धनुस्तंभ
धनुस्तंभ
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 162 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | गोकुलदास अग्रवाल |
धनुस्तंभ (Tetanus) वह संक्रामक रोग है, जो क्लाउस्ट्रीडियम टेटानि (Cloustridium tetani) नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न विष से होता है तथा जबड़े एवं शरीर की अन्य मांसपेशियों के अत्यधिक तनाव और आकर्ष के रूप में प्रकट होता है।
प्राचीन साहित्य में भी इस रोग का उल्लेख मिलता है। हिपोक्रेटीस, एरेटियस तथा जॉन आर्डरने ने भी इस रोग का वर्णन किया है। हिपोक्रेटीस का पुत्र भी इस रोग का शिकार हुआ था।
धनुस्तंभ जीवाणु साधारण सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखा जा सकता है। इसका आकार 4-5 म्यू लंबा तथा 0.3 से 0.8 म्यू तक चौड़ा होता है (म्यू. या माइक्रोन एक मिलीमीटर का हजारवाँ हिस्सा होता है)। यह जीवाणु ऑक्सीजन रहित वातावरण में ही फलता फूलता है। विपरीत परिस्थिति में यह बीजाणु (spore) के रूप में हो जाता है। वर्धी (vegetative) रूप में यह सचल होता है तथा इसके शरीर के चारों ओर छोटे छोटे रोएँ होते हैं। बीजाणु शरीर के एक छोर पर बनता है और उस समय जीवाणु का रूप दियासलाई की तीली की भाँति हो जाता है। बीजाणु के रूप में यह जीवाणु बहुत समय तक जीवित रह सकता है तथा उष्मा, सूर्यकिरण या रसायनक द्वारा बीजाणु को नष्ट कर सकना आसान नहीं होता।
बीजाणु के रूप में ये जीवाणु मिट्टी की ऊपरी सतह में निवास करते हैं। उष्ण प्रदेशों के खाद दिए तथा बोए हुए खेत इनके प्रिय स्थान हैं। ये मनुष्य, गाय, बैल तथा कुछ अन्य जानवरों की अँतड़ियों में बिना रोग उत्पन्न किए विद्यमान रहते हैं तथा मल के साथ बाहर आते हैं। अवसर पाकर ये मनुष्य, घोड़े, मेमने आदि के शरीर के भीतर पहुँच जाते हैं तथा धनुस्तंभ रोग उत्पन्न करते हैं।
मनुष्य के शरीर में प्रवेश पाने के लिए, इन्हें त्वचा में कोई रास्ता चाहिए, जो चोट लगने, जल जाने या कुचल जाने से बन सकता है। कभी कभी शल्य क्रिया में प्रयुक्त धागों (catgut) के साथ भी ये शरीर के भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं। गहरे घावों में रहना ये जीवाणु पसंद करते हैं, वैसे साधारण छिल जाना भी इनके प्रवेश के लिए पर्याप्त होता है।
घाव में अनुकूल स्थिति पाकर ये बीजाणु से वर्धी रूप में आ जाते हैं तथा अपनी संख्यावृद्धि प्रारंभ कर देते हैं। यहीं ये एक बहिर्विष, टिटैनो स्पैस्मिन (Tetano spasmin), उत्पन्न करते हैं, जो विलेय होता है। यह विष रक्त एवं स्नायु रेशों द्वारा मांसपेशियों तथा मेरुरज्जु तक पहुँचता है। यही रोग का कारण बनता है।
