तारयंत्र
तारयंत्र
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 348 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | अनंतलाल |
तारयंत्र (Telegraph) विद्युत् धारा की सहायता से, पूर्व निर्धारित संकेतों द्वारा, संवाद एवं समाचारों को एक स्थान से दूसरे स्थान को भेजनेवाला तथा प्राप्त करनेवाला यंत्र है। लगभग दो शताब्दी पूर्व वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में यह विचार आया कि विद्युत् की शक्ति से भी समाचार भेजे जा सकते हैं। इस दिशा में सर्वप्रथम प्रयोग स्कॉटलैंड भी समाचार भेजे जा सकते हैं। इस दिशा में सर्वप्रथम प्रयोग स्कॉटलैंड के वैज्ञानिक डा० माडीसन से सन् 1753 में किया। इसको मूर्त रूप देने में ब्रिटिश वैज्ञानिक रोनाल्ड का हाथ था, जिन्होने सन् 1838 में तार द्वारा खबरें भेजने की व्यावहारिकता का प्रतिपादन सार्वजनिक रूप से किया। यद्यपि रोनाल्ड ने तार से खबरें भेजना संभव कर दिखाया, किंतु आजकल के तारयंत्र के आविष्कार का अधिकाश श्रेय अमरीकी वैज्ञानिक, सैमुएल एफ० बी० मॉर्स, को है, जिन्होने सन् 1844 में वाशिंगटन और बॉल्टिमोर के बीच तार द्वारा खबरें भेजकर इसका सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन किया।
टेलिग्राफ युनानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है दूर से लिखना। आजकल विद्युतद्वारा संदेश भेजने की इस पद्धति को तार प्रणाली तथा इस प्रकार समाचार भेजने को तार (telegram) करना या भेजना कहते है।
साधारणतया यह सभी को ज्ञात है कि सूचनाओं या संदेशों को विविध शब्दों द्वारा व्यक्त किया जाता है। ये शब्द स्वयं विभिन्न अक्षरों या वर्णो से बनते हैं। तार प्रणाली में इन विभिन्न अक्षरों या वर्णो को हम संकेतों (signal elements) के नाना प्रकार के संयोजनों से प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार अक्षरों का संकेतों द्वारा निरूपण तारकूट (telegraph code) Eòहा जाता है। समाचार भेजने के स्थान से तारकूट की सहायता से संदेश के विभिन्न शब्दों के अक्षरों को संकेत में परिवर्तित कर लिया जाता है। इस प्रकार विद्युत धारा के अंशों (current elements) को, जिनका निर्माण संकेतों पर आधृत रहता है, तार की लाइनों (lines) में भेजा जाता है। जिन स्थानों पर समाचार भेजना होता है उन स्थानों पर इस धारा के अंशों को पुन: संकेतों में बदल लिया जाता है। इन संकेतों को तारकूट की सहायता से अक्षरों में परिवर्तित कर पूरा समाचार प्राप्त कर लिया जाता है। इस प्रकार समाचार भेजने में तारकूट व्यवस्था अपना विशिष्ट स्थान रखती है। मूलत: तार प्रणाली में एक प्रेषित्र (Transmitter), एक ग्राही यंत्र (Receiver or Sounder), विद्युद्वारा के लिये एक बैटरी तथा तार की एक लाइन की आवश्यकता होती है। तार की लाइन या तो ऊपर हवा में रहती है, या धरती के अंदर है। इसी का मूल तार परिपथ (basic telegraph circuit) चित्र 1. में दिया गया है। तार की पद्धति में कई सुधार भी किए गए हैं, जिससे अब एक साथ ही अनेक समाचार दोनों दिशाओं में भेजे जाते हैं।
हस्तचालित तार पद्धति (manual telegraphy) में हाथ से ही तार कुंजी (telegraph key) चलाकर, एक प्रेषित्र की सहायता से विद्युद्वारा के उन अंशों को, जो विभिन्न अक्षरों को व्यक्त करते हैं, उत्पन्न किया जाता है। किंतु उच्च गति तारप्रणाली
(high speed telegraphy) में पहले तारकूट के अनुसार, संदेश के छिद्रण (perforations) एक कागज के फीते पर लिए जाते हैं। तदनंतर यही फीता प्रेषित्र की सहायता से संकेत धाराओं (signal currents) को उत्पन्न करने के लिये प्रयोग में लाया जाता है। प्राप्त धाराओं (received currents) को ध्वनि संकेत (sound signals) अक्षरों के व्यक्त करते हैं, अथवा इन्हीं प्राप्त धाराओं को कागज में प्रयुक्त किया जा सकता है। मुख्यतया तार प्रणाली की निम्नलिखित दो शाखाएँ :
- लाइन तारप्रणाली (Line telegraphy),
- समुद्री तार प्रणाली (Submarine telegraphy)
लाइन तारप्रणाली
मुख्यत: दो प्रकार के तारकूट इस प्रणाली में प्रयुक्त होते हैं:
- मॉर्स तारकूट तथा
- पंच ईकाई तारकूट (Five unit code)।
मॉर्स तारकूट
मॉर्स वर्णमाला में अक्षरों या वर्णो को डॉट (dot) और डैश (dash) संकेतों से व्यक्त किया जाता है। भिन्न भिन्न अक्षरों के लिये डॉट या डैश संकेतों की संख्या भिन्न भिन्न अक्षरों के लिये डॉट या डैश संकेतों की संख्या भिन्न भिन्न हुआ करती है। किसी भी अक्षर को व्यक्त करने के लिये अधिक से अधिक संकेतों की संख्या पाँच होती है तथा कम से कम एक होती है। लेकिन विरामचिन्हों में इन संकेतों की संख्या छह तक भी पहुँच जाती है। यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक अक्षर के लिये डॉट (.) और डैश (-) देनों प्रकार के संकेतों का उपयोग किया जाए, अपितु यह अक्षरों पर निर्भर करता है कि उनमें एक ही प्रकार के संकेत प्रयुक्त होते हैं अथवा दोनों प्रकार के। उदाहरणार्थ, अंग्रेजी के अक्षर ई (e) को केवल एक डॉट (.) द्वारा तथा एन (n) को एक डैश एवं एक डॉट संकेत (_ .) द्वारा व्यक्त किया जाता है। किसी भी डॉट या डैश संकेतों की अवधि (duration) का कोई निश्चित समय नहीं है। जैसे जैसे संकेतों की पारेषण गति (transmission speed) बढ़ती जाती है वैसे वैसे इन संकेतों की अवधि घटती जाती है। मॉर्स तारकूट तालिका नं 1 (अ, ब, स) में दिया गया है।
