ताराबाई
ताराबाई
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 365 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | सुशीला वैद्य |
ताराबाई जन्म, 1675; मृत्यु 9 दिसंबर 1761 ई०। ताराबाई हंसराज मोहिते की पुत्री थीं। हसराज मोहिते शिवाजी के एक कुशल सेनानायक थे। उनकी अनुपम सेवा के उपल्क्ष में शिवाजी ने उन्हे हंबीरराव की पदवी से विभूषित किया था।
ताराबाई का विवाह शिवाजी के छोटे पुत्र राजाराम के साथ हुआ था। राजाराम की अन्य पत्नियाँ भी थीं जिनका नाम राजसबाई और अंबिका बाई था।
शिवाजी की मृत्यु (1680 ई०) पश्चात् मराठा शक्ति क्षीण होने लगी। मुगलों के आक्रमण के कारण राजाराम को 1689 ई० में जींजी किले में शरण लेनी पड़ी। ताराबाई भी राजसबाई सहित जिंजी पहुँची। यहाँ भी मुगलों तथा मराठों में लगभग आठ वर्षों तक युद्ध चला। इसी बीच ताराबाई और राजसबाई ने अपने पुत्रों शिवाजी और संभाजी को क्रमश: 1696 ई० और 1698 ई० में जन्म दिया। जिंजी का किला 1698 ई० में मुगलों के हाथ लगा। तब राजाराम ने परिवार सहित सतारा में शरण ली। यहाँ भी मुगलों और पराठों में युद्ध चलता रहा। अप्रैल, 1700 ई० में राजाराम की मृत्यु के एक मास पश्चात् सतारा भी मराठों के हाथ से निकल गया। पन्हाला पहुँच कर ताराबाई ने अपने पुत्र शिवाजी का अभिषेक किया और उसकी ओर से शासनप्रबंध करने लगीं। इस कार्य की सफलता के लिये उसे राजसबाई और संभाजी को कैद करना पड़ा। ताराबाई के नेतृत्व में मराठों ने मुगलों से टक्कर ली। मुगल सम्राट् औरंगजेब स्वयं पन्हाला की ओर बढ़ा। उसके सेनापति जुलफिकार खाँ और तरवियत खाँ 30,000 अश्वारोहियों और 50,000 सैनिकों के साथ पहुँचे थे।मुगल सेना और मराठों में धमासान युद्ध हुआ। पाँच माह के पश्चात् यह किला भी मुगलों के हाथ लगा। ताराबाई शिवाजी द्वितीय के साथ विशालगढ़ पहुँची। 1704 ई० तक ताराबाई के हाथ विजयश्री न लगी। मुगलों ने मराठों से अनेक किले ले लिए। इनमें पेडगांव, पुरंदर, सिंहगढ़ मुख्य थे।
स्थानीय शासनप्रबंध के लिये ताराबाई ने विभिन्न सरदारों को जागीरें दे दीं। परसोजी भेंसले को पूर्वी बरार नागपुर तक, खंडोराव दभाडे को गुजरात, ऊधोजी चव्हाण को मिरज का प्रांत मिला। ये सरदार अपने क्षेत्र में स्वतंत्र थे। आक्रमण के समय उनकी रक्षा कर सकते थे जों अपनी-अपनी योग्यता का परिचय भी दे सकते थे पर ताराबाई ने उन प्रांतों पर पूरी निगरानी रखी। वे छत्रपति शिवाजी को कर देने के लिये बाध्य किए गये। मुगल और मराठे 1700 ई० से 1707 ई० तक लड़ते रहे। पूर्ण सफलता न तो मुगलों को मिली ओर न मराठे ही पराजित हुए।