इस रोग का उद्भवनकाल (incubation period), अर्थात् जीवाणु के शरीर में प्रवेश तथा रोग के लक्षण प्रकट होने के बीच का समय, साधारणतया दो से लेकर 14 दिन तक होता है। अधिकतम 100 दिन भी हो सकता है। उद्भवनकाल जितना अधिक होगा रोगी के स्वस्थ होने की संभावना भी उतनी ही अधिक होगी।
धनुस्तंभ के पूर्वसूचक लक्षण
बेचैनी, घबराहट, आशंका, एकाग्रता का अभाव तथा शांत खड़े रहने में कठिनाई आदि पूर्वलक्षण हैं। इसके बाद जबड़े में कुछ जकड़न सी अनुभव होती है, मुँह खोलने में कष्ट होता है तथा भोजन करना कठिन हो जाता है। इसीलिए यह बीमारी अंग्रेजी में 'लॉक जा' (Lock jaw) कहलाती है। चेहरे की मांसपेशियों की जकड़न या खिंचाव से विद्रूपता का जो भाव आ जाता है वह राइसस सारडोनिकस (Risus sardonicus) कहलाता है। यह जकड़न और खिंचाव गले, वक्ष, उदर तथा ऊर्ध्व एवं निम्न शाखाओं पर फैल जाता है, साथ ही आकर्ष या ऐंठन भी प्रारंभ हो जाती है। आकर्ष में झटके के साथ संपूर्ण शरीर की मांसपेशियाँ तन जाती हैं, फिर कुछ ही देर बाद ढीली पड़ जाती हैं। ये झटके अनियमित अंतर पर आते हैं। कभी कभी इस ऐंठन से हड्डी भी टूट जाती है। रोगी की साँस रुक सकती है, चेहरा पीला पड़ सकता है तथा मृत्यु हो सकती है। यह ऐंठन थोड़ी ही उत्तेजना से प्रारंभ हो जाती है।
कभी कभी इस ऐंठन में रोगी का शरीर इतना मुड़ जाता है कि धनुषाकार हो जाता है। इसीलिए इसे धनुस्तंभ, या धनुष्टंकार, कहते हैं। इस ऐंठन में अत्यंत तीव्र वेदना होती है। सबसे कष्टप्रद बात तो यह है कि रोगी अंत तक संचेतन रहता है। स्वेद अधिक मात्रा में बनता है और ताप पहले साधारण रहता है, फिर बढ़ जाता है।
धनुस्तंभ कई प्रकार का होता है। जैसे-
- उग्र धनुस्तंभ (Acute Tetanus) - जब उद्भवन काल 15 दिनों से कम हो।
- दीर्घकालिक धनुस्तंभ (Chronic Tetanus) - जब उद्भवन काल 15 दिनों से अधिक हो। इसमें रोगी के नीरोग होने की संभावना अधिक होती है।
- विलंबित धनुस्तंभ (Delayed Tetanus) - जब चोट सूखने के बहुत दिनों बाद वह घाव पुन: खोला जाए तथा धनुस्तंभ के जीवाणु इतने तक सुप्त रहने के पश्चात् पुन: जाग्रत होकर रोग उत्पन्न करें।
- स्थानीय धनुस्तंभ (Local Tetanus) - जब केवल घाव के चारों ओर की मांसपेशियों पर प्रभाव पड़े।
- शिर धनुस्तंभ (Head Tetanus) - जब चेहरे की किसी चोट के कारण आननतंत्रिका (facial nerve) में सूजन आ जाती है तथा एक ओर की मांसपेशियों को लकवा मार जाता है।
- कंदीय धनुस्तंभ (Bulbar Tetanus) - इसमें निगलने तथा साँस लेने की मांसपेशियाँ प्रभावित होती हैं तथा मृत्यु अवश्यंभावी होती है।
- नवजात शिशु का धनुस्तंभ (Tetanus Neonatorum) - जब नवजात शिशु के नाभि के घाव द्वारा इस रोग के जीवाणु प्रवेश करें। साधारणतया यह घातक होता है।