मॉर्स
तारकूट का स्थल की लाइनों में प्रयोग - जब मॉर्स तारकूट प्रणाली को पृथ्वी की लाइनों (land lines) में, या रेडियो परिपथों पर, प्रयुक्त किया जाता है, तो एक डैश की अवधि एक डॉट की अवधि का तीन गुना होती है, लेकिन संकेत के बीच के अवकाश की अवधि (space duration) एक डॉट के समय की अवधि (time period) के बराबर होती है तथा दो अक्षरों के बीच की अवधि एक डैश के बराबर होती है। किन्हीं दो शब्दों के बीच का स्थान एक डॉट के समय (period) के चौगुने समय एवं अक्षरों के बीच के स्थान के बराबर होता है। तालिका 1. में दिए हुए मॉर्स तारकूट अंतर्राष्ट्रीय हैं। आजकल हमारे देश में हिंदी में तार देने की भी व्यवस्था हो गई है। इसकी कूट व्यवस्था भी मॉर्स की पद्धति के आधार पर बनाई गई है, जो तालिका न० (अ, ब) में दी गई है।
पृथ्वी पर तार की लाइनों में संवाद पारेषण दो विधियों से संभव है: एकल विद्युत् धारा विधि (single current method) से अथवा द्धिधारा विधि (Double current method) से। पहलेवाली विधि में विद्युद्धारा केवल एक ही दिशा में प्रवाहित होती है और वह भी संकेत काल (signal period) की अवधि में। अवकाश अवधि (space duration) में किसी प्रकार की विद्युत् प्रवाहित नहीं
द्विअवस्थीय (2-Condition) मॉर्स संकेत में यह शब्द धरती की लाइनों (land lines) पर भेजा जा रहा है। (अ) एकल धारा तथा (ब) द्विधारा।
होती। दूसरी विधि में विद्युद्धारा प्रवाहित तो होत ी हैं, किंतु अवकाश अवधि में उल्टी दिशा में प्रवाहित है। इस प्रकार पारेषण काल में दो अवस्थाएँ तार की लाइन पर संभव हैं: या तो विद्युत् बहती है अथवा नहीं और या तो धन विद्युत् अथवा ऋण विद्युत्। इसलिये इसे तार की लाइनों पर द्वि-अवस्थीय र्मार्स कूट (2-Condition Morse code on land lines) के नाम से पुकारा जाता है। उपर्युक्त विधियों के अनुसार अंग्रजी के शब्द Be के स्थान पर तार प्रणाली के विद्युच्छंकेतों को चित्र में दर्शाया गया है।
तालिका नं० 1 (अ, ब, स)
अक्षर | संकेत | अक्षर | संकेत |
---|---|---|---|
ए (a) | डॉट डैश (. -) | एन (a) | डैश डॉट (- .) |
बी (b) | डैश डॉट डॉट डॉट (- . . .) | ओ (o) | डैश डैश डैश (- - -) |
सी (c) | डैश डॉट डैश डॉट (- . - .) | पी (p) | डॉट डैश डॉट डैश (. - - .) |
डी (d) | डैश डॉट डॉट (- ..) | क्यू (q) | डैश डैश डॉट डैश (- - . -) |
ई (e) | डॉ (.) | आर (r) | डॉट डैश डॉट (. - .) |
एफ (f) | डॉट डॉट डैश डॉट (. . - .) | एस (s) | डॉट डॉट डॉट (. . .) |
जी (g) | डैश डैश डॉट (- - .) | टी (t) | डैश (-) |
एच (h) | डैश डॉट डॉट डॉट (. . . .) | यू (u) | डॉट डॉट डैश (. . -) |
आई (i) | डॉट डॉट (. .) | वी (v) | डॉट डॉट डॉट डैश (. . . -) |
जे (j) | डॉट डैश डैश डैश (. - - -) | डब्ल्यू (w) | डॉट डैश डैश (. - -) |
के (k) | डैश डॉट डैश (- . -) | एक्स (x) | डैश डॉट डॉट डैश (- . . -) |
एल (l) | डॉट डैश डॉट डॉट (. - . .) | वाइ (y) | डैश डॉट डैश डैश (- . - -) |
एम (m) | डैश डैश (- -) | जेड (z) | डैश डैश डॉट डॉट (- - . .) |
संख्याएँ (ब)
संख्या | संकेत | संख्या | संकेत |
---|---|---|---|
1(1) | डॉट डैश डैश डैश डैश (. - - - -) | 6(6) | डैश डॉट डॉट डॉट डॉट (- . . . .) |
2(2) | डॉट डॉट डैश डैश डैश (. . - - -) | 7(7) | डैश डैश डॉट डॉट डॉट (- - . . .) |
3(3) | डॉट डॉट डॉट डैश डैश (. . . - -) | 8(8) | डैश डैश डैश डॉट डॉट (- - - . .) |
4(4) | डॉट डॉट डॉट डॉट डैश (. . . . -) | 9(9) | डैश डैश डैश डैश डॉट (- - - - .) |
5(5) | डॉट डॉट डॉट डॉट डॉट (. . . . .) | 0(0) | डैश डैश डैश डैश डैश (- - - - -) |
कुछ विराम चिह्न
विरामचिह्न | संकेत |
---|---|
पूर्ण विराम (Full stop) | डॉट डैश डॉट डैश डॉट डैश (. - . - . -) |
अर्द्ध विराम (Comma) | डैश डैश डॉट डॉट डैश डैश (- - . . - -) |
कोलन (Colon) | डैश डैश डैश डॉट डॉट डॉट (- - - . . .) |
प्रश्नवाचक चिह्न (Note of interrogation) | डॉअ डॉट डैश डैश डॉट डॉट (. . - - . .) |
मॉर्स-कूट के समुद्री तार प्रणाली में प्रयोग
धरती के ऊपर तार प्रणाली का प्रबंध प्रत्यक्ष दिखाई देता है और उसमें कोई विशेष अनोखापन नहीं है। तार समाचार आजकल हमारे व्यवहार में एक साधारण बात हो गई है। लेकिन समुद्र के भीतर, उसकी तली में, तार का जो केबल गया है, वह इंजीनीयरिंग का एक अद्भुत नमूना है।
मॉर्स कूट को समुद्री तार प्रणाली में निम्नलिखित दो विधियों से प्रयुक्त किया जाता है:
- त्रि-अवस्थीय समुद्री तार कूट (3-Condition Cable Code) तथा
- द्वि-अवस्थीय समुद्री तार कूट (2. Condition Cable Code)।
तालिका न० 2 अ, ब। हिंदी तार संकेत प्रणाली (अ)
अल्पप्राण | संकेत | महाप्राण | संकेत | अर्धअल्पप्राण | संकेत | अर्धमहाप्राण | संकेत |
---|---|---|---|---|---|---|---|
