जलचिकित्सा

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लेख सूचना
जलचिकित्सा
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 415
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक भास्कर गोविंद घाणेकर

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जलचिकित्सा (Hydropathy) अनेक रोगों की चिकित्सा करने की एक निश्चित पद्धति है, जिसमें शीतल तथा उष्ण जल का बाह्याभ्यंतर प्रयोग सर्वश्रेष्ठ औषधि होती है और उपचारार्थ प्रयुक्त अन्य सभी ओषधियाँ प्राय: हानिकर समझी जाती हैं।

जलोपचार 1829 ई से प्रचलित है। इसका श्रेय साइलीज़ा (आस्ट्रिया) के विनसेंट प्रीसनिट्स (Vincent Priessnitz) नामक एक किसान को है, जिसने सर्वप्रथम इसका व्यवहार प्रचलित किया। बाद में अनेक डाक्टरों ने आंतज्वर, अतिज्वर (Hyperpyrexia) इत्यादि में शीतकारी स्नान बड़ा उपयोगी पाया। अब इसका प्रयोग अधिक व्यापक हो गया है।

जलचिकित्सा में जल का प्रयोग निम्नलिखित विधियों द्वारा किया जाता है :

  1. एकांग तथा सर्वांग के लिये शीतल तथा उष्ण आवेष्टन (packings)। आर्द्रवस्त्रावेष्टन चिकित्सा व्यवसाय का एक महत्व का अंग हो गया है।
  2. उष्ण वायु तथा बाष्पस्नान - टर्किश बाथ उष्णवायुस्नान का उत्तम उदाहरण है। डेविड उर्गुंहर्ट (David Urguhart) ने पौर्वात्य देशों से लौटने पर इंग्लैंड में इसको खूब प्रचलित किया। अब टर्किश बाथ एक स्वतंत्र सर्वमान्य सार्वजनिक प्रथा ही बन गई है।
  3. शीतल और उष्ण जल का सर्वांग स्नान।
  4. शीतल या उष्ण जल से पाद, कटि, शीर्ष, मेरुदंड आदि, एकांगस्नान।
  5. आर्द्र तथा शुष्क पटबंधन और कंप्रेस (compresses)।
  6. शीतल तथा उष्ण सेंक एवं पूल्टिस (poultices)
  7. प्रक्षालन (Ablution) - इसमें 15° -21°c ताप का पानी हाथों से शरीर पर लगाया जाता है।
  8. आसेक (Affusion) - इसमें रोगी टब में बैठा या खड़ा रहता है और उसके सर्वांग या एकांग पर बाल्टी से पानी डाला जाता है।
  9. डूश (Douche) - इसमें पाइप (hose pipe) के द्वारा शरीर पर पानी छोड़ा जाता है।
  10. जलपान- इसमें पीने के लिये शीतल या उष्ण जल दिया जाता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