तोमर
तोमर
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 437 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | दशरथ शर्मा |
तोमर राजपूतों में तोमर जाति अपना निजी स्थान रखती है। पुराणों से प्रतीत होता है कि आरंभ में तोमरों का निवास हिमालय के निकटस्थ किसी उत्तरी प्रदेश में था। किंतु 10वीं शताब्दी तक ये करनाल (पंजाब) तक पहुँच चुके थे। थानेश्वर में भी इनका राज्य था। उस समय उत्तर भारत में कान्यकुब्ज के प्रतिहारों का साम्राज्य था। उन्हीं के सामंत रूप में तंवरों ने दक्षिण की ओर अग्रसर होना आरम्भ किया।
दिल्ली में उनके अधिकार का समय अनिश्चित है। किंतु विक्रम की 10वीं और 11वीं शतियों में हमें साँभर के चौहानों और तोमरों के संघर्ष का उल्लेख मिलता है। तोमरेश रुद्र चौहान राजा चंदन के हाथों मारा गया। तंत्रपाल तोमर चौहान वाक्पति से पराजित हुआ। वाक्पति के पुत्र सिंहराज ने तोमरेश सलवण का वध किया। किंतु चौहान सिंहराज भी कुछ समय के बाद मारा गया। बहुत संभव है कि सिंहराज की मृत्यु में तोमरों का कुछ हाथ रहा हो। ऐसा प्रतीत होता है कि तोमर इस समय दिल्ली के स्वामी बन चुके थे।
गज़नवी वंश के आरंभिक आक्रमणों के समय दिल्ली-थानेश्वर का तोमर वंश पर्याप्त समुन्नत अवस्था में था। तोमरराज ने थानेश्वर को महमूद से बचाने का प्रयत्न भी किया, यद्यपि उसे सफलता न मिली। सन् 1038 ईo (संo 1095) महमूद के पुत्र मसूद ने हांसी पर अधिकार कर लिया। मसूद के पुत्र मजदूद ने थानेश्वर को हस्तगत किया। दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी होने लगी। ऐसा प्रतीत होता था कि मुसलमान दिल्ली राज्य की समाप्ति किए बिना चैन न लेंगे। किंतु तोमरों ने साहस से काम लिया। तोमरराज महीपाल ने केवल हांसी और थानेश्वर के दुर्ग ही हस्तगत न किए; उसकी वीर वाहिनी ने काँगड़े पर भी अपनी विजयध्वजा कुछ समय के लिये फहरा दी। लाहौर भी तँवरों के हाथों से भाग्यवशात् ही बच गया।
तोमरों की इस विजय से केवल विद्वेषाग्नि ही भड़की। तोमरों पर इधर उधर से अन्य राजपूत राज्यों के आक्रमण होने लगे। तँवरों ने इनका यथाशक्ति उत्तर दिया। संवत् 1189 (सन् 1132) में रचित श्रीधर कवि के पार्श्वनाथचरित् से प्रतीत होता है कि उस समय तोमरों की राजधानी दिल्ली समृद्ध नगरी थी और तँवरराज अनंगपाल अपने शौर्य आदि गुणों के कारण सर्वत्र विख्यात था। द्वितीय अनंगपाल ने मेहरोली के लौह स्तंभ की दिल्ली में स्थापना की। शायद इसी राजा के समय तँवरों ने अपनी नीति बदली। अपने राजपूत पड़ोसियों से उन्होंने युद्ध चालू रखा किंतु मुसलमानों से संधि कर ली।
इस नई नीति से क्रुद्ध होकर चौहानों ने दिल्ली पर और प्रबल आक्रमण किए। चौहान राजा बीसलदेव तृतीय न संवत् 1208 (सन् 1151 ईo) में तोमरों को हरा कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इसके बाद तँवर चौहानों के सामंतों के रूप में दिल्ली में राज्य करते रहे। पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद दिल्ली पर मुसलमानों का अधिकार हुआ।
फिरोजशाह तुगलक के समय ग्वालियर पर तँवरों की एक दूसरी शाखा ने अधिकार किया। इसने यहाँ लगभग 150 वर्ष तक राज्य किया। तंवरराज रामसाह महाराणा प्रताप के पक्ष में लड़ता हुआ अपने दो पुत्रों सहित हल्दीघाटी के प्रसिद्ध युद्ध में काम आया। ग्वालियर के तँवरों ने कला, साहित्य और संस्कृति के सरंक्षण का पर्याप्त कार्य किया है।
जयपुर राज्य का एक भाग अब भी तँवरघाटी कहलाता है और वहाँ तँवरों के ठिकाने हैं। मुख्य ठिकाना पाटण का है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- संदर्भ ग्रंथ
दशरथ शर्मा : दिल्ली का तोमर राज्य, राजस्थान भारती, भाग 3, अंक 3, 4, पृo 1726; गौरीशंकर हीराचंद ओझा : राजपूताने का इतिहास, पहला भाग, पृo 264-268।