क | (- . -) | ख | (. - . -) | क् | (- - . -) | ख् | (. . - . -) |
ग | (- - .) | घ | (. - - .) | ग् | (- - - .) | घ् | (. . - - .) |
च | (- . - .) | छ | (. - . - .) | च् | (- - . - .) | छ् | (. . - . - .) |
ज | (. - - -) | झ | (. . - - -) | ज् | (- . - - -) | झ् | (. . . - - -) |
ट | (. - . -) | ठ | (. . - . -) | ट् | (- . - . -) | ठ् | (. . . - . -) |
ड | (. . - -) | ढ | (. . . - -) | ड् | (- . . - -) | ढ् | (. . . . - -) |
त | (. - -) | थ | (. . - -) | त् | (- . - -) | थ् | (. . . - -) |
द | (- - . .) | ध | (. - - . .) | द् | (- - . .) | ध् | (. . - - . .) |
न | (- .) | अनुस्वार | (. - .) | न् | (- - .) | चंद्रबिंदु | (. . - .) |
प | (- .) | फ | (. . - - .) | प् | (- . - - .) | फ् | (. . . - - .) |
ब | (- . . .) | भ | (. - . . .) | ब् | (- - . . .) | भ् | (. . - . . .) |
म | (- -) | ण | (. - -) | म् | (- - -) | ण् | (- - -) |
य | (- . - -) | - | (. - . - -) | य् | (- - . - -) | ऋ | (. . . - .) |
र | (. - .) | या | (. . - .) | र् (रेफ) | (- . - .) | त्र् | (. . . - . .) |
ल | (. - . .) | त्र | (. . - . .) | ल् | (- . - . .) | ङ् | ( . . . . . -) |
व | (. . . -) | ङ | (. . . . -) | व् | (- . . . -) | श् | (. . . . .) |
स | (. . .) | श | (. . . .) | स् | (- . . .) | ष् | (. . . . . .) |
ह | (. . . .) | ष | (. . . . .) | ह् | (- . . . .) | त्र् | (. . - - . -) |
क्ष | (- - . -) | त्र | (. - - . -) | क्ष् | (- - - . -) | श्री | (. . - . . -) |
ज्ञ | (- . . -) | श्र | (. - . . -) | ज्ञ् | (- - . . -) |
निम्नलिखित चेतावनी संकेत (warning signals) हमेशा संकेतों के आगे आते हैं:
श्
मात्रा | संकेत | मात्रा | संकेत | अक्षर | संकेत | अक्षर | संकेत |
---|---|---|---|---|---|---|---|
ा | . - | : | (. . -) | अ | (- . -) | आ | (. . . -) |
ि | - . . | ी | (. - . .) | इ | (- - . .) | ई | (. . - . .) |
े | . - - | ू | (. . . -) | उ | (- . . -) | ऊ | (. . . . -) |
ै | . . - . | ै | (. . . - .) | ए | (- . . - .) | ऐ | (. . . . - .) |
ो | - - - | ौ | (. - - - .) | ओ | (- - - -) | औ | (. . - - -) |
ृ | - - - . | (ॉ) | (. - - - .) | (अवशिष्ट) | (- - - - .) | श् | श् |
ड़ | . (s).. | (६७) | (. . (s) . . ) | है | (. - - - - -) | श् | श् |
ढ़ | . . (s). | (७६) | (. . . (s).) | हूँ | (. . - - - -) | ||
में | - - - - | मैं | (. - - - -) |
निम्नलिखित चेतावनी संकेत (warning signals) हमेशा संकेतों के आगे आते हैं:
श्
. परिवर्तन संकेत .. गुरु हलंत संकेत _ लघु हलंत संकेत ..(s).
अन्यभाषा परिवर्तन संकेत (s)
अवकाश (space)
प्रत्येक मात्रा, जो अक्षरों से संबंधित होती है, हमेशा अक्षरों के बाद संकेत की जाती है। केवल एक ही मात्रा रेफ ( र्) है, जो अक्षर के पहले संकेत की जाती है।
त्रि-अवस्थीय समुद्री तारकूट
इस प्रणाली में ये तीन अवस्थाएँ संभव है: धनात्मक विद्युद्वारा ऋणात्मक विद्युद्वारा और विद्युद्वारा रहित (no current) अवस्था इस प्रणाली में एक बिंदु को स्पंदन (pulsation) द्वारा दिखलाते है। यह स्पंदन धनात्मक विद्युत् के कारण उत्पन्न होता है। इसी अवधि के स्पंदन को, जो ऋणात्मक विद्युत् के कारण उत्पन्न होता है, एक रेखा के स्थान पर प्रयुक्त करते हैं। दो लगातार स्पंदनों के बीच में विराम अवधि होती है और इसी अवधि (duration) में केबल (Cable) को पृथ्वी से संयुक्त कर दिया जाता है और अवकाश अवधि (space period) आवश्यक नहीं होती। जब विद्युत् प्रवाहित नहीं होती है तो एक अवकाश अवधि, जो संकेत अवधि के बराबर होती है, दो अक्षरों के बीच में दी जाती है और दो अवकाश उसी अवधि के दो शब्दों के बीच में दिए जाते हैं। इस प्रकार के संकेत साधारण सकेंतों या ध्वनि के विस्पंदन (beat) संकेतों के नाम से पुकारे जाते हैं। यदि दो या दो से अधिक, एक भाव के क्रमिक (successive)
(अ) विस्पंदन संकेत (Beat signal) तथा (ब) खंड (block) संकेत
आवेगों (impulses) के बदले में किसी एक आवेग को, जिसकी अवधि दोनों क्रमानुसार आवेगों के योग के बराबर होती है, रखा जाता है, तो इस प्रकार निर्मित संकेतों को खंड (block) कहते हैं। इस प्रकार धनात्मक विद्युत् स्पंदन की अवधि, जो अक्षर आई (i) को व्यक्त करती है, अक्षर ई (e) से दूनी होती है, एस (s) के लिये तीन गुनो तथा एच (h) के लिये खंड संकेतों (block signals) में चौगुनी होती है। इस प्रकार शब्द बी (Be) के विस्पंदन संकेतों को चित्र 3 अ. तथा खंड में दिखाया गया है।
द्वि-अवस्थीय समुद्री तारकूट
