जैन ख़ाँ कोका

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
चित्र:Tranfer-icon.png यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें
लेख सूचना
जैन ख़ाँ कोका
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 45-46
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी

जैन खाँ कोका यह अकबर की एक धाय का पुत्र था। इसके पिता और चाचा सम्राट् के बहुत निकट रहते थे, अतएव इसपर भी कृपा होना स्वाभाविक था। अपने राज्य के 30वें वर्ष अकबर ने इसे काबुल भेजा जहाँ युसुफजई उपद्रव मचा रहे थे। उलूग बेग मिर्जा की सहायता से इनके विद्रोह का दमन किया। इसी स्थान पर एक अन्य जाति 'सुलतानी' के नाम से रहती थी। बादशाही सेना ने चतुरता से युसुफजइयों को अपने पक्ष में करके सुलतानियों को नष्ट किया। बजोर, स्वाद आदि में दमन करते हुए वह चकदर पहुँचा जहाँ उसने एक दुर्ग स्थापित किया। कराकर और बूनेर प्रांत को छोड़कर शेष भाग पर अधिकार कर लिया।

अबुलफतह और राजा बीरबल के साथ इसे पहाड़ी प्रांतों में भी युद्ध करना पड़ा, यद्यपि यह उसकी अनिच्छा से ही हुआ था। पहाड़ी प्रांतों के अफगानों से युद्ध इसे अत्यंत महँगा पड़ा। इसकी सेना पहाड़ी क्षेत्रों में युद्ध की अनभ्यस्त होने के कारण बिखर गई। बहुत से सैनिक काम आए। स्वयं जैन खाँ के प्राण बड़ी कठिनाई से बचे। राजा बीरबल अन्य मुख्य साथियों के साथ युद्ध में मारे गए।

अकबर राज्य के 31वें वर्ष इसने पेशावर के निकट जलालुद्दीन रोशानी के नेतृत्व में महमंद और गोरी जातियों के विद्रोह का बड़ी वीरता से दमन किया। 32वें वर्ष में यह राजा मानसिंह के उत्तराधिकारी के रूप में जाबुलिस्तान का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। 33वें वर्ष इसने युसुफजइयों पर आक्रमण किया और 8 महीने के पश्चात्‌ बहुत लोगों को मार कर शेष लोगों से आत्मसमर्पण करवा लिया।

कोका ने स्वाद पर भी अधिकार करने का विचार किया। बचकोरा नदी के किनारे रक्षार्थ दुर्ग बनाकर उसने ईद की कुर्बानी के पर्व की रात अफगानों के ऊपर आक्रमण कर दिया। इसमें कोका की विजय हुई। 35वें वर्ष इसी की वीरता के कारण पहाड़ियों के जमींदारों को आत्मसमर्पण करना पड़ा। 37वें वर्ष जब जैन खाँ को हिंदूकुश से लेकर सिंध के किनारे तक की रक्षा के लिये नियुक्त किया गया, वह स्वाद और बजोर होकर तीराह पहुँचा। अफ्रीदियों और ओरकजइयों ने आत्मसमर्पण कर दिया और जलाल के काफिरों के क्षेत्र में शरण ली। इसने अपनी राजनीतिक कुशलता से काफिरों को मिलाकर अफगानों का दमन किया, युसूफजई भी बदख्शाँ तक भागकर सुरक्षित न रह सके। उन्हें जैन खां से संधि करनी पड़ी। इस प्रकार कनशान दुर्ग, बदख्शाँ और काशगर के सीमांत क्षेत्र इसके अधिकार में आ गए। इसी समय कुलीखाँ काबुल का कार्यभार संभालने में असमर्थ हो रहा था, अत: वह पद जैन खाँ को प्रदान किया गया।

जब जलालुद्दीन रोशानी के मरने पर अफगानिस्तान में शांति स्थापित हो गई तो यह लाहौर आ गया। अधिक मदिरासेवी होने के कारण इसका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया था। अंत में 1602 ईo में यह मर गया।

कहते हैं कि हिंदी काव्य और संगीत में इसकी विशेष रुचि थी। स्वयं कविहृदय और वाद्यप्रेमी था। इसकी विलासप्रियता की भी अनेक कहानियाँ प्रसिद्ध हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