काल (समय) में विस्तार का अध्ययन भी किया जाता है, जिसे भूवैज्ञानिक बिस्तार कहते हैं। इसका अध्ययन भूविज्ञान की सहायता से होता है। प्रत्येक प्राणी का अध्ययन तीनों पक्षों के अंतर्गत हो सकता है, परंतु जंतुविस्तार का पूरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए तीनों पक्षों का अलग अलग अध्ययन करना आवश्यक है।

विस्तार के कारक - संख्या में कितनी ही कम क्यों न हो, पर प्रत्येक जाति का अपना एक क्षेत्र होता है। लंबे समय तक लगातार प्रजनन होते रहने के कारण इनकी संख्या इतनी बढ़ जाती है कि प्रस्तुत क्षेत्र इनके लिय कम हो जाता है; इसलिए क्षेत्र के बढ़ाव के लिए जाति का विस्तार होता है। संख्या में वृद्धि के कारण खाद्य सामग्री में भी कमी हो जाती है। यह भी विस्तार का प्रेरक है। जाति का विस्तार स्थानांतरण से होता है। प्राय: जाति प्राकृतिक रुकावटों को भी पार करके अपना क्षेत्र बढ़ाती है। इस तरह स्पष्ट है कि विस्तार के दो मुख्य कारण हैं : (१) जीवसंख्या की वृद्धि (population pressure) और (२) बदलता हुआ वातावरण। जीवसंख्या में वृद्धि का दबाव तीव्र गति से प्रजनन का कारण होता है। इसी कारण भोजन की कमी हो जाती है और आपस में स्पर्धा बढ़ जाती है। एक ही जाति के सदस्यों के बीच स्पर्धा के साथ साथ अन्य संबंधी जाति से भी प्रतिद्वंद्विता प्रारंभ हो जाती है। इससे वह जाति अपनी सुरक्षा के लिए नए स्थान को चल पड़ती है।

प्रत्येक स्थान का जलवायु परिवर्तनशील होता है, जो सदा धीरे-धीरे बदलता रहता है। ऐसी अवस्था में यह स्वाभाविक है कि लंबी अवधि तक लगातार परिवर्तन होते रहने के पश्चात्‌, किसी विशेष स्थान का वातावरण उस जाति के रहने योग्य नहीं रह जाता। अब उस जाति के लिए दो ही रास्ते रह जाते हैं, एक है स्थानांतरण और दूसरा विलोप। यदि प्राकृतिक रुकावटों को पार करके बाहर निकलने के साधन प्राप्त हुए, तो वह जाति उस स्थान का छोड़कर नए स्थान पर चली जाती है और यदि ये साधन न हुए और उपयुक्त रास्ते न मिले, तो वह जाति विलुप्त हो जाती है। हाथी और घोड़ों के जीवाश्मों (fossils) के अध्ययन से पता चलता है कि जब भी अवसर मिला, ये एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते रहे हैं और इसी कारण इनकी जाति विलुप्त होने से बच गई।

विस्तार के साधन - जंतुओं का प्र्व्राजन कई मागों से होता है। ये मार्ग वातावरण की परिस्थितियों तथा प्राकृतिक रुकावटों पर निर्भर करते हैं। रुकावटें होने पर भी ऐसे अनेक अन्य साधन रहते हैं, जिनके द्वारा जंतु प्र्व्राजन करते हैं, जैसे वायु, जल, पृथ्वी के पुल, प्राकृतिक बेड़े और तैरती हुई लकड़ियाँ आदि।

वायु द्वारा प्र्व्राजन - कुछ जानवर अपना क्षेत्र अपनी उड़ान शक्ति की सहायता से बढ़ाते हैं। पक्षी, चमगादड़, तितली तथा उसके संबंधी कीड़े मकोड़े ऐसे प्राणियों के अच्छे उदाहरण हैं। हवा के झोंके और प्रचंड वायु भी जानवरों के विस्तार में सहायता देते हैं। हवा के बहाव की सहायता से पतंगे तथा उनके अन्य संबंधी कीड़े लगातार लंबी उड़ानें भर सकते हैं। एक उल्लेख के अनुसार प्लाइओन (Pleione) नामक एक जहाज को केप वर्ड (Cape Verde) टापुओं से ९६० मील दक्षिण-पश्चिम की ओर कुछ फतिंगे मिले थे। ये पूर्वी अयनवृत्तीय देशों के रहनेवाले थे, जिन्हें हवा अपने साथ वहाँ तक उड़ा ले गई थी, मधुमक्खी तथा अन्य कीटों का समागम उड़ान भी इनके विस्तार में सहायता देती है।

पक्षियों का प्र्व्राजन वितरण का आश्चर्य में डालनेवाला उदाहरण है। कई सौ से लेकर हजार मील से अधिक तक बड़ी तेजी के साथ उड़ सकते हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि जंगली हंस ६० से लेकर ७५ मील प्रति घंटे तक की गति से उड़ता है और अवाबील (Swallow) ९० मील प्रति घंटे की गति से। इसी गति से यह लगातार १० से १२ घंटे तक उड़ सकती है। पृथ्वी पर रहनेवाली चिड़ियाँ पृथ्वी से दूर ऐटलांटिक महासागर के बीच में पाई गई हैं। इनका प्राय: पूर्वी तथा पश्चिमी प्रचंड हवाएँ अपने साथ उड़ा ले जाती हैं। चमगादड़ सारे संसार में मिलते हैं, समुद्र में स्थित टापुओं में भी। इससे सिद्ध है कि हवा की लहरें जानवरों के विस्तार में सहायता करती हैं।

जल से प्र्व्राजन - कुछ जानवरों का प्र्व्राजन जल द्वारा होता है। वे या तो स्वयं तैरकर जाते हैं अथवा जल उन्हें बहाकर ले जाता है। कुछ ऐसे हैं, जो पानी पर तैरते हुए कूड़े करकट पर बैठकर चले जाते हैं। पानी पर तैरते हुए लट्ठों, अथवा अन्य वस्तुआं पर बैठकर बहुत से जानवर जलमार्ग पार करते हैं। अनेक ध्रुवप्रदेशीय जानवर बर्फ के टुकड़ों पर बैठकर लंबी यात्राएँ कर डालते हैं। कुछ जानवर इस तरह २४० मील तक लंबी यात्राएँ कर डालते हैं। कुछ जानवर इस तरह २४० मील तक लंबी यात्रा करते पाए गए हैं। ध्रुवप्रदेशीय भालू अपने भोजन की तलाश में इसी तरह बहते हैं।

प्राकृतिक पुलों द्वारा विस्तार - पृथ्वी पर जानवरों का विस्तार किसी विशेष जाति की गति से भी होता है। जानवरों के समूह के समूह एक स्थान को जाते रहते हैं। इस प्रकार के प्र्व्राजन की प्रवृत्ति अनेक जाति के जानवरों में पाई जाती है। प्राय: बड़े बड़े महाद्वीपों के बीच पृथ्वी के प्राकृतिक पुल पाए जाते हैं, जिन पर से जानवर आसानी से आ जा सकते हैं। स्वेज़ और पनामा के प्राकृतिक पुल इसके उदाहरण हैं। पनामा का पुल विशेष रूप से रोचक है, इसलिए कि उसकी उत्पत्ति का इतिहास भी हमें भली-भाँति मालूम है।

उत्तर अमरीका और यूरेशिया के जानवरों में भी इसी तरह का संबंध है। पहले ये दोनों महाप्रदेश एक दूसरे से प्राकृतिक पुल द्वारा जुड़े थे। यह प्राकृतिक पुल उस स्थान पर था जहाँ इस समय बेरिंग स्ट्रेट जलसंधि (Bering Strait) है। इसका अलास्का का पुल कहा जाता है।

प्र्व्राजन (Migration) - जानवरों के एक स्थान से दूसरे स्थान तक के आवागमन को प्र्व्राजन कहते हैं। वास्तव में प्र्व्राजन उस आवागमन को कहते हैं, जो बदलते हुए मौसमों द्वारा प्रेरित होते हैं। जिस प्रकार ऋतुएँ आती जाती हैं और सूर्य की अयनगति होती रहती है, वैसे ही जानवरों के प्र्व्राजन भी हुआ करते हैं। अनेक जानवर, जिनमें चलने फिरने की विशेष क्षमता होती है, सूर्य के साथ चलते हैं। जब सूर्य उत्तर की ओर जाता है तब ये उत्तर की ओर जाते हैं और जब दक्षिण की ओर जाता है, तब ये भी दक्षिण की ओर जाते हैं।

