तापविद्युत
तापविद्युत
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 342 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | अजितनारायण मेहरोत्रा |
तापविद्युत् वह विद्युत है जो दो असमान धातुओं के तारों की संधि को गर्म करने पर इन तारों के परिपथ में प्रवाहित होने लगती है। इस तथ्य को सर्वप्रथम जैबेक (Seebeck) ने सन् 1821 में ताँबे एवं विस्मथ के तारों की संधि को गर्म कर आविष्कृत किया। उपर्युक्त परिपथ में उत्पन्न विद्युद्वाहक बल (Electromotive force) न्यून होता है और इसकी तीव्रता (1) परिपथ के तारों की धातु की प्रकृति पर, (2) असमान धातुओं के तारों की दोनों संधियों के तापांतर पर तथा (3) इन संधियों के औसत ताप पर निर्भर करती है। विद्युद्वाहक बल को मापने के लिये असमान धातुओं के तारों के ठंढे सिरे विभवमापी (potentiometer) से जोड़ दिए जाते हैं। यदि परिपथ में किसी दूसरी धातु का तार श्रेणीबद्ध कर दिया जाए तो तापविद्युत् प्रभावों में परिवर्तन नहीं होता। यदि जेबेक विद्युद्वाहक बल का परिमाण ई (E) एवं ठंढी संधि का तापांतर ता (T) और यदि एक संधि का ताप 00 सें० हो तो ता और ई का संबंध निम्नलिखित सूत्र में ज्ञात किया जाता है:
ई = क ता + ख ता2 [E=AT+BT2],
जहाँ क और ख तापविद्युत् स्थिरांक हैं और इनका मान परिपथ के तारों की धतु पर निर्भर करता है। धातुओं के तापविद्युत् स्थिरांक निम्नलिखित सारणी में दिए गए है:
धातुओं के तापविद्युत् स्थिरांक
धातु | क (A) | ख (B) |
---|---|---|
लोहा | +1734 | -4.82 |
इस्पात | +1139 | -3.28 |
ताँबा | +136 | +0.95 |
टिन | -43 | +0.55 |
चाँदी | +214 | +1.50 |
जास्ता | -234 | +2.40 |
प्लैटिनम (मुलायम) | -61 | -1.10 |
प्लैटिनम (कठोर) | +260 | -0.75 |
बिस्मथ और ताँबे की संधि के लिये ई 45 या 0.25 ता२ (E = 45 T + 0.25T2) माइक्रोवोल्ट है। न्यूनताप पर ई (E) ता (T) का लगभग समानुपाती होता है, किंतु यदि ता (T) बहुत अधिक हो तो ता२ (T2) का मान बढ़ जाता है। लोहे और ताँबे की संधि का ई = 15.8 ता - 0.0258 ता२ [E = 158 T - ०.0285T2] माइक्रोवोल्ट है। जब ताप ता (T) = 275 सें. हो, तब अधिकतम ई (E) 2000 माइक्रोवोल्ट। उच्च ताप पर ई (E) का मान घटने लगता है तथा 5500 सें° यह शून्य हो जाता है 5500 सें. से अधिक ताप बढ़ने पर ई (E) की दिशा बदल जाती है और विद्युतद्वारा विपरीत दिशा में प्रवाहित दिशा में प्रवाहित होने लगती है। इस प्रकार ताप बढ़ने पर विद्युतद्वारा का विपरीत दिशा में प्रवाहित होना तापविद्युत्प्रवाह को उत्क्रमण कहलाता है और 550° सें. उत्क्रमण ताप। ताँबे और बिस्मथ की संधि में यह प्रभाव नहीं होता।
किन्हीं दो तारों की संधि का ताप 10 सें. बढ़ने पर विद्युत् के विद्युद्वाहक बल में परिवर्तन होता है, जिसे तापविद्युच्छक्ति (Thermoelectric power) कहते हैं। विभिन्न धातुओं के तापविद्युत् गुणों की तुलना करने के लिये सीस का एक तार तथा दूसरा उस धातु का लेते हैं जिसका तापविद्युत् का गुण ज्ञात करना है।