इस समुद्री तार कूट में केवल दो प्रकार की अवस्थाएँ संभव हैं: (1) धनात्मक विधुत् अवस्था तथा (2) ऋणात्मक विद्युत् अवस्था। अतएव इसे द्विविद्युत् कूट (Double Current Cable Code) के रूप में पुकार सकते है। इस प्रकार के कूट (code) में डॉट को हम एक ही अवधि के ऋणात्मक विद्युत्स्पंदन द्वारा, जो धन विद्युत्स्पंदन के बाद के क्रम से आता है, व्यक्त करते हैं तथा डैश को ठीक डॉट अवस्था के विपरीत क्रम से व्यक्त करते है। इसमें पहले ऋण विद्युत्स्पंदन तथा धन विद्युत स्पंदन क्रमश: आते है, लेकिन दोनो की अवधि एक ही होती है। संकेततत्वों के बीच में अवकाश की आवश्यकता नहीं होती है, लेकिन दो अक्षरों के बीच में जो अवकाश दिया जाता है उसे घनात्मक विद्युत्स्पंदन द्वारा व्यक्त किया जाता है। यह धन विद्युत्सपंदन किसी भी संकेत के धनात्मक विद्युत् या ऋणात्मक विद्युत्स्पंदन की दुगनी अवधि के बराबर होता है। दो शब्दों के बीच में जो अवकाश दिया जाता है उसे धनात्मक विधुत् स्पंदन से वयक्त किया जाता है। इसकी अवधि किसी भी संकेत के धनात्मक या ऋणात्मक विद्युत्सपंदन के तीन गुने के बराबर होता है। इसे कभी कभी रेडियो परिपथ में भी प्रयुक्त किया जाता है।
पंच इकाई तारकूट (Five unit code)
इस प्रणाली में प्रत्येक अक्षर को बराबर अवधि के पाँच धनात्मक तथा ऋणात्मक आवेगों के संयोजन से व्यक्त किया जाता है और इन आवेगों के बीच किसी प्रकार का अवकाश नहीं होता है। यह एक द्वि-अवस्थीय प्रणाली है, जिसमें 32 क्रमचय (permutation) सुलभ होते हैं। द्विस्थिति विचलन फलन (Two case shift functions) के समायोजन के लिये प्रयुक्त किया जाता है। अक्षरों के बीच अवकाश संकेत दिए जाते हैं, जो एक धनात्मक आवेग तथा दो ऋणात्मक आवेगों द्वारा व्यक्त किए जाते हैं। इनमें पहले धनात्मक तक ऋणात्मक आवेग का क्रम होता है।
कागज के फीते पर तारकूटें (Telegraph code used on paper tapes) - साधारणतया तार के संकेत उच्च-गति-पारेषण (high speed transmission) में एक कागज के धिते पर छिद्रों के रूप में प्राप्त किए जाते हैं। इन एक कागज के फीतों को प्रेषित्र में तेजी से गुजारा जाता है तो आवेगों के व्यवस्थित संयोजन बनते हैं, जो अपने आप ही तार की लाइनों में भेज दिए जाते हैं।
साधारण मॉर्स कूट को कागज के फीते की सहायता से तथा हीट्स्टोन उच्च-गति-तार प्रेषित्र यंत्र के द्वारा तीव्र गति से
भेजा जा सकता है। इस प्रक्रिया में एक कागज का फीता होता है जिसके बीच की रेखा पर छोटे छोटे छिद्रों की पंक्ति होती है और ये छ्िद्र बराबर बराबर दूरी पर बने होते हैं। कागज के फीते को इन बने हुए छिद्रों की सहायता से दाँतेदार पहिए घूमता है तो इसके कारण कागजी फीता प्रेषित्र में होकर गुजरता है। इस क्रिया में डॉट को दो बड़े छिद्रों द्वारा, जो केंद्रीय छिद्रों की विपरीत दिशा में बनते हैं दर्शाया जाता है (देखें चित्र ४) तरंगों के बीच का स्थान अपने आप विपरीत किनारों पर लगातार छिद्रों की स्थितियों से इंगित होता है। केंद्रीय छिद्रों के ऊपर या नीचे यदि कोई छिद्र न हो तो इसे अक्षरों के बीच का अवकाश माना जाता है।
समुद्री तारकूट में भी इसी प्रकार के कागज के फीते को उच्च गति पर पारेषण के लिये प्रयुक्त किया जाता है। केंन्द्रीय छिद्रों की रेखा के समांतर और उसके किसी तरफ, ऊपर या नीचे, बड़े छिद्रों से संकेतों को
व्यक्त किया जाता है। चित्र 5 में, छिद्रों की ऊपरी पंक्ति डॉट को व्यक्त करती है और नीचे की बड़े छिद्रों की समांतर पंक्ति डैश को व्यक्त करती है।
प्रत्येक केंद्रीय छिद्र के अनुरूप (corresponding) एक बड़ा छिद्र, या तो ऊपरी समांतर रेखा पर अथवा निचली समांतर रेखा पर होता है। किसी केंद्रीय छिद्र के ऊपर या नीचे कोई छिद्र न हो तो इससे अक्षरों के बीच का अवकाश प्रकट होता है। यदि दो लगातार केंद्रीय छिद्रों के ऊपर या नीचे कोई छिद्र न हो, तो इससे शब्दों के बीच का अवकाश ज्ञात होता है।
पंचइकाई प्रणाली में किसी धात्मक आवेक को एक छिद्र द्वारा व्यक्त किया जाता है तथा एक ऋणात्मक आवेग बिना छिद्र के ही व्यक्त होता है। प्रथम दो इकाईयों की स्थिति केंद्रीय छिद्रों के ऊपरी तरफ होती है तथा शेष तीन इकाइयों की स्थिति निचली तरफ होती है। इस चित्र 6. में दिखलाया गया है।
मौलिक रूप में किसी संचार प्रणाली (communication system) में तीन भाग : प्रेषित्र यंत्र, पारेषण माध्यम (transmitting medium) तथा ग्राही यंत्र होते हैं। प्रेषित में संवादों को संकेतों में बदलकर उन्हें विद्युत् संकेतों के रूप में संचारित किया
जाता है। पारेषण माध्यम के द्वारा संकेतों को प्रेषित यंत्र से ग्राही यंत्र तक भेजते है तथा ग्राही का यह कार्य होता है कि वे संकेतों को पकड़कर इन्हें संवादों के रूप में बदल देते है। इस प्रकार पूरा समाचार उपर्युक्त तीनों की सहायता से प्राप्त किया जाता है।
किसी भी तारयंत्र प्रणाली में साधारणतया तारकुंजी, धरती पर खंभों के सहारे अथवा पृथ्वी के अंदर लगाई गई तार की लाइनें और तार घ्वनित्र (telegraph sounder) या तार रिले (relay) यंत्र होता है। तारकुंजल को झुकाने या छोड़ने से किसी भी संदेश को संकेतधाराओं के रूप में मॉर्स कूट के अनुसार बदला जा सकता है। ये संकेतधारएँ लाइनों के माध्यम से प्रवाहित होने के बाद तार ध्वनित्र को चालू करती हैं, जिससे डॉट तथा डैश की स्पष्ट ध्वनियाँ उत्पन्न हैं और इन ध्वनियों से संवाद को पुन: प्राप्त कर लिया जाता है।
एकज तथा द्विधारी कुंजियाँ (single and double current keys)