प्र्व्राजन के दो मुख्य रूप हैं, यद्यपि इन दोनों में विशेष अंतर नहीं है। घास खानेवाले लगभग सभी जानवर समूहों में रहते हैं। इनको अधिक मात्रा में भोजन की आवश्यकता होती है। शीघ्र ही ये किसी स्थान की खाद्य सामग्री खा डालते हैं और दूसरे स्थान को चल पड़ते हैं। इन जानवरों को भ्रमणशील कहते हैं। ये नित्य ही भोजन के अतिरिक्त पानी और हिंसक जानवरों से सुरक्षा की खोज में घूमते रहते हैं।

कुछ जानवर ऋतुपरिवर्तन के साथ-साथ अत्यधिक दूर-दूर तक चले जाते हैं। कुछ पहाड़ की चोटियों पर चढ़ जाते हैं अथवा उनपर से उतर आते हैं। इसको लंबरूप (vertical) प्र्व्राजन कहते हैं। पहाड़ की चोटी से नीचे तक ताप, आर्द्रता आदि के स्तर में अधिक अंतर होता है। इसलिए जैसे ही कोई पहाड़ पर चढ़ता है, वह अनुभव करता है कि कई प्रकार की जलवायु से गुजरा है। कुछ जानवर हैं, जो केवल पृथ्वी की सतह पर प्र्व्राजन करते हैं। इस प्रकार के प्र्व्राजन को क्षैतिज प्र्व्राजन कहते हैं। उत्तरी कैनेडा का कैरीबू (caribou) गर्मियों में उत्तर की ओर और हेमंत में दक्षिण की ओर चलता है।

घास खानेवाले जंगली जानवरों के प्र्व्राजन के उदाहरण पालतू जानवरों के आवागमन से भिन्न होते हैं। पालतू जानवर चरवाहे के संकेतों पर चलते हैं, परंतु जंगली जानवर अंत: प्रेरणा के बल पर। ऐसा अनुमान है कि उत्तरी अमरीका का गवल (bison) अनेक अक्षांशों से प्र्व्राजन कर चुका है। बड़ी बड़ी दूरीवाले प्र्व्राजन भी स्थानीय आवागमन के विस्तृत रूप माने जाते हैं, क्योंकि इनका मुख्य कारण भी भोजन की खोज ही है।

प्र्व्राजन का दूसरा कारण संतान की सुरक्षा की प्रवृत्ति है। अनेक निम्नस्तर के प्राणी जन्म के समय माता-पिता के रूप से भिन्न होते हैं और भोजन भी भिन्न प्रकार का करते हैं। इसलिए माँ प्राय: ऐसे स्थान में अंडे देती है, जहाँ भविष्य में बच्चों के काम आनेवाली सभी चीजें सुलभ तथा पर्याप्त हों। ऐसा करने के लिए उन्हें अंडा देने के लिए प्राय: दूर दूर तक जाना पड़ता है। ऐसे प्र्व्राजन का उदाहरण चिड़ियों में मिलता है। कुछ जंतु अपनी अंत:प्रेरणा के बल पर अपना जन्मस्थान पहचान लेते हैं और अपने बच्चों के लालन-पालन के लिए भी वे अपने जन्मस्थान पर वापस आ जाते हैं। मातृत्वभार से निवृत्त होकर वे पुन: वहाँ चले जाते हैं, जहाँ से आए थे। वहाँ आने पर या तो उनकी मृत्यु हो जाती है या वे दूसरी ऋतु में पुन: अंडे देने के लिए अपनी जन्मभूमि में पहुँच जाते हैं।

प्र्व्राजन के ये दोनों रूप समयानुकूल आवागमन के यथार्थ उदाहरण हैं। चाहे प्राणी प्रभावित हो (जैसे पक्षियों में), चाहे एक पीढ़ी (जैसे मछलियों में), ये प्र्व्राजन उसी तरह स्वत: (automatic) होते हैं जैसे पृथ्वी की गति (जो कदाचित्‌ इस प्र्व्राजन का उत्तेजक है)।

पक्षियों का प्र्व्राजन - यह ऋतुओं की प्रेरणा के कारण होता है। समयानुकूलता तथा गमनस्थानपर पुनरागमन इसकी विशेषता है। कुछ चिड़ियों में अनियमित प्र्व्राजन भी मिलता है। इसमें चिड़ियाँ उस स्थान को वापस नहीं हातीं जहाँ से चलती हैं। कुछ प्र्व्राजन करनेवाली चिड़ियाँ सहस्रों मील निल जाती हैं। उदाहरणार्थ कोयल को लीजिए। यह फीजो से न्यूजीलैंड तक जाती है और वापस आती है। यह दोनों स्थान १,५०० मील की दूरी पर हैं। एशिया का सुनहला प्लवर २,००० मील की दूरी तय करके अलास्का से हवाई तक जाता है, रास्ते में आराम तक नहीं करता। प्र्व्राजन क्यों होता हे, इसका मुख्य कारण नहीं मालूम, परंतु कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ मालूम हैं, जिनकी प्ररेणा से प्र्व्राजन होता है। इनमें प्रमुख है, पक्षियों की अतिविकसित अंत:प्रेरणा और नए क्षेत्र में भोजन सामग्री की सुलभता।

वितरण बाधाएँ - कुछ जानवर प्राय: एक ही क्षेत्र में सीमित रह जाते हैं। क्षेत्र की भौतिक अवस्था तथा वातावरण के अतिरिक्त जानवरों का आवागमन प्राकृतिक बाधाओं पर भी निर्भर है। ये बाधाएँ भिन्न भिन्न प्रकार की होती हैं : (१) जलवायु संबंधी, (२) भौगोलिक तथा (३) जीवविज्ञान संबंधी।

जलवायु संबंधी बाधाएँ - इनमें ताप, आर्द्रता तथा प्रकाश उल्लेखनीय हैं। गरमी जानवरों के विस्तार का महत्वपूर्ण कारण है। ताप असमतापी प्राणियों के विस्तार पर अधिक प्रभाव डालता है। असमतापी प्राणियों का ताप वातावरण के ताप के साथ घटता बढ़ता रहता है। इसलिए ये न अधिक गरमी सह सकते हैं और न अधिक सर्दी। उभयचर तथा उरग उष्ण तथा शीतोष्ण भागों में पाए जाते हैं और ध्रुव प्रदेशों की ओर ये कम होते जाते हैं। घड़ियाल उष्ण तथा शीतोष्ण देशों में पाए जाते हैं, कछुए ५०° उत्तर अक्षांश तक पाए जाते हैं। छिपकली ६०° अक्षांश के बाद नहीं मिलती। साँपों का क्षेत्र बड़ा है, फिर भी सीमित। यही कारण है कि शीतप्रदेशों में केवल पक्षी और स्तनधारी प्राणी ही पाए जाते हैं।

स्तनधारी प्राणियों में भी कुछ ऐसे हैं, जो ताप के अनुसार पाए जाते हैं। शेर भारत तथा मलाया जैसे उष्ण प्रदेशों का रहनेवाला हैं, परंतु यह कॉकेशस (Caucasus) तथा ऐलटाई (Altai) पहाड़ों की चोटियों और मंचूरिया के ठंडे भागों में भी मिलता है। हाथी भी ठंडक सह सकता है, यदि उसे अधिक मात्रा में जल मिल जाए। भारतीय हाथी ठंडे पहाड़ की चोटियों में वैसे ही आराम के साथ रहता है, जैसे नीचे मैदानों में।

आर्द्रता से बाधा - रेगिस्तान में रहनेवाले जानवरों का अध्ययन बतलाता है कि आर्द्रता का प्रभाव भी जानवरों के विस्तार पर पड़ता है, यद्यपि इनमें भी कुछ जानवर ऐसे मिलते हैं जो अत्यधिक शुष्कता सह सकते हैं। अधिकतर बड़े बड़े रेगिस्तान जानवरों के विस्तार में बाधक बन जाते हैं। सहारा इनमें उल्लेखनीय है। हिरण जैसे तीव्रगामी प्राणी भी पानी की कमी ताप के कारण इनको पार नहीं कर पाते। इसीलिए अफ्रीका जैसे विशाल देश में हिरण नहीं पाए जाते। वे केवल उत्तर में ही मिलते हैं। अन्य देशों में, जहाँ अफ्रीका जैसी जलवायु है, ये बहुत मिलते हैं। अरब का रेगिस्तान भी इसी तरह जानवरों के विस्तार में बाधक बन जाता है। आर्द्रता की वृद्धि भी कुछ विशेष जानवरों के विस्तार में बाधा डालती है। स्पष्ट है कि आर्द्रता की अधिकता से दलदली वातावरण उत्पन्न हो जाता है, जिसे अनेक जानवर विजित नहीं कर पाते।