एक रोग, जिसके लक्षण इस रोग से मिलते हैं, कुचले (strychnine) के विष द्वारा उत्पन्न होता है। इस विष के प्रभाव से भी मांसपेशियों में ऐंठन होती है, किंतु यह पहले शाखाओं की मांसपेशियों में प्रारंभ होती है और ऐंठन के बाद मांसपेशियाँ मुलायम हो जाती हैं, जबकि धनुस्तंभ में ऐसा नहीं होता।
धनुस्तंभ रोग में अन्य कई जटिलताएँ भी उत्पन्न हो सकती हैं, जैसे न्यूमोनिया (pneumonia), दाँत, मुँह, जिह्वा की चोट, हड्डी टूटना, ज्वर, मस्तिष्क में रक्तस्राव, दम घुटना आदि।
रोग निरोधन
इस रोग से बचने के लिए दो प्रकार की रोगप्रतिरोधक-शक्ति तैयार की जाती है।
- सक्रिय (active)
- निष्क्रिय (passive)।
सक्रिय प्रतिरक्षण
ऐसे व्यक्तियों को जिन्हें उन परिस्थितियों में कार्य करना पड़ता है जहाँ इस रोग का भय हो, जैसे सैनिक, किसान, मजदूर, खिलाड़ी आदि, टिटैनस, टॉक्सॉयड के, जो धनुस्तंभ विष का परिवर्तित रूप है और जो रोग प्रतिरोधक शक्ति उत्पन्न कर सकता है किंतु रोग नहीं, तीन इंजेक्शन आठ सप्ताह तक तथा नौ माह के अंतर पर दिए जाते हैं। ये टॉक्सॉयड शरीर के भीतर रोग-प्रतिरक्षाशक्ति उत्पन्न करते हैं जिसे आवश्यकता पड़ने पर प्रत्येक चार वर्ष पर एक इंजेक्शन दे देने पर जीवन पर्यात बनाए रखा जा सकता है।
निष्क्रिय प्रतिरक्षण
सक्रिय प्रतिरक्षण के अभाव में जब किसी व्यक्ति को ऐसी परिस्थिति में चोट लगे जहाँ धनुस्तंभ की आशंका हो तो 3000 अंतर्राष्ट्रीय यूनिट ऐटि टिटैनिक सीरम (A. T. S.) का इंजेक्शन देना आवश्यक है। इसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता 3 सप्ताह से अधिक नहीं रहती।
प्रथम विश्वयुद्ध में निष्क्रिय प्रतिरक्षण तथा द्वितीय विश्वयुद्ध में सक्रिय प्रतिरक्षण का प्रयोग किया गया था, जिनसे धनुस्तंभ के रोगियों की संख्या अत्यंत अल्प रही। सक्रिय प्रतिरक्षण अब सैनिकों के लिए अनिवार्य कर दिया गया है।
चिकित्सा
चिकित्सा का सबसे महत्वपूर्ण अंग है धनुस्तंभ विषमार (antitetanic serum) की पर्याप्त मात्रा - एक लाख से दो लाख अंतरर्राष्ट्रीय यूनिट तक। इस इंजेक्शन के एक घंटे बाद ही चोट के स्थान या घाव की सफाई तथा मलहम पट्टी होनी चाहिए। जीवाणुनाशक ओषधियाँ, जैसे पेनिसिलीन, उचित मात्रा में इंजेक्शन द्वारा दी जाती हैं। रोगी को शांत वातावरण में रखा जाता है। आवश्यकता पड़ने पर नाक से नली डालकर द्रव के रूप में खाद्यपदार्थ रोगी के पेट में पहुँचाए जाते हैं। रोगी को शांत रखने के लिए पैरैल्डिहाइड, ऐवरटीन, क्लोरल-ब्रोमाइड, लारगैक्टिल आदि दवाओं का प्रयोग होता है। मांसपेशियों को जकड़न रोकने के लिए माइनेसिन का उपयोग किया जाता है। यदि रोग में कोई जटिलता उत्पन्न होती है, तो उसकी उचित चिकित्सा की जाती है। आजकल धनुस्तंभ के रोगी को दवा के द्वारा लगातार बेहोश रखा जाता है तथा कृत्रिम रूप से साँस लेने तथा भोजन देने पर प्रबंध कर दिया जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