कई प्रकार की तार कुंजियाँ तथा विभिन्न प्रकार के अध्रुवित और ध्रुवित तार ध्वनित्र क्रमश: एकल तथा द्विधारी प्रणाली में प्रयुक्त होते हैं। एकल धारा या तटस्थ धारा (neutral current) तथा द्विधारी प्रणाली या ध्रुवीय प्रणाली में अंतर यह है कि एकल धारा प्रणाली में अवकाश अवधि, या सकेंत शुन्य अवधि, में कोई भी धारा नहीं भेजी जाती है, जबकि द्विधारी प्रणाली में विपरीत ध्रुवत्व की धारा भेजी जाती है, जबकि द्विधारी प्रणाली में विपरीत ध्रुवत्व की धारा भेजी जाती है। काम करने की उच्चतर गति द्विधारी प्रणाली के साथ लाइनों पर संभव है, यदि इन तार की लाइनों की धारिता (capacitance) परिमेय (appreciable) हो, क्योंकि यह इन लाइनों के निरावेश (discharge) होने में सहायक होता है और ग्राही यंत्रों के अवशेष चुंबकत्व (residual magnetism) को दूर करता है। आगे यह तटस्थ स्थिति में (neutral position) लोगों के ध्रुवित ग्राही यंत्रों को प्रयुक्त करने देता है और इस प्रकार हम और सुग्राही या संवेदी कार्य कर पाते हैं।
एकल धारा तारकुंजी
एकल धारा तारकुंजी (single current key) में आवश्यक रूप से पीतल का एक कीलित लीवर ब होता है, जिसके कारण आगे और पीछे के बिंदु अ और स पर संपर्क हुआ करता है। इस लीवर का एक कमानी की सहायता से, जो पीछे की ओर होती है। प्रारंभिक स्थिति में ब और स का संपर्क बना होता है। जब कुंजी को आगे की ओर दबाया जाता है तो ब और स का संपर्क टूट जाता है, लेकिन ब और अ का संपर्क स्थापित जाता जाता है। जब कुंजी को छोड़ते हैं तो पीतल के लीवर को अपनी प्रारंभिक अवस्था में कमानी के कारण आना पड़ता है। इस कुंजी यंत्र के आधार पर तीन अलग अलग पेंच (screws) होते हैं, जिनके द्वारा अ, ब तथा स से संपर्क किया जाता है (देखें चित्र ७.)। यह बात ध्यान रखने योग्य है कि जब हम एकल धारा-तार-यंत्र-कुंजी को झुकाते हैं तो बैटरी का संपर्क या तो लाइन से हो जाता है अथवा कट जाता है। लेकिन द्विधारी-तारयंत्र कुंजियों को झुकाने से बैटरी के संपर्क का ध्रुवत्व (polarity) ही बदल जाता है।
चित्र 8 में एकल-धारा-तारयंत्र-कुंजी का रेखाचित्र है, जिसमें ब तारयंत्र कुंजी का चल लीवर (movable lever) है। अ और स दो स्थिर संपर्क बिंदु (fixed contact points) हैं। साधारणतया जब लीवर ब का संपर्क स के साथ टूट जाता है तो उसी समय अ के साथ स्थापित हो जाता है। यदि परिपथ को कुंजी के दबाने के साथ ही चालू करना होता है तो इसे ब और अ के साथ जोड़ा जाता है और यदि परिपथ को बंद (off) करना होता है तो इसे ब और स के साथ जोड़ दिया जाता है।
द्विधारी-तारयंत्र-कुँजी (Double current key)
इस प्रकार की तारयंत्र-कुंजी में विभाजित लीवर प्रणाली होती है (देखें चित्र 9), जिसका कार्य चार संपर्क कमानियों के बीच होता है। यह लीवर दो भागों में विभाजित होता है। ये दोनों भाग एक दूसरे से पृथक्करण (insulation) द्वारा अलग रहते है और यह पृथककारी (inasulator) इन दोनों के बीच रहता है। इस यंत्र में जब कुंजी को दबाया जाता है तो लीवर ऊपर की ओर जाता है और
लीवर से ऊपरवाली कमानियों का संपर्क (upper contact) हो जाता है तथा नीचेवाली कमानियों का संपर्क (lower contact) स्वत: टूट जाता है। लेकिन जब कुंजी को छोड़ दिया जाता है तो ऊपरवाली कमानियों से संपर्क टूट जाता है और नीचेवाली कमानियों से पुन: स्थापित हो जाता है। इस यंत्र में एक स्विच (switch) होता है, जिसको प्र' स्थिति कहलाती है। इस स्थिति में इससे समाचार भेजा जाता है तथा ग्र ग्र' स्थिति या ग्रहण स्थिति (receive postion) रखने से संदेश प्राप्त किया जाता है।
चित्र 10. में द्विधारी तारयंत्र कुंजी का रेखाचित्र दिया गया है इसमें चित्र 10 के (अ) के अनुसार पाँच सिरे (terminals) होते हैं। स तथा ज को बैटरी के लिये प्रयुक्त किया जाता है, अ ग्राहक सिरा, ल लाइन सिरा तथा ई भू-सिरा कहलाता है। जब कुंजी प्रेषण स्थिति (send position) में रहती है तो अंतरण आरेख संयोजन (spacing diagram connection) होता है जैसा
चित्र 10 (ब) में दिखलाया गया है। कुंजी जब दबी अवस्था (marking diagram connection) होता है, जैसा चित्र 10 (स) दिखलाया गया है; लेकिन ग्रहणस्थिति में संयोजन आरेख (connection diagram), जैसा चित्र 10 (द) में दिखलाया गया है, होता है।
चित्र १० (अ) में बैटरी का संबंध स तथा ज के बीच होता है, जबकि ल का संबंध लाइन से तथा ई का संबंध धरती से किया जाता है। लेकिन ग्राही यंत्र ग्र और ई के बीच जोड़ा जाता है। प्रेरणा स्थिति में यदि कुंजी झुकायी (depress) जाती है तो बैटरी का ध्रुवत्व लाइन संयोजन से बदल जाता है। जब तारयंत्र कुंजी ग्रहणस्थिति में होती है तो ग्राही यंत्र लाइन से श्रेणी (series) में जुड़ जाता है।
ध्वनित्र तथा तारयंत्र रिले (Sounders and telegraph relays)