भौगोलिक बाधाएँ - भौगोलिक बाधाओं के अंतर्गत समुद्रों, नदियों, पहाड़ों तथा रेगिस्तानों की गणना होती है। भारत के उत्तर में हिमालय की विशाल पर्वतमाला है। हर प्रकार के जानवर इसे पार नहीं कर पाते। इसकी हिमाच्छादित चोटियों के ऊपर स चिड़ियाँ तक नहीं उड़ पातीं। इसी कारण इसके उत्तर में पाए जानेवाले प्राणी दक्षिण में पाए जानेवाले प्राणियों से बिल्कुल भिन्न हैं। भूमध्यरेखा के समांतर पर्वतमालाओं का प्रभाव जंतुओं के विस्तार पर, उत्तर-दक्षिण दिशा में स्थित पर्वतमालाओं से अधिक होता है। इस तरह हिमालय पर्वत संसार की सबसे महत्वपूर्ण बाधाओं में से एक है। पश्चिमी संयुक्त राज्य की पर्वतमालाएँ विस्तार पर प्रभाव डालती हैं। प्रशांत महासागर से आनेवाली हवाएँ ज्योंही इन पर्वतमालाओं से गुजरती हैं, अपनी नमी छोड़ती जाती हैं, और जैसा पहले बतलाया जा चुका है, केवल इस नमी का प्रभाव जंतुविस्तार पर पड़ता है। हिमालय की भाँति उत्तरी अमरीका का पठार भी ऐसी सीमा बनाता है, जिसके इधर उधर के जानवर एक दूसरे से भिन्न हैं।

पृथ्वी के बृहत्‌ जलीय भाग पृथ्वी पर रहनेवाले जानवरों को पृथक्‌ करते हैं। सतह पर बर्फ जमने पर कुछ जानवर उन्हें पार कर सकते हैं। उभयचर उरग और स्तनधारी जानवरों को समुद्रों अथवा अन्य जलीय भागों से काफी हानि पहुँचती है। पक्षी अथवा चमगादड़ उछकर इन जलाशयों को पार कर जाते हैं। मीठे जल में रहनेवाली मछलियों के लिय समुद्री (लवणीय) जल रुकावट बन जाता है। फिर भी कुछ मछलियाँ, सामन (salmon) और स्टर्जियन (sturgeon) हैं, जो साल में एक बार लवणीय जल से मीठे जल में आ जाती हैं। ईल में इसके विपरीत आवागमन होता है। आधुनिक उभयचरों के लिए लवणीय जल गंभीर बाधा खड़ी करता है, क्योंकि लवणीय जल इनके लिए विष का कार्य करता है। इसलिये फीजी, सॉलोमन तथा न्यूकैलेडोनिया आदि टापुओं को छोड़कर अन्य टापुओं तक यह नहीं पहुँचे हैं। दुमवाले उभयचर जैसे न्यूट (newt), सायरन (siren) और सलामैंडर (salamander) इत्यादि केवल पृथ्वी के उत्तरार्ध में पाए जाते हैं, क्योंकि दक्षिणी भाग के महाद्वीप समुद्रों स घिरे हैं। अफ्रीका ओर दक्षिणी भाग के महाद्वीप समुद्रों से घिरे हैं। अफ्रीका और दक्षिणी अमरीका इनमें ऐसे देश हैं, जो पृथ्वी के मुख्य भागों से जुड़े हैं। किंतु दुमवाले उभयचर इन देशें तक भी नहीं पहुँच पाए हैं, क्योंकि जिन रास्तों पर से ये जा सकते थे वे लंबे हैं और ये जानवर इतने सुस्त हैं कि इतनी दूर वे नहीं जा सकते। पृथ्वी को खेदकर रहनेवाले उभयचर, जिन्हें सिसिलियन कहते हैं, दक्षिणी अमरीका, अफ्रीका, उत्तरी भारत, सुमात्रा, जाव तथा बोर्नियो आदि में पाए जाते हैं। ये सब भूभाग पुराने दक्षिणी महाद्वीप के हिस्से हैं, जो अब अलग हो गए हैं। मेढक तथा उनके संबंधी (बिना दुमवाले उभयचर) का वितरण अधिक है, परंतु वे भी समुद्री टापुओं में नहीं पहुँच पाए हैं।

मगर तथा समुद्री कछुओं जैसे उरगों के लिए समुद्र बाधक नहीं है। यद्यपि इसका ताप इनके आवागमन को सीमित करता है। साँप कुशल तैरनेवाले जानवर हैं, पर वे भी पानी के बड़े विभागों को पार नहीं कर पाते। जल उन पक्षियों के वितरण में बाधक बनता है, जो उड़ नहीं सकते, जैसे शतुर्मुर्ग तथा न्यूज़ीलैंड निवसी चिड़िया कीवी आदि। स्तनधारी प्राणी भी बड़े बड़े जलाशयों को अधिक संख्या में पार नहीं कर पातेद्य ये जल में अधिक से अधिक ५० मील तक तैर सकते हैं। ह्वेल और सील आदि स्तनधारी प्राणी इसके अपवाद हैं, क्योंकि जलाशय इनके वितरण में कोई बाधा नहीं डालते। जैग्वार (Jaguar) जैसे कुशल तैराक दक्षिणी अमरीका की बड़ी से बड़ी नदियों को पार कर जाते हैं, परंतु वे समुद्र में अधिक दूर नहीं जा पाते। शेर, हाथी और हिरण आदि को जल अति प्रिय है, परंतु शायद वे भी पृथ्वी से दूर जाना पसंद नहीं करते। जंतुओं के वितरण संबंधी विशेषज्ञ हीलप्रिन का कहना है कि पृथ्वी पर रहनेवाले बहुत से स्तनधारी प्राणी, जो यूरोप के बड़े से बड़े जलाशयों को पार करने के लिए तत्पर रहते हैं, समुद्र के ५० मील लंबे भाग अथवा इसके आधे से अधिक भाग को ही पार करने के लिये आसानी से तैयार न होंगे।

जीवविज्ञानीय बाधाएँ - ये प्राय: निवासस्थान से संबंधित होती हैं। प्राय: यह देखा गया है कि किसी दूसरे स्थान से आए जानवर नए स्थान में बढ़ नहीं पाते। कभी वे खाद्य सामग्री की कमी से और कभी शत्रुओं की बहुतायत से मर जाते हैं। वनस्पति की घनी पैदावार कुछ जानवरों के वितरण का साधन बन जाती है, तो कुछ के लिए बाधा। वितरण पर वनस्पति का प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से पड़ता है। घने जंगलों के पेड़ों पर रहनेवाले जानवर अविरल जंगलों को पार नहीं कर पाते। इसी तरह कहीं कहीं जंगल इतने घने होते हैं कि पृथ्वी पर रहनेवाले बड़े-बड़े जानवर इन्हें पार नहीं कर पाते। मैस्टोडान (Mastodon) के साथ यही हुआ। यह उत्तरी अमरीका से दक्षिणी अमरीका तो आ गया, पर घने जंगलों के कारण मेक्सिको से दक्षिण की ओर नहीं जा सका।

इसी तरह वनस्पति की कमी भी जानवरों के वितरण पर प्रभाव डालती है। वानर-गण (प्राइमेटीज़ Primates) उष्ण प्रदेशों के घने जंगलों में रहते हैं और वृक्ष उनकी सुरक्षा, आवागमन तथा भोजन के लिए आवश्यक होते हैं। ये फल, फूल एव कलियाँ तथा वृक्षों पर रहनेवाले कीड़े और पक्षियों को खाते हैं। यदि उपयुक्त जंगल न मिलें तो इनका निर्वाह नहीं हो सकता। इसीलिए जंगलविहीन भागों में प्राइमेटीज़ नहीं पाए जाते। घने जंगलों के रहनेवाले पक्षी तथा कीड़े भी जंगलविहीन भागों में नहीं पाए जाते।