तापविद्युत् प्रभाव का अधिक उपयोग ताप मापने के लिये किया जाता है। ताप मापने के लिये गरम और ठंढी संधि की व्यवस्था तापांतर युग्म (thermocouple) कहलाती है। ताँबा और कांसटैटन (60 प्रतिशत ताँबा और 40 प्रति शत निकल) युग्म 5000 सें. तक ताप मापने के लिये तथा प्लैटिनम और रोडियम एवं प्लैटिनम की मिश्रधातु के युग्म 15,0000 सें° तक ताप मापने के अच्छे युग्म हैं।
पैल्ट्ये (Peltier) प्रभाव
सन् 1834 में पेल्ट्ये ने आविष्कृत किया कि दो असमान धातुओं के परिपथ में विद्युद्वारा प्रवाहित होने पर एक संधि गरम और दूसरी संधि ठंडी हो जाती है। चित्र के अनुसार जब विद्युद्वारा लोहे से ताँबे की और प्रवाहित होती है तो
कोशिका नली में तेल की एक बूँद बाई ओर चलकर तापन प्रभाव दिखाती है और जब ताँबे से लोहे की ओर प्रभावित होती है तब शीतलन प्रभाव दिखाती है। पैल्ट्ये प्रभाव जेबेक प्रभाव का प्रतिलोम है।
टापसन् (Thomson) प्रभाव
सन् 1854 में विलियम टॉमसन ने आविष्कृत किया कि एक ही धातु के तारों के दोनों सिरों के मध्य में विभवांतर होता है, यदि दोनों सिरों के ताप भिन्न हों। पेल्ट्ये एवं टॉसन प्रभाव केवल सैद्धातिक महत्व के हैं। इनका व्यावहारिक महत्व कम है।
जब एक परिपथ में कई तापांतर युग्म होते हैं और उनकी क्रमिक संधियाँ एकांतरत: गर्म और ठंडी होती हैं तो कुल विद्युद्वाहक बल परिपथ में लगे हुए सब तापांतर युग्मों के विद्युद्वाहक बलों के योग के बराबर होता है। इस तथ्य का उपयोग तापीय पुंज (thermopile) नामक उपकरण में करते हैं, जिसमें बिसमथ और ऐटिपनी के छड़ श्रेणी में लगे रहते हैं। इस उपकरण विकिरण ऊष्मा का अनुमान एवं पता लगाने के लिये करते हैं। इस उपकरण में जो विद्युतद्वारा उत्पन्न होती है उसे गैल्वनोमीटर से मापते हैं और यही विकिरण के परिमाण का सूचकांक (index) है।
तापविद्युत् संयोजनों द्वारा व्यापारिक उपयोगिता की दृष्टि से विद्युत् उत्पन्न करने के अनेक प्रयास किए गए हैं, किंतु जब ये प्रयास आंशिक रूप से सफल हुए तो ज्ञात हुआ कि इनका व्यापारिक महत्व नगण्य है। तापविद्युत् संयोजन द्वारा व्यापारिक दृष्टि से विद्युत् उत्पन्न करने में दो प्रकार की कठिनाइयाँ हैं: सैद्धांतिक एंव संरचनात्मक। पर्याप्त विद्युद्वाहक बल प्राप्त करने के लिये बहुत अधिक संयोजनों की आवश्यकता होती है और अनुभव से यह सिद्ध हो चुका है कि अधिक संश्लिष्ट तापपुंज टिकाऊ नहीं होता। यदि इस कठिनाई को दूर भी कर दिया जाय तो सैद्धांतिक कारण, जो ऊष्मागतिकी पर निर्भर करते हैं, यह बतलाते हैं कि ऊष्मोर्जा को विद्युदूर्जा में परिवर्तित करनेवाले तापपुज की दक्षता कभी भी उच्च नहीं होती।
टीका टिप्पणी और संदर्भ