ये यंत्र दो प्रकार के होते हैं, जिन्हे अध्रुवित तथा ध्रुवित ध्वनित्र तथा रिले के नाम से पुकारा जाता है। ध्वनित्र और तार रिले दोनों ही ग्राही यंत्र कहलाते हैं। लेकिन ध्वनित्र और तार रिले दोनों ही ग्राही यंत्र कहलाते है। लेकिन ध्वनित्र में जब ग्राह्य विद्युत्धारा (received current) आर्मेचर की कुंडली में होकर गुजरती है तो आर्मेचर के लीवरों के स्थिर स्थानों पर प्रहार से ध्वनि उत्पन्न होती है, किंतु तार रिलेओं में विद्युद्धाराप्रवाह के समय केवल कुछ संपर्क होता है। ये यंत्र अध्रुवित तथा ध्रुवित प्रकार के होते हैं। ध्वनित्र यंत्र विद्युतद्धारा की दिशा का विभेद (discrimination) नहीं करता, रिले यंत्र से होकर जब विद्युद्धारा प्रवाहित होती है, तब इसकी दिशा का विभेद हो जाता है।
अध्रुवित ध्वनित्र
इसमें एक इलेक्ट्रोमैग्नेट कुंडली स, एक नरम लोहे की गुल्ली (soft-iron core) के साथ होती है (देखें चित्र 11.)। आर्मेचर एक पीतल के लीवर ल के साथ संलग्न होता है, जो चल होता है (movable) तथा प पर कीलित होता है। यह पीतल की भुजा (brass arm) पर दो स्थिर संपर्को के बीच आसानी से कार्य करता है। इस यंत्र में एक पेंच होता है, जिससे कमानी के तनाव को ठीक किया जाता है। जब विद्युतद्धारा कुंडली से होकर प्रवाहित होती है तो आर्मेचर आकर्षित होता है और लीवर का संपर्क स्थिर भुजा पर प्रहार करता है, जिससे ध्वनि उत्पन्न होती है। जब विद्युद्धारा का प्रवाह बंद हो जाता है तो कमानी के कारण आर्मेचर और लीवर अपनी पूर्वावस्था में चले आते है और लीवर पीतल की भुजा पर स्थित पेंच पर प्रहार करता है, जिससे ध्वनि उत्पन्न होती है। आर्मेचर के बीच का वायु अंतर (air gap) और लीवर का कार्य दोनों ही उन पेंचों की भुजा स्थित होते हैं, इच्छानुसार ठीक किया जाता है। प्रत्यानथन (restoring) कमानी से आर्मेचर को आकर्षित करने तथा छोड़ने के लिये निम्नतम तथा उच्चत्तम विद्युत् धारा का मान क्रमश स्थिर किया जाता है।
ध्रुवित ध्वनित्र
जहाँ तक इसकी बनावट का संबंध है, यह लगभग अध्रवित ध्वनित्र की तरह है। इसमें केवल एक और स्थायी चुँबक (permanent magnet) लगा दिया जाता है। यह स्थायी चुंबक आर्मेचर के संगत (corresponding) सिरों पर विपरीत ध्रुत्व का चुंबकत्व प्रेरित करता है। अत: जब विद्युद्धारा एक दिशा में प्रवाहित होती है तो आर्मेचर गुल्लियों की ओर आकर्षित होता है और यदि धारा विपरीत दिशा में प्रवाहित होती है तो यह गुल्ली से दूर हट जाता है।
तार रिले (Telegraph relay)
कई प्रकार के ध्रुवित तार रिले हैं लेकिन ये मूलतया एक ही सिद्धांत पर कार्य करते हैं। स्थायी चुंबक के कारण वायु अंतरों में ध्रुवण फ्लक्स (polarising flux) का निमार्ण होता है। जब विद्युतद्धारा कुंडली से होकर एक दिशा में प्रवाहित होती है तो वायु अंतरों में से एक में फ्लक्स बढ़ जाता है और दूसरे में घट जाता है। लेकिन जब विद्युतद्धारा विपरीत दिशा में प्रवाहित होती है तो ठीक इसकी विपरीत अवस्था उत्पन्न होती है।
एकल तथा द्विधारी प्रणाली (Single and Double Current Working)
एकपथी प्रणाली (simplex telegraph system
में किसी भी दिशा में एक समय पर एक ही संकेत एक लाइन के द्वारा भेजा जा सकता है। एकल विद्युद्धारा प्रणाली को तटस्थ प्रणाली कहते हैं। तटस्थ प्रणाली खुले परिपथ या बंद परिपथ दोनों ही विधियों से संभव है। खुले परिपथ विधि में विद्युद्धारा लाइन से होकर तभी प्रवाहित होती है, जब कि संकेत भेजा जाता है। जब कि बंद परिपथ विधि में विद्युत् धारा हमेशा लाइन से होकर प्रवाहित रहती है और जब भी संकेत भेजा जाता है तो विद्युद्धारा का प्रवाह बंद हो जाता है। दोनों प्रकार की कार्यप्रणालियों के परिपथ (circuits) चित्र 12 तथा 13 में दिए गए हैं। खुले परिपथ प्रणाली (open circuit method) में जब कुंजी को दबाया जाता है तो स्टेशन की बैटरी से विद्युद्धारा लाइन में होकर गुजरती है और दूसरे स्टेशनों की बैटरी से बराबर प्रवाहित होती रहती है और इस प्रकार दोनों स्टेशनों के ध्वनित्र चालू अवस्था में रहते हैं। जब किसी स्टेशन से कुंजी को झुकाया या दबाया जाता है, तो परिपथ का विच्छेद हो जाता है, विद्युद्धारा का प्रवाह रुक जाता है है और ध्वनित्र तटस्थ अवस्था में हो जाते हैं।
यदि संचार पर्याप्त न हो तो खुली परिपथ विधि लाभदायक है, लेकिन इसमें दोनों स्टेशनों पर अलग अलग बैटरियाँ रखनी पड़ती है।
बंद परिपथ विधि में यह आवश्यक नहीं है कि दोनों स्टेशनों पर अलग अलग बैटरियाँ रखी जाएँ। यह विधि तभी लाभदायक है जब संचार पर्याप्त हो। इस तरीके से केवल एक बैटरी किसी स्टेशन पर रखकर बहुत से स्टेशनों के साथ एक साथ काम किया जा सकता है। यही प्रणाली हमारे देश के रेलवे तथा डाकघरों में अपनाई गई है। कई स्टेशनो के बीच इस प्रकार की बंद परिपथ प्रणाली चित्र १४. में दर्शाई गई है। सााधारणतया, या यो कहिए कि प्राय:, तारयंत्र परिपथ में एक तार प्रयुक्त किया जाता है तथा पृथ्वी को वापसी पथ (return path) के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
यदि तार लाइन प्रर्याप्त लंबी होती है, तो विद्युत् धारा इतनी घट जाती है कि यह ध्वनित्र को सीधे चालू न कर सके। इसलिये प्राय: ग्राही स्टेशनों पर रिले प्रयुक्त किया जाता है और स्थानीय बैटरियाँ स्थानीय ध्वनित्रों को रिले संपर्कों की सहायता से चालू करती है।