पृथ्वी को खोदकर रहनेवाले जानवरों के लिए मिट्टी बाधक बन जाती है। फैरीटाइमा नामक केचुआ विशेष प्रकार की मिट्टी में पाया जाता है और यूटाफियस दूसरे प्रकार की मिट्टी में। कुछ जानवर हैं, जो सूखी रेतीली जमीन में बिल बना सकते हैं, तो कुछ हैं जो नम और चिकनी मिट्टी में बिल बनाते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि मिट्टी की भौतिक, रासायनिक एवं जीवविज्ञानीय अवस्था भी जंतुवितरण में रुकावट बन जाती है। इस तरह की बाधा को भूमि संबंधी बाधा (edaphic barrier) कहते हैं।

चित्र १. संसार के भू-प्राणि-वितरण प्रदेश

भू प्राणिक्षेत्र (Zoogeographical regions) - पिछले ८० वर्षों में जानवरों की आबादी के आधार पर पृथ्वी कों कई भागों में बाँटने का कई बार प्रयास किया गया। लिंडकर ने पृथ्वी की सारी सतह को तीन प्रमुख क्षेत्रों में बाँटा था : (१) आर्कटोजीओ उत्तरी क्षेत्र, जिसमें आधुनिक निआर्कटिक (Nearctic), पैलिआर्कटिक (Palaearctic), ईथियोपियन और ओरियंटल क्षेत्र संमिलित हैं। (२) निओजिआ (Neogaea), जिसमें दक्षिणी अमरीका का नीओट्रापिकल क्षेत्र आता है और (३) नोटोजोआ (Notogaea), दक्षिणी क्षेत्र, जिसमें आस्ट्रेलिया का क्षेत्र आता है। इनमें से निओजीया शेष संसार से तृतीय (Tertiary) युग में और ऑस्ट्रेलियन क्षेत्र तृतीय युग के प्रारंभ में ही अलग हो गए थ। इसीलिए इन क्षेत्रों में रहनेवाले जंतु संसार के उत्तरी क्षेत्रों के जंतुओं से भिन्न हैं। आस्ट्रेलिया में तो अब भी वे पुराने स्तनधारी प्राणी पाए जाते हैं, जा मेसोज़ोइक (Mesozoic) युग में संसार में पाए जाते थे। संसार से पृथक्‌ होने के कारण आस्ट्रेलिया में उत्तरी क्षेत्र के जानवर आ नहीं पाए और मेसोज़ोइक युग के जानवर अब तक ज्यों-के-त्यों पाए जाते हैं।

भू-प्राणि-क्षेत्रों की आधुनिक स्थिति निम्नलिखित है :

आर्कटोजीआ (Arctogaea) निआर्कटिक होलार्कटिक

पैलिआर्कटिक

ईथियोपियन

ओरिएंटल

नीओजीआ (Neogeaea) नीओट्रापिकल

नोटोजीआ (Notogaea) आस्ट्रेंलियन

निआर्कटिक क्षेत्र

सीमा - इस क्षेत्र में ग्रीनलैंड और उत्तरी अमरीका का वह भाग आता है, जो मेक्सिको के दक्षिण में है।

विशेषता - इस प्रदेश में विस्तृत जंगलविहीन और खुले मैदान हैं। स्तनधारी प्राणियों से मिलते हैं। रैकून (raccoon), औपोसम (opossum), कूदनेवाली चुहियाँ, नन्हें गोफर (pocket gopher), स्कंक (skunk) और मस्करैट (muskrat) यहाँ के विशेष जानवर हैं। हरिण, अमरीकी एल्क (moose), बारहसिंघा, बाइसन (bison), बिल्लयाँ, लिंक्स (lynx), वीज़िल्स (weasels), भालू और भेड़िए आदि भी यहाँ मिलते हैं। खुरवाले जानवर बहुत कम हैं। न घोड़े मिलते हैं, न सुअर, केवल वे पालतू घोड़े आदि मिल जाते हैं, जिन्हें मानव अपने साथ ले गया है। पहले भैंस या बाइसन और एल्क सारे क्षेत्र में विस्तृत थे। एक छोटे से क्षेत्र में लंबी सींगवाला भेड़ और काँटेदार सींगवाला मृग (prong horn anteloc) भी मिलता है। पक्षी प्राणिसमूह में अर्की (turkey), नीलकंठ (blue jay), बुज़्ज़ार्ड (buzzards) प्रमुख हैं। ये दक्षिण नीओट्रॉपिकल क्षेत्र की ओर भी मिलते हैं। उरगों में रैटल सर्प (rattle snake) प्रमुख हैं।

पैलिआर्क्टिक क्षेत्र

सीमा - यूरोप और उसके पास के टापू तथा भारत को छोड़कर संपूर्ण एशिय और सहारा रेगिस्तान के उत्तर का अफ्रीका इस खेत्र के अंतर्गत आता है। इसके दक्षिण में ओरिएंटल क्षेत्र है। दोनों के बीच हिमालय पहाड़, सहारा तथा अरब के रेगिस्तान हैं। ये जंतुविस्तार में बड़ी बाधाएँ डालते हैं।

विशेषता - यह भूभाग बहुत कुछ समतल कहा जा सकता है। पहाड़ियाँ प्राय: अधिक ऊँची नहीं हैं। इसलिए विस्तारण में ये कोई बाधा नहीं डालतीं। पश्चिमी भाग में घने जंगल हैं। इसके दक्षिण का अधिकांश भाग रेगिस्तानी (सहारा, अरब और मंगोलिया का रेगिस्तान) है उत्तरी भाग में उथले स्टेप्स हैं।

प्राणिसमूह - यहाँ के चौपायों में भेड़ ओर बकरी प्रमुख हैं। मिस्त्र, सीरिया और सिनाई के पहाड़ी क्षेत्रों में इबेक्स (ibex) की एक जाति पाई जाती है। छछूंदर (mole) इस क्षेत्र में बराबर विस्तृत है। बैजर (badger), ऊँट, रो-डियर (roe-deer), कस्तूरी मृग, याक, शैमि (chamois), डॉरमाउस (dormouse), माइका (pika) तथा जल का छछूंदर (water mole) इस क्षेत्र में रहनेवाले विशेष स्तनधारी प्राणी हैं। पुरानी दुनियाँ के चूहे, चुहियाँ भी इस क्षेत्र में मिलती हैं। उनगों में वाइपर (viper) अधिक संख्या में मिलते हैं और अधिक विषैले भी होते हैं।

इथिओपियन क्षेत्र

सीमा - अफ्रीका, बड़े रेगिस्तान के दक्षिण का अरब और मैडागास्कर टापू इस क्षेत्र के भाग हैं।

विशेषता - इस क्षेत्र में दुनियाँ के बड़े से बड़े रेगिस्तान हैं और बड़े बड़े जंगल, जिनमें अटूट वर्षा होती है। उष्ण प्रदेश से समशीतोष्ण देशों तक और हिमाच्छादित पहाड़ों से बड़े बड़े मैदान तक इसमें शामिल हैं। उत्तर में रेगिस्तान की एक बड़ी पट्टी बन जाती है। उसके बाद घास से भरे मैदान हैं। इनमें से अधिकतर चार या पाँच हजार फुट ऊँचे पठार (plateau) हैं। इसी में बृहत्‌ उष्ण प्रदेशीय जंगल हैं।

प्राणिसमूह - इस विभाग में कई विचित्र जानवर मिलते हैं। खुरवाले जानवर तथा हिंसक जानवर विशेष रूप से विकसित हैं। कुछ खुरवाले जानवर, जैसे जिराफ और हिप्पोपॉटैमस केवल इसी क्षेत्र में पाए जाते हैं। जंगली सूअर और साधारण सूअर अवश्य मिलते हैं। इस क्षेत्र में दरियाई घोड़े दो सींगवाले होते हैं। मृग कई प्रकार के मिलते हैं, छोटे बड़े सभी। भेड़ बकरी आदि यहाँ नहीं मिलते। बकरी के संबंधियों में इबैक्स मिलता है। सहारा के दक्षिण में कस्तूरीमृग का एक संबंधी मिलता है, जिसको श्व्रैाोटैन (chevrotain) कहते हैं। जंगली साँड़ यहाँ नहीं मिलता। जेब्रा और अबीसीनिया के जंगली गदहे, बहुतायत से पाए जाते हैं। शिकारी जानवरों में प्रमुख हैं बब्बर शेर, चीते, तेंदुए, गीदड़ और तरक्षु (hyena)। बाघ (tiger), भेड़िया और लोमड़ी यहाँ नहीं मिलती। ऊदबिलाव (civets) अच्छी तरह विकसित हैं। भालू नहीं मिलते। बंदर जैसे जानवरों में गोरिल्ला, चिंपैंजी, बेबून और लीमर आदि इस क्षेत्र के प्रतिनिधि हैं।