इसी बीच औरंगजेब की मृत्यु 1707 में हुई। औरंगजेब के पुत्र बादशाह बनने की लालसा में एक दूसरे से युद्ध करने पर उतारू हुए। तब साहू को, जो अभी तक औरंगजेब की कैद में था, दक्षिण आने का सुअवसर प्राप्त हुआ। ताराबाई ने साहू को मराठा गद्दी का उत्तराधिकारी नहीं माना और और अपने सरदारों को शिवाजी द्वितीय के प्रति राजनिष्ठ रहने की शपथ दिलाई। धनाजी जाघव के सेनापतित्व में एक सेना साहू के विरुद्ध भेजी गई। साहू ने नारोराम को धनाजी जाधव से मिलने को भेजा। बातचीत के पश्चात् धनाजी जाधव सेना सहित साहू से मिल गए। साहू ने उन्हें अपनी सेना का सेनापति बनाया और नारोराम मंत्री बना। ताराबाई के विरोधियों ने ताराबाई और शिवाजी द्वितीय को कैद में डाल दिया। ताराबाई 1730 ई० तक कैद में रहीं। इस बीच संभाजी और उनके समर्थक कई बार साहू के राज्य में लूट पाट मचाते रहे। अत: ताराबाई के कैद में रहने से साहू को कोई लाभ नहीं हुआ। सन् 1730 में संभा जी और साहू में धमासान युद्ध हुआ जिसमें संभाजी पराजित हुए। ताराबाई ने साहू के साथ रहने की इच्छा प्रकट की। साहू ने इसे सहर्ष स्वीकार किया। उनके रहने का प्रबंध सतारा किले में किया गया। सन् 1731 में साहू और संभा जी बड़े प्रेम से मिले। पर शीघ्र ही सतारा गद्दी के उत्तराधिकार के प्रश्न ने साहू को चिंतित किया। उन्हें कोई संतान न थी और संतान की आशा ही थी। साहू ने दत्तक पुत्र लेने की इच्छा प्रकट की। ताराबाई ने उत्तराधिकारी के रूप में अपने पुत्र शिवाजी द्वितीय के पुत्र रामराजा का नाम सुझाया। साहू ने रामराजा को दत्तक बना लेने की घोषणा की। ताराबाई प्रसन्न हुई।
साहू की मृत्यु 1749 में हुई और रामराजा का राज्याभिषेक जनवरी 1750 में सतारा में हुआ। रामराजा अनुभवहीन थे। सतारा दरबार में विभिन्न सरदार अपना प्रभाव फैलाने में संलग्न थे। ताराबाई और पेशवा में प्राय: मतभेद रहता था। पेशवा अपने अधिकारों से वंचित नहीं होना चाहता था। ताराबाई रामराजा पर अपना प्रभाव डालना चाहती थी। इस बीच रामराजा का कार्य करना कठिन हो गया। पेशवा ने ताराबाई के समर्थकों को अपनी ओर मिलाना आरंभ किया। उन्हें या तो पराजित किया या कैद किया। ताराबाई पेशवा की नीति और प्रभुता के आगे न झुक सकीं और पेशवा को पराजित करने की तैयारियाँ करने लगीं। ताराबाई के समर्थन के लिये उमाबाई और अन्य सरदार जो ताराबाई के विरोधी थे एकत्रित हुए। ताराबाई ने अपना प्रतिनिधि निजामुलमुल्क के पास भेज। वहाँ से भी उन्हें सहायता का आश्वासन मिला।
ताराबाई नें 22 नवंबर 1750 को रामराजा को सतारा किले में कैद कर लिया। पेशवा और ताराबाई के सैनिकों में लगभग एक वर्ष छह मास तक युद्ध होता रहा। विवश होकर सितंबर 1752 में ताराबाई को पेशवा से संधि करनी पड़ी। इसके अनुसार ताराबाई आंतरिक कार्यक्षेत्र में स्वतंत्र थीं पर शासनप्रबंध पूर्ण रूप से पेशवा के हाथ में था। इसके पश्चात् भी ताराबाई अपना सामंजस्य पेशवा के साथ न कर सकीं। वे अपना क्रोध प्रकट करने से नहीं चुकती थी। अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे अत्यंत दुखी हुई। उन्होंने देखा कि छत्रपति केवल नाममात्र के ही थे। शासन का वास्तविक अधिकार पेशवा के हाथों में था।। 9 दिसंबर, 1739 में उनकी मृत्यु ओंकारेश्वर के मंदिर के समीप हुई।
टीका टिप्पणी और संदर्भ