द्विधारी कार्यप्रणाली में आवश्यक रूप से द्विधारी कुंजियाँ तथा ध्रुवित ध्वनित्र या रिले प्रयुक्त किए जाते है। इस प्रकार की कार्यप्रणाली में यह आवश्यक होता है कि संदेश भेजना हो तो कुंजी प्रेषण स्थिति में रखी जाए तथा समाचार ग्रहण करते समय ग्राह्य स्थिति में।
तारयंत्र पुनरावर्तक (Telegraph Repeater)
तार की लंबी लाइनों के कारण ऐसा भी होता है कि लाइन का अवरोध (resistance) बहुत अधिक हो जाता है, जिसके कारण यह संभव है कि प्राप्त विद्युतद्धारा का परिणाम (magnitude) इतना कम हो कि इससे तार-रिले काम न करे। ऐसी अवस्था में यह आवश्यक होता है कि पुनरावर्तक स्टेशन रखा जाए, किसी बीच के स्थान से संकेंतों को दोहराए या प्रवर्धित (amplify) करे। कोई तारयंत्र पुनरावर्तक केवल संकेतों को प्रवर्धित रूप (amplified form) में पुन: उत्पन्न ही नहीं करता बल्कि संकेतों में उत्पन्न विकृतियों (distortions) को भी दूर करता है।
समुद्री तार प्रणाली का मॉर्स कूट (submarine Telegraphy Morse Code) - समुद्री तार प्रणाली में तार संकेत केबल (cable) की सहायता से भेजे जाते हैं, जो समुद्र के अंदर जल में डूबे रहते हैं। इस प्रकार की तार प्रणाली लगभग सौ वर्षो से चली आ रही है। यद्यपि यह भी साधारण तार प्रणाली की एक शाखा ही है, लेकिन इसमें प्रयुक्त होनेवाला तकनीक पूर्णतया भिन्न है। चूँकि जल में निमज्जित केवल के गुण भूस्थित तार की लाइनों के गुणों से भिन्न होते हैं, इसलिये यह आवश्यक है कि इसकी आवश्यकताओं की पूर्ति की जाए। इसका तकनीक इतना भिन्न है कि समुद्री तारप्रणाली में मॉर्स कूट को प्रयुक्त करने के लिये इसमें परिवर्तन करना आवश्यक है। इस संशोधित कूट व्यवस्था को केबल कूट के नाम से पुकारते हैं।
चूँकि केबल समुद्र के जल के अंदर रहता है, इसलिए समुद्र के पानी को वापसी पथ के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। समुद्र के जल के अंदर रहने के कारण केबलों के संवाहकों (conductors) के नष्ट होने का डर रहता है, इसलिये इन्हें उचित विसंवाही पदार्थों (insulating materials) से आवेष्टित रहना चाहिए। ऐसा भी संभव है कि पानी संवाहकों में प्रविष्ट हो जाए। इसी कारण अंत:समूद्र केबल एक धारित्र के रूप में लिए जाते हैं। जिसके भीतरी संवाहक और बाहरी आवरण (outer sheathing), जो पानी के संसर्ग मे रहते हैं, दो पट्टियों (plates) के रूप में काम करते हैं और विसंवाही पदार्थ धारित्र के डाइइलेक्ट्रिक के रूप में कार्य करता है। केबल की इसी धारिता (capacitance) के कारण साधारण मॉर्स कूट के डॉट और तिगुनी अवधि के डैश संकेतों को समुद्री तारप्रणाली में प्रयुक्त नहीं किया जाता। जब बैटरी को संवाहकों के सिरों पर जोड़ दिया जाता है तो दूसरे सिरे पर विद्युद्धारा दूसरे सिरे पर स्थिर मान प्राप्त करती है इसी प्रकार जब बैटरी से संवाहकों का संबंधविच्छेद किया जाता है तो दूसरे सिरे पर विद्युत्द्धारा तब तक विच्छेद किया जाता है तो दूसरे सिरे पर विद्युद्धारा तब तक शून्य नहीं होती जब तक धारित्र पूर्णतया निरावेशित नहीं हो जाता। इसलिए जब एक ही ध्रुवत्व के संकेत भेजे जाते हैं तो दो क्रमिक संकेतों (consecutive signals) का विभेद करना कठिन हो जाता है। अत: यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि धारित्र दूसरे संकेत के आने के पूर्व ही निरावेशित हो जाए। दो क्रमिक संकेतों के बीच में केबल को पृथ्वी से संयुक्त करने से यह कार्य बड़ी आसानी से हो जाता है। इसे संकेत ठहराव कहते हैं। चूँकि प्राप्त किये हुए संकेत बहुत क्षीण होते हैं, इसलिये समय अवधि से एक डॉट तथा एक डैश के बीच विभेद करना मुश्किल होता है। यह कठिनाई इन संकेतों को एक ही अवधि और विपरित ध्रुवत्व के बना देने से दूर हो जाती है। इस प्रकार त्रिअवस्थीय केबल कूट का जन्म हुआ है। यद्यपि जो कूट प्रयोग में लाया जाता है, वह मॉर्स कूट ही है, फिर भी विभिन्न प्रकार के प्रेषित्र और ग्राही यंत्रों को केबल कूट में, जिसमें संवाहक को क्रमिक संकेतों के बीच पृथ्वी से संयुक्त किया जाता है, विस्पंदन (beat) या साधारण कार्यप्रणाली कहा जाता है। जब क्रमिक संकेतों के बीच संवाहक को पृथ्वी से संयुक्त नहीं किया जाता है, तो इसे ब्लाक कार्यप्रणाली (block working) कहा जाता है। एक दूसरे प्रकार का भी केबल कूट है, जिसमें केबल का पृथ्वी से संयुक्त नहीं करते हैं, लेकिन प्रत्येक संकेत अवधि में धारित्र को विपरीत दिशाओं में आवेशित तथा निरावेशित किया जाता है।
विभिन्न प्रकार के प्रेषित्र तथा ग्राहीयंत्र ही समुद्री तार प्रणाली में प्रयुक्त नहीं किए जाते, बल्कि ऐसे तकनीक भी प्रयोग में लाए जाते हैं जो धरती की तार लाइनों में प्रयुक्त नहीं होते है। इनमें सबसे प्रमुख
- संकेतन धारित्र (Signalling condenser) और
- समुद्री भूकरण (sea earth) हैं।
संकेतन धारित्र
यह आवश्यक नहीं है कि धरती के भिन्न भिन्न भाग एक ही विभव (potential) पर हों। यह संभव है कि धरती की विद्युद्धारा समुद्री केबल से होकर गुजरे, जिससे तार संकेतों के लिये व्यतिकरण (interference) उत्पन्न हो। इस प्रकार की एकादिश विद्युत्रारा को रोकने के लिये केबल संवाहकों के दोनों सिरों पर उच्चमान (high value) के धारित्रों को श्रेणी में उपयोग में लाया जाता है, जो तार संकेतों को तो गुजरने देते हैं, लेकिन अवांछनीय एकदिश धारा को रोक देते हैं। इस प्रकार के धारित्रों को संकेतन धारित्र कहते हैं।