इस क्षेत्र का पक्षिसमूह संख्या में और विशेषता में महत्वपूर्ण नहीं है। यहाँ के प्रमुख पक्षी हैं गिनी फाउल (guineafowl) और सेक्रेटरी बर्ड (secretary bird) तथा शेष साधारण हैं। तोते कम हैं, काकातुआ आदि नहीं मिलते। शिकारी चिड़ियाँ बहुत हैं। शुतुर्मुर्ग भी यहाँ मिलते हैं।

उरगसमूह विभिन्न प्रकार का तथा बहुतायत से मिलता है। वाइपर (viper) सर्प कई प्रकार के मिलते हैं और सबसे विषैला पफ़ ऐडर (puff adder) भी यहाँ मिलता है। अजगर की जाति के भी कई जानवर हैं। छिपकलियों में अगामा और गिरगिट मिलते हैं। घड़ियाल लगभग सभी नदियों में मिलते हैं। मछलियाँ कई भाँति की हैं, परंतु प्रोटोप्टेरस (protopterous) नामक मछली यहाँ की विशेषता है। यह और कहीं नहीं पाई जाती।

ईथिओपियन क्षेत्र का प्राणिसमूह आरंभ से अंत तक एक ही प्रकार का है। परंतु मैडागास्कर टापू का जीवसमूह महाद्वीप के जीवसमूह से भिन्न है। इस द्वीप और अफ्रीका के बीच एक चौड़ी मुजंबीक (Mozambique) जलांतराल है, परंतु बीच के कोमौरो द्वीप (Comoroisland) और कुछ जलमग्न किनारे यह सिद्ध करते हैं कि मैडागास्कर दक्षिणी अफ्रीका का ही भाग है। मैडागास्कर में अफ्रीका जैसी सच्ची बिल्लियाँ नहीं हैं, परंतु ऊदबिलाव मिलता है। बंदर की जातिवाले जानवरों में यहाँ केवल लीमर मिलते हैं। ये अफ्रीका और दक्षिण-पूर्वी एशिया में भी पाए जाते हैं। अन्य विचित्र जानवरों में प्रमुख है ऐ-ऐ (aye-aye)। यह बिल्ली की भाँति का मांसाहारी जानवर है, जिसे क्रिप्टोप्रोक्टा फीरौक्स (Crytoprocta Ferox) कहते हैं। यहाँ जल में रहनेवाला सूअर तथा हिप्पोपोटैमस की एक अविकसित जाति भी मिलती है। साथ ही यहाँ का हेज हाग (hedge hog) एक विशेषता है। पक्षी अधिकतर एशिया के सदृश हैं। उरग प्राणिसमूह में कुछ अमरीकी ढंग के भी हैं। दोनों स्थानों (मैडागास्कर और अफ्रीका) के प्राणिसमूहों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि ऊदबिलाव और लीमर के विकास तक ये जुड़े हुए थे और इसके बाद पृथक्‌ हो गए। सच्ची बिल्लियाँ और बंदर पृथक्‌ होने के बाद अफ्रीका में विकसित हुए, पर मैडागास्कर न जा सके।

पूर्वी (ओरिएंटल) क्षेत्र

सीमा - भारत, लंका, मलाया प्रायद्वीप, पूर्वी द्वीपसमूह, जैसे बोर्नियो, सुमात्रा, जावा और फिलीपीन आदि, इस प्रदेश के भाग हैं।

विशेषता - इस प्रदेश में घने जंगल हैं, जो हिमालय की तराई में आठ से लेकर दस हजार फुट की ऊँचाई तक फैले हैं। जंगलों की विशेषता की दृष्टि से कुछ लोगों ने इसे इंडोचायनीज़ और इंडोमलायन उपक्षेत्रों में विभाजित किया है। भारत में अधिकतर घास के खुले मैदान अथवा चरागाह हैं। इसका तीसरा उपक्षेत्र कहा जा सकता है। इसी तरह भारतीय प्रायद्वीप का दक्षिणी भाग लंका से भिन्न है। इसी तरह भारतीय प्रायद्वीप का दक्षिणी भाग लंका से भिन्न है। इसलिए लंका चौथा उपक्षेत्र बनाता है। इसे सिंहली उपक्षेत्र कहते हैं।

प्राणि समूह - इस क्षेत्र के स्तनधारी अफ्रीका के स्तनधारी प्राणियों से मिलते जुलते हैं। इसलिए पहले कुछ लोग इसे ईथियोपियन क्षेत्र का एक भाग मानते थे। जहाँ तक खुरवाले जानवरों का संबंध है, हिप्पोपोटैमस, जो अफ्रीका की विशेषता हे, इस क्षेत्र में नहीं मिलता। घोड़ों में केवल एक जाति सिंध नदी के पास मिलती है। यह वह सीमा है, जहाँ ओरिएंटल और होलार्कटिक क्षेत्र मिलते हैं। मृग भी यहाँ मिलते हैं, परंतु उनकी संख्या कम हो गई है। ठोस सींगवाले हिरन की लगभग २० जातियाँ मिलती हैं। भारतीय भैंस, गाय और इनकी तीन चार जंगली जातियाँ, जैसे गवल (gour), गायल (gayal) आदि जावा से लेकर भारतीय प्रायद्वीप तक विस्तृत हैं। पवित्र गाय, जिसे ज़ेब कहते हैं, केवल पालतू रूप में मिलती है। बकरी भी यहाँ मिलती है। गैंडा (राइनॉसरॉस, rhinoceros) भी यहाँ मिलता है। ये एक सींगवाले और दो सींगवाले, दोनों प्रकार के होते हैं। अमरीकी तापिर की एक जाति और सूअर की छ: जातियाँ यहाँ मिलती हैं।

कुछ भागों में ऊदबिलाव पाए जाते हैं। बिल्लियों में बाघ और उसके अलावा अफ्रीकी बिल्लियाँ भी, जैसे शेर, चीते और तेंदुए, आदि, हैं। कुत्तों और लोमड़ियों की कई जातियाँ मिलती हैं। जंगली कुत्तों की भी कई जातियाँ मिलती हैं, जो भेड़ियों की भाँति शिकार करती हैं। कुछ भागों में गीदड़ भी पाए जाते हैं। धारीदार हायना, अर्थात्‌ लकड़बग्घा, भी अनेक स्थानों में मिलता है। भालुओं की भी कई जातियाँ यहाँ मिलती हैं। भारतीय हाथी सभी जंगलों में मिलते हैं। ये पूर्व में लंका, बोर्नियो और सुमात्रा तक फैले हुए हैं। चूहों और गिलहरियों का यह क्षेत्र मुख्य घर है। गोल और चिपटी पूँछवाली उड़नेवाली गिलहरियाँ भी बहुत मिलती हैं। चमगादड़ यहाँ अन्य प्रदेशों की अपेक्षा विशेष विकसित हैं। लाल मुँह (macacus) और काले मुँह तथा लंबी दुमवाले लंगूर (semnopithecus) यहाँ बहुत पाए जाते हैं। इस प्रदेश के पूर्वी भागों में जैसे मलाया द्वीपपुंज (Malay Archipelago) में, औरांग उटान (orang-utan) ओर गिब्बन (gibbon) मिलते हैं। इसी भाग में उड़नेवाला लीमर (Galeo pithecus) मिलता है। सुमात्रा, जावा और बोर्नियो में एक विशेष प्रकार का लीमर पाया जाता है, जिस स्पेक्ट्रम लीमर (spectrum lemur) कहते हैं। तथा जिसका वैज्ञानिक ना टारसियस स्पैक्ट्रम (tarsius spectrum) है।

इस क्षेत्र में विभिन्न और अधिक पक्षिसमूह हैं। अनेक प्रकार की महत्वपूर्ण चिड़ियाँ, जैसे लार्फिग ्थ्राश (laughing thrush), हिल-टिट (hill-tit), बुलबुल (bulbul), ग्रीन बुलबुल (green bulbul), टेलर बर्ड (tailor bird), स्टालिंग (starling), मधुमक्खी भक्षी (bee-eater), सन बर्ड (sun-bird) आदि इस क्षेत्र में बहुतायत से पाई जाती हैं। बया भारतीय क्षेत्र का विशेष पक्षी है। यहाँ तोते कम विकसित हैं। फीजेंट्स (pheasants) बहुतायत में मिलते हैं। मुर्ग हिमालय से लेकर जावा के टापुओं तक फैला है। मोर हर जगह, हिमालय से लेकर दक्षिण में लंका और पूर्व में चीन-तक मिलता है।

उरगों में विशालकाय अजगर, कोबरा और पिट वाइपर आदि मिलते हैं। छिपकलियों में गोह, गेक्को (घरेलू छिपकली), आगामा, ड्रैको (उड़नेवाली छिपकली) आदि मिलती हैं। मगरमच्छ और घड़ियाल भी यहाँ की विशेषताएँ हैं। उभयचरों में मेढक, टोड और वृक्षों पर रहनेवाले मेढक (hyla frog) आदि मिलते हैं। यहाँ का मत्स्य भी विशेष महत्वपूर्ण है।

आस्ट्रेलियन क्षेत्र

सीमा - आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, न्यूगिनी के अतिरिक्त पैसिफिक महासागर के टापू, जैसे ईस्ट इंडिज़ और लोंबक आदि इस क्षेत्र की सीमा बनाते हैं।

विशेषता - इस क्षेत्र के मुख्य भाग (आस्ट्रेलिया) की जमीन कंकरीली है। यहाँ पानी की कमी है और शुष्क तीव्र वायु अधिक बहती है। यहाँ की भूमि सारी अनुपजाऊ है। वनस्पतियाँ कम होती हैं और जो होती हैं, वे भी गर्मी से झुलस जाती हैं, जिससे उनके द्वारा जंतुओं का विकास नहीं हो पाता। इस क्षेत्र का अधिकतर भाग रेगिस्तानी है, जिसमें जानवर रह नहीं पाते। इस महाद्वीप का आधे से कुछ कम भाग उष्ण प्रदेश में पड़ता है। न्यूज़ीलैंड के अधिकतर भाग में घना जंगल है।

जंतुसमूह - आस्ट्रेलियन क्षेत्र के जंतुसमूह में कई विचित्रताएँ दिखाई देती हैं। वे स्तनधारी प्राणी यहाँ नहीं मिलते, जा अन्य समान जलवायुवाले देशों में मिलते हैं। न्यूगिनी में सूअर की एक जाति सस (sus) मिलती है। इसके अलावा यहाँ पृथ्वी पर रहनेवाले वे अन्य स्तनधारी प्राणी नहीं मिलते, जो पुरानी दुनिया में मिलते हैं, पर चमगादड़ और चूहे यहाँ मिलते हैं। इस प्रदेश के महत्वपूर्ण जानवर हैं मारसूपियल (marsupial) और मॉनोट्रीम (monotreme)। मारसूपियल शरीर के बाहर स्थित थैली (मारसूपियन) में बच्चे पालनेवाले जंतु हैं। इनमें कंगारू, कंगारू चूहा, डैस्यूरस (dasyurus), चींटी खानेवाले मारसूपियल, बैंडीकूट, बिना पूँछवाला कोआला और शहद चूसनेवाले मारसूपियल उल्लेखनीय हैं। इस क्षेत्र के आलावा ये कहीं और नहीं पाए जाते। मॉनोट्रीम अविकसित स्तनधारी हैं, जिनमें बत्तख जैसी चोंचवाला ऑरनिथोरिंगकस (ornithorhynchus) और साही जैसे काँटोंवाले एकिडना (echidna) उल्लेखनीय हैं।

यहाँ का पक्षीसमूह भी महत्वपूर्ण है। पुरानी दुनिया के अधिकतर पक्षी यहाँ मिलते हैं। संसार में पाई जानेवाली कुछ फिंच (finch) यहाँ नहीं मिलती। गिद्ध, कटफोड़वा तथा फीज़ैंट यहाँ नहीं मिलते। न्यूगिनी की पैराडाइज़ बर्ड यहाँ का विशेष पक्षी है। यह आस्ट्रेलिया में भी मिलता है। कुंज बनानेवाले पक्षी (bower birds) केवल यहीं मिलते हैं। यहाँ के तोते बहुत बड़े होते हैं। काकातूआ और कैसंविरी (cassowaries) भी यहाँ के विशेष पक्षी हैं। एमू आस्ट्रेलिया में साधारणत: पाया जाता है।

यहाँ बिना दुमवाले उभयचर (मेढक, टोड) मिलते हैं, परंतु जीनस व्यूफो (genus bufo) यहाँ नहीं मिलता। राना (Rana) की एक ही जाति (species) यहाँ मिलती है, जिसमें पेड़ों पर रहनेवाले मेढ़क अधिक हैं। साँप और छिपकलियाँ यहाँ बहुत मिलते हैं। विषहीन साँपों से विषैले साँपों की संख्या अधिक है। मगरमच्छ की भी एक जाति यहाँ मिलती है। न्यूजीलैंड में एक छिपकली मिलती है, जिसे टुआटारा (Tuatara) कहते हैं। इसको जीवित जीवाश्म कहते हैं, क्योंकि इस छिपकली में पुराने समय की छिपकलियों के चारित्रिक गुण पाए जाते हैं। मत्स्यसमूह बहुत कम है। फेफड़ेवाली मछली, सिरैटोडर्स (Ceratodus), को यहाँ दो जातियाँ मिलती हैं।

आस्ट्रेलियन क्षेत्र और ओरियंटल क्षेत्र के बीच पचीस मील चौड़ी समुद्र की धारा है। इस धारा को वॉलिस की रेखा (Wallace's line) कहते हैं। यह बाली (Bali) द्वीप से लांबॉक (Lombok) द्वीप तक बोर्नियो (Borneo) तथा सेलेबीज़ (Celebes) द्वीपों के बीच होकर जाती है। इस रेखा के पूर्व में आस्ट्रेलियन क्षेत्र हैं, जिसमें मारसूपियल स्तनधारी प्राणी मिलते हैं, किंतु विकसित स्तनधारी नहीं मिलते। इस रेखा के पश्चिम में ओरिएंटल क्षेत्र है, जिसमें आस्ट्रेलियन क्षेत्र से भिन्न प्रकार के जंतु मिलते हैं। यह पचीस मील चौड़ी धारा बहुत गहरी है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि कभी यहाँ पर कोई महत्वपूर्ण बाधा रही होगी जिसके कारण एक ओर के जानवर दूसरी ओर नहीं जा पाते होंगे।

उदग्र विस्तार (Bathymetric Distribution) - पहाड़ की चोटी से समुद्र के तल तक जलवायु के कई स्तर मिलते हैं। हर प्रकार की जलवायु का जंतु समूह पृथक्‌ पृथक्‌ होता है। इसलिये पहाड़ की ऊँचाई से लेकर समुद्र की गहराई तक के जानवरों के विस्तार का अध्ययन किया जाता है। इस तरह के विस्तार को बैथिमेट्रिक वितरण कहते हैं। कुछ लेखकों न बैथिमेट्रिक वितरण को दो भागों में विभाजित किया है, एक है गहराई संबधी, अर्थात्‌ जलीय, और दूसरा है ऊँचाई संबंधी, अर्थात्‌ ऐल्टिट्यूडिनल विस्तार (altitudinal distribution)। बैथिमेट्रिक विस्तार के अध्ययन के लिए जीव संबंधी तीन विभाग किए गए हैं : १- भूमिजीवी (geobiotic), २- समुद्रेतर जलवासी (limnobiotic) तथा ३- हैलोबायोटिक (halobiotic) या समुद्रवासी।