समुद्री भूकरण
समुद्री तार प्रणाली मे पृथ्वी को वापसी पथ के रूप में प्रयुक्त करते हैं और चूंकि ग्राही विद्युद्धारा कुछ माइक्रोएंपिइयर (micro-amperes) के स्तर की होती हैं, इसलिये यह आवश्यक है कि पृथ्वी विद्युद्रव समुद्री तट पर पाया जाता है, इसलिये समुद्री केबल का पृथ्वी से संबंध (earth connection) गहरे पानी में, समुद्र के अंदर पर्याप्त दूरी पर एक अलग तार से किया जाता है, जो केबल के अंदर पर्याप्त दूरी पर एक अलग तार से किया जाता है, जो केबल के आवरण (cable sheath) से जुड़ा रहता है। इसे समुद्री भूकरण कहते हैं।
ग्राही यंत्र
किसी भी लंबे समुद्री केबल में गृहित विद्युद्धारा बहुत कम होती है ओर इसका परिमाण माइक्रो-ऐपियर के लगभग होता है। इसी कारण तार-रिले ग्राही यंत्रों (receiving instruments) के रूप में प्रयुक्त नहीं किए जाते हैं। साइफन रिकॉर्डर (siphon recorder) नामक यंत्र समुद्री तार संकेतों को ग्रहण करने के लिये प्रयुक्त किया जाता है।
तार प्रणाली के प्रारंभिक दिनों में एक से अधिक समकालिक (simultaneous) तार संकेतों को एक तार के द्वारा भेजने में द्विपथी (duplex) और चतुष्पथी (quadruplex) तार प्रणाली प्रयुक्त की जाती थी। उस समय समकालीन विभिन्न तार संकेतों को ले जाने के लिये विभिन्न वाहक-तरंग-आवृत्तियों (carrier frequencies) का प्रयोग एक ही लाइन के द्वारा ज्ञात नहीं था। यद्यपि वाहक तार प्रणाली (carrier telegraph system) का प्रवेश हो जाने से साधारण द्विपथी और चतुष्पथी प्रणालियों का उपयोग घट गया है, तो भी आजकल इनका उपयोग उन स्थानों पर होता है जहाँ हम मँहगी वाहक उपस्कर प्रणाली (carrier equipment system) सुलभ नहीं कर पाते हैं।
चित्र एवं प्रतिकृति तारप्रणाली (Picture and Facsimile Telegraphy)
सर्वप्रथम ऐलेक्जैंडर बेन (Alexander Bain) के मस्तिष्क में सन् 1842 में चित्रों, तथा गुप्त संदेशों को दूर दूर जगहों में भेजने का विचार आया था। उस समय तक मॉर्स कूट का विकास भी नहीं हुआ था। तब से लेकर आज तक यह और तार प्रणाली दोनों साथ साथ बढ़ीं। सन् 1910 के लगभग प्रायोगिक रूप से छायाधन के परिमाण (tone value) के लिये कूट का प्रयोग तारों एवं केबलों पर सर्वप्रथम किया गया। लेकिन सन् 1925 में फोटोइलेक्ट्रिक सेल (photoelectric cell) तथा इलेक्ट्रॉनिक यंत्रो (electronic apparatus) के उपयोग से इस क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ और अमरीकन टेलीग्राफ तथा टेलीफोन कंपनी ने पहले पहल उस व्यवस्था का आविष्कार किया जिसने कि न्यूयॉर्क, शिकागो तथा सैनफ्रैसिस्को के बीच सफलतापूर्वक कार्य किया। फ्रांस की प्रसिद्ध फर्म बेलिन (Belin) ने अपने प्रसिद्ध उपस्कर (equipment) का प्रदर्शन सन् 1927 में किया। इधर फोटो तारयंत्र मशीनों (phototelegraph machines) के पर्याप्त संशोधित रूप फ्रांस की बेलिन, जर्मनी की सीमेन तथा अमरीका आर० सी० ए० (R.C.A.) और ऐकमी (Acme) कंपनियाँ सन् 1938 से ही बना रही हैं। इस प्रकार के यंत्र आजकल प्रेसों के अत्यावश्क अंग हैं।
चित्र अंशेक्षण (Picture Scanning) - मूल रूप से कोई भी चित्र उसके छोटे छोटे भागों से मिलकर बना होता है। ये छोटे छोटे भाग प्रकाश (light) तथा छाया (shade) के क्षेत्र होते हैं, जिन्हें हम चित्र अवयव (picture elements) कहते है। अवयवों की संख्याएँ तथा विस्तर (size) ही किसी चित्र का पूरा पूरा विवरण प्रस्तुत करते हैं यह आवश्यक है कि चित्र का सूक्ष्म विवरण जानने के लिये अवयवों की संख्या तो अधिक हो, लेकिन विस्तार कम हो। साधारणतया यह मालूम है किसी साधारण आकार के चित्र के विवरण को अच्छी तरह जानने के लिए अवयवों की संख्या 2,00,000 होने चाहिए। यदि चित्र के अवयवों को अधिक दूरी पर भेजना हो तो उनको प्रेषण के पहले क्रमानुसार व्यवस्थित किया जाता है और उन्हे हम दूसरे स्थान पर उसी रूप में प्राप्त कर लेते हैं। यह प्रेषण क्रिया फोटोइलेक्टिक सेल की सहायता से विद्युत् धारा भेज कर की जाती है। चूकि विद्युत धारा बहुत ही कम मान (value) की होती है। इसलिए संकेतों को चित्र--तरंग-वाहक-आवृतियों (picture carrier frequencies) की सहायता से भेजा जाता है। ग्राही केंद्र पर इन्हें ग्रहण कर प्रारंभिक अवस्था में परिवर्तित कर लिया जाता है।
प्रतिकृति तरप्रणाली
इसका प्रिंट संदेश (printed message), जैसे टाइप किया या लिखित समाचार, रेखाचित्र (diagrams) और रेखाकृतियाँ (skaetches) आदि, भेजने में उपयोग किया जाता है। इस व्यवस्था के द्वारा भाषा (language) को न जानते हुए भी रेखाचित्र (diagrams) लिखित संदेश (written message) आदि भेजे जाते हैं, जबकि साधारण तार प्रणाली में इसका कूट करना मुश्किल होता है।, जबकि साधारण तार प्रणाली में इसको कूट प्रणाली, आजकल केबल (cable) लाइनों के ऊपर ही नहीं प्रयुक्त होती बल्कि रेडियो में भी प्रयुक्त होती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