   भूमिजीवी जंतु पृथ्वी पर रहनेवाले हैं। समुद्र के किनारे से लेकर पहाड़ की चोटी तक के जानवरों का उल्लेख इनमें होता है। इनमें प्राय: ऐसे प्राणीसमूहों का उल्लेख होता है, जिनपर ऊँचाई का प्रभाव पड़ता है।
   समुद्रेतर जलवासी (limnobiotic) जंतुओं में स्वच्छ जल (झील या नदी) में रहनेवाले जानवरों का उल्लेख होता है। स्वच्छ जल के निवासियों की संख्या कम है। इनमें अपृष्ठवंशी प्राणी बहुत कम होते हैं, विशेषकर बहनेवाले जल में। कुछ बड़ी बड़ी झीलें हैं, जिनमें जल का दबाव अधिक है और प्रकाश भी अंदर नहीं जा पाता, पर उनमें रहनेवाले प्राणियों में ये विशेषताएँ नहीं होतीं, जो समुद्र में रहनेवाले प्राणियों में होती हैं।
   समुद्रवासी प्राणीविभाग में समुद्रवासी प्राणियों का उल्लेख होता है। पृथ्वी का लगभग ७२ प्रतिशत क्षेत्र समुद्र से घिरा हुआ है। समुद्र में प्राणी बहुत पुराने समय से हैं। पत्थरों पर अंकित प्राणियों के जो जीवाश्म मिलते हैं, वे अधिकतर समुद्री प्राणियों के हैं। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि समुद्र में रहनेवाले प्राणियों में ही विकास अधिक हुआ, क्योंकि इन प्राणियों को एक जैसे वातावरण में एक लंबे काल तक रहने का अवसर मिला। आधुनिक समय में भी यदि देखा जाए तो प्राणियों के कई समुह, जैसे टेनोफोरा (Tenophora), ब्रैकियोपोडा (Brachiopoda), पॉलिकीटा (Polychaeta), सेफालोपॉडा (Cephalopoda), टुनीकाटा (Tunicala) हैं, जो केवल समुद्र में ही मिलते हैं। समुद्री क्षेत्र में ताप परिवर्तित नहीं होता। जल का खारापन हर स्थान पर प्राय: एक समान है और विलेय गैस भी हर स्थान पर एक जैसी मात्रा में मिलती है। इस क्षेत्र को भी चार भागों में बाँटा गया है : स्ट्रैड (Strand), फ्लैट सी (Flat sea) या शैलो सी (Shallow sea), पिलैजिक (Pelagic) और ऐबिस्सल (Abyssal)। इनमें से कभी-कभी लेखक पहले दो का वर्णन लिटोरल (Littoral) के अंतर्गत करते हैं।

स्ट्रैंड समुद्र के किनारे को कहते हैं। यह पृथ्वी और समुद्र के बीच परिवर्तनवाला क्षेत्र है। इस स्थान से दिन में दो बार ज्वारभाटा पृथ्वी से वापस जाता है और वहाँ के रहनेवाले प्राणियों को खोल देता है। चूँकि इसका संबंध ज्वारभाटा से है, इसलिए इसे ज्वारभाटा संबंध क्षेत्र भी कहते हैं। इस भाग के जानवर अपने को सूखने से बचाने के लिए ये तो कवच (shell) बंद कर लेते हैं, या तल में बिल बनाकर प्रवेश कर जाते हैं। इनमें कुछ ऐसे प्राणी भी होते हैं, जो जल में अथवा हव में साँस ले सकते हैं।

फ्लैट सी उथले समुद्र को कहते हैं। यह उतरते हुए ज्वारभाटा के उस चिह्न से प्रारंभ होता है, जहाँ से जल समुद्र की ओर नहीं जाता। इसमें समुद्री लहरों की क्रिया एक सी होती है और यह लगभग ६०० फुट गहरा होता है। यह महत्वपूर्ण भाग है। इसमें प्रकाश, वनस्पति और तल तीनों वस्तुएँ उपस्थित रहती हैं, जिनपर जंतुजीवन निर्भर करता है। इसको लोगों ने विकासवाद का क्षेत्र माना है।

चित्र २. समुद्रीय परिमंडल के विभिन्न उपमंडल

प्रकाश उथले जल से नीचे भी प्रवेश करता है। पर फ्लैट सी विभाग के नीचे तल नहीं मिलता। इसमें जितने प्राणी हैं वे बिना तल के रहते हैं। इसलिए ये सदा लहरों के साथ आया जाया करते हैं। समुद्र में जिस गहराई तक प्रकाश पहुँच सकता है, उस गहराई तक के भाग को पिलैजिक (pelagic) भाग कहते हैं। पिलैजिक के ऊपरी भाग में ताप बदलता रहता है और लहरों की उथल-पुथल रहती है। नीचे जल स्थिर रहता है और ताप कम। इस भाग में कुछ प्राणी हैं, जो जल में तैरते रहते हैं और जिन्हें जल यहाँ वहाँ ले जाता है। ऐसे प्राणीसमूह को प्लैंक्टन (plankton) कहते हैं। इस भाग में कुछ ऐसे बड़े प्राणी भी होते हैं, जो लहरों के विरुद्ध जा सकते हैं। इन्हें नेक्टॉन (nekton) कहते हैं। मछली, ह्वेल आदि ऐसे प्राणियों के उदाहरण हैं। इस भाग में जल पर तैरनेवाली वनस्पतियाँ भी मिलती हैं। प्राय: सर्वत्र पिलैजिक भाग का जल एक जैसा होता है, इसलिए इस भाग का फैलाव अधिक होता है। प्लैंक्टन प्राणिसमूह अनेक भाँति के प्राणियों का प्रतिनिधित्व करता है। इस समूह के जंतु प्राय: छोटे होते हैं, जिससे इनके शरीर के अंदर और बाहर का द्रव पदार्थ एक जैसा होता है और दोनों का ताप भी एक जैसा होता है। इसका भार बहुत कम होता है। यदि भार अधिक हुआ तो अंदर हवा के बुलबुले भरे रहते हैं, या तेल की बूँदे, जिससे व जल में तैरते रहते हैं। इनके कवच पतले होते हैं। कुछ जातियों के अंडों में तैरने की विशेष व्यवस्था हेती है। प्लैक्टन के जानवर अच्छे तैरनवाले नहीं होते; अधिकतर तो तैरना जानते ही नहीं। ५०० मीटर की गहराई के जानवर, विशेषकर मछलियाँ, प्रकाशोत्पादक होती हैं। सतह पर रहनेवाले प्राणी पारदर्शी होते हैं। जहाँ प्रकाश धूमिल है, वहाँ के प्राणी रुपहले होते हैं और अधिक गहराई में रहनेवाले जानवर गाढ़े रंग के होते हैं। नेक्टॉन प्राणी अधिकतर समूहों में रहते हैं। उड़नेवाली मछलियाँ, ह्वेल एवं डॉल्फिन आदि इसके अच्छे उदाहरण हैं।

ऐबिस्सल क्षेत्र में १०० फैदम से अधिक गहराईवाले सभी सतुद्र आते हैं। यह पिलैजिक के बाद प्रारंभ होता है। इस प्रदेश का वातावरण बिल्कुल स्थिर होता है। यहाँ के जानवर तली की नरम कीचड़ पर, या कीचड़ में रहते हैं। यहाँ का जल ठंडा और प्रकाशहीन होता है। ऊपर की लहरों का प्रभाव भी यहाँ नहीं होता। इस गहराई में जल का दबाव अधिक हो जाता है। ज्यों-ज्यों गहराई बढ़ती है, चूने की मात्रा कम होती जाती है और कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती जाती है; फिर भी इतना ऑक्सीजन होता है कि प्राणी भली-भाँति रह सकें। काला सागर जैसे कुछ ऐसे स्थान भी हैं, जिनके जल में पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिलता। इस क्षेत्र में केवल प्रकाशोत्पादक प्राणियों का ही प्रकाश मिलता है। यहाँ के जानवर विशेष रूप से बड़े होते हैं। कुछ केकड़े इतने बड़े होते हैं कि उनका व्यास ३ मीटर होता है। हाइड्रा की आकृतिवाले कुछ जानवर होते हैं, जिनकी लंबाई २.५ मीटर होती है, यद्यपि स्वयं हाइड्रा की लंबाई केवल आठ मिलीमीटर के लगभग होती है। इस गहराई में रहनेवाले अधिकतर जानवर स्पंज, सीलट्रेट, क्रिनॉइड्स (crinoids) और एमिडियंस आदि डंठल वाले होते हैं। डंठल से इनका शरीर उठा रहता है। क्रस्टेशियन के शरीर पर लंबे काँटे, कड़े बाल और लंबे स्पर्शक होते हैं। गहरे जल में रहनेवाले क्रस्टेशियन लाल हाते हैं, परतु अन्य अपृष्ठवंशी प्राणी नीले अथवा बैंगनी रंग के होते हैं। गहराई में रहनेवाली मछलियों में आँखें नहीं होतीं। यहाँ ऐंग्लर मछलियाँ भी होती हैं, जिनके मुँह बड़े तथा शरीर पर लंबे लंबे काँटे होते हैं। मोलस्का की श्रेणी में यहाँ बड़े-बड़े ऑक्टोपस (Octopus) एवं स्क्विड (Squid) होते हैं। चूँकि इस गहराई का वातावरण स्थिर होता है, अत: यहाँ विकास संबंधी तीव्र परिवर्तन नहीं होते।

भूवैज्ञानिक विस्तार (Geological Distribution) - जिस तरह सतह पर जंतुओं के विस्तार का अध्ययन किया जाता है, उसी प्रकार जंतुओं के काल (समय) में विस्तार का भी किया जाता है। अब से १० हजार अथवा १५ हजार वर्ष पूर्व कैस प्राणी थे, इसका अध्ययन भूगर्भशास्त्र की सहायता से किया जाता है। इसीलिए इसे भूवैज्ञानिक विस्तार कहते हैं। पृथ्वी की सतह जैसी आज है, वैसी पहले नहीं थी। उसपर परत के परत जमते जा रहे हैं। परतों के बीच में जो जानवर पड़ गए, आज भी उनके जीवाश्म खोदकर निकाले जा सकते हैं। इनकी सहायता से विकासवाद का अध्ययन पूरा हो सका है। विकासवाद के जीवाश्म-प्रमाण टुकड़ों में मिले हैं, पर कहीं कहीं पूरे भी मिल गए हैं, जैसे आधुनिक घोड़े के विकास संबंधी जीवाश्म पूर्ण मिल गए हैं, जिनसे घोड़ों के विकास के क्रम का पता चलता है। इसी तरह आर्कियोप्टैरिक्स का जीवाश्म है, जिसमें चिड़ियों के लक्षण हैं और उरगों के भी। यह सिद्ध करता है कि उरगों से ही पक्षियो का विकास हुआ।

चित्र ३.

भूवैज्ञानिक दृष्टि से समय को छ: कल्पों में बाँटा गया है और प्रत्येक कल्प को अन्य छोटे छोटे कालभागों में विभाजित किया गया है। जिन्हें अवधि (epoch) कहा गया है। पहला जीवहीन कल्प (Azoic) के नाम से अभिहित है। यह कल्प लगभग १,००,००,००,००० वर्षों तक रहा। साधारण जीवोत्पत्ति दूसरे कल्प में हुई, जिसका नाम आर्किओज़ोइक (Archeozoic) है। इस काल के जीवाश्म प्राप्त नहीं है। इसका कारण यह है कि प्रारंभिक प्राणी अत्यंत सुकुमार तथा छोटे थे, इसलिये उन्होंने कोई चिह्न नहीं छोड़े। तीसरे कल्प का नाम प्राजीव कल्प (Proterozoic) है। इस काल के जीवाश्म बहुत अच्छे नहीं हैं, परंतु ऐसा अनुमार है कि अधिकतर अपृष्ठवंशी प्राणी इस समय में विकसित हो चुके थे। इस निश्चय पर पहुँचने का मुख्य कारण यह है कि इसके आगेवाली काल से अपृष्ठवंशी प्राणियों के अच्छे जीवाश्म प्राप्त हैं।

इसके पश्चात्‌ पुराजीवकल्प (Palaeozoic) काल आता है। इसको छ: अवधियों में बाँटा गया है। प्रथम अवधि कैंब्रियन कहलाती है। उसके बाद क्रमश: आर्डोविशियन, डिवोनियन, कार्बोनीफेरस तथा पर्मियन आते हैं। कैंब्रियन (Cambrian) में अपृष्ठवंशी प्राणियें की बहुतायत है। ट्राइलोबाइट्स (trilobites) और ब्रैकियोपॉडस अधिक हैं। आर्डोविशियन (Ordovician) में अपृष्ठवंशी प्राण्याेिं का उत्कर्ष और मछलियों का जन्म हो गया। कवचदार मछलियाँ भी पैदा हो गई थीं। सिल्यूरियन (Silurian) में बड़ी-बड़ी कोरल रीफ (coral reefs) पैदा हो गई थीं। ब्रैकियोपॉडों का उत्कर्ष हुआ, परंतु ट्राइलोबाइट कम होने लगे थे। इस काल में मछलियाँ भली-भाँति मिलती हैं। फेफड़ेवाली मछलियाँ भी मिलती हैं। डिवोनियन (Devonian) मछलियों का काल कहलाता है। इस अवधि में मोलस्क अधिक थे। उभयचरों का भी जन्म हो गया था। इस प्रकार पृष्ठवंशी प्राणियों ने इस अविध में प्रथम बार पृथ्वी पर जन्म लिया। इस अवधि के ये तीनों भाग इस कारण विशेषकर महत्वपूर्ण है। कार्बोनिफेरस (Carboniferous) में जो डिवोनियन के पश्चात्‌ आता है, वनस्पतियों तथा कोरल की अधिकता थी। कीटों का विकास भली-भाँति हो चुका था। ब्रैंकियोपॉड विलीन होने लगे थे। बड़ी-बड़ी शार्क मछलियाँ तथा फेफड़ेवाली अन्य मछलियाँ अधिक थीं। प्रधानत: यह उभयचरों का युग था। इसमें बड़े बड़े उभयचर थे। इन्हीं से उरगों का जन्म हुआ। कार्बोनिफेरस के पश्चात्‌ परमियन (Permian) युग आया। इस अविध में मछलियाँ, उभयचर ओर छिपकलियाँ बहुत थीं। मकड़ी, बिच्छू, गोजर, घोंघे और पुरातन कीट इस युग में बहुत थे।

मेसोज़ोइक (Mesozoic) कल्प प्राजीव कल्प के बाद आया। यह उरग काल कहलाता है। कुछ उरग तो हाथियों से भी बड़े थे। इसी युग के उरग पक्षियों में परिवर्तित हुए। इस कल्प को तीन अवधियों में बाँटा गया है। ये हैं ट्राइऐसिक (triassic), जुरैसिक (Jurassic) और क्रिटेशस (Cretaceous)। ट्राइऐसिक में समुद्री अपृष्ठवंशी प्राणियों की कमी हुई और बड़े उरग डायनोसॉर की वृद्धि। जुरैसिक में आधुनिक क्रस्टेशियन पैदा हो गए तथा ऐमोनाइटीज़ (Ammonites) बहुत हो गए। इस काल में पक्षी और उड़नेवाले उरग भी पाए जाते हैं। क्रिटेशस युग में ऐमोनाइटीज़ लुप्त हो गए। बड़े बड़े उरग भी विलीन होने लगे और टीलियोस्टियन मछलियों की वृद्धि हुई।

अंतिम कल्प को केनोज़ॉइक (Cenozoic) कल्प कहते हैं यह आधुनिक प्राणियों का काल है। इसका विभाजन दो कालों में किया गया है। एक है तृतीय युग (Tertiary) और दूसरा चतुर्थ युग (Quaternary)। तृतीय युग के कई भाग हैं। सबसे पहले भाग को आदि नूतन काल (Eocene) कहते हैं। इसमें अविकसित स्तनधारियों का विलीनीकरण प्रारंभ हो गया था और गर्भनाल (placenta) वाले स्तनधारियों का जन्म हुआ। इनमें घोड़े का प्राथमिक रूप इओहिप्पस (Eohippus) भी है। दूसरे भाग को अधिनूतन युग (Oligocene) कहते हैं। इसमें स्तनधारियों की वृद्धि हुई। बिल्ली, कुत्ते और भालू के बीच के जानवर और घोड़े की दूसरी श्रेणी मीज़ोहिप्पस (Mesohippus) तथा मायोहिप्पस (Miohippus) भी थे। बंदर तथा एप (ape) भी इसी काल में पैदा हुए हैं। तृतीय भाग, अल्पनूतन (Miocene), स्तनधारियों की वृद्धि का काल है। इनकी संख्य एवं रूप दोनों में वृद्धि हुई है। चौथे भाग अतिनूतन (Pliocene) में बंदर जैसे प्राणियों का सीधे चलनेवाले मानव में परिवर्तन प्रारंभ हो गया।

चतुर्थ युग सबसे आधुनिक काल को कहते हैं। इसका प्रथम भाग अभिनूतन काल (Pleistocene) कहलाता है। मानव का जन्म इसी काल में हुआ है। यह आधुनिक काल है। इस समय के बने जीवाश्म आधुनिक प्राणियों से मिलते हैं। इससे सिद्ध होता है कि जानवरों का विकास क्रमश: काल अथवा समय के अनुसार हुआ है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