भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 108

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अध्याय-3
कर्मयोग या कार्य की पद्धति फिर काम किया ही किसलिए जाए

  
तुलना कीजिएः ’’जीवन के ये दो प्रकार हैं, जो दोनों ही वेदों द्वारा समर्थित हैं- एक है प्रवृत्तिमूलक मार्ग और दूसरा निवृत्तिमूलक मार्ग। ’’[१] जीवन की इन दोनों पद्धतियों का मूल्य समान है। गुरु इस बात को स्पष्ट करता है कि ज्ञान या बुद्धि का कर्म से कोई विरोध नहीं है। शंकराचार्य ने इस बात को स्वीकार किया है कि कर्म ज्ञान के साथ रह सकता है । कर्म को ज्ञान प्राप्त करने के साधन के रूप में नहीं अपनाया जाता, अपितु साधारण लोगों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करने के रूप में अपनाया जाता, अपितु साधारण लोगों के कर्म में, जैसे कि गीता के उपदेश करने वाले कृष्ण के कर्म में, आत्म भावना और कर्मफल की इच्छा का अभाव रहता है। [२]

4.न कर्मणामनारम्भान्नैष्कम्र्यं पुरुशोअश्नुते ।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।।
कर्म न करने से ही कोई व्यक्ति कर्म से मुक्ति नहीं पा सकता। और न केवल (कर्म के) संन्यास से ही उसे पूर्णता (सिद्धि) प्राप्त हो सकती है। नैष्कम्र्य वह दशा है, जिसमें मनुष्य पर कर्म का कोई प्रभाव नहीं होता। प्राकृतिक नियम यह है कि हम अपने कर्म के फलों द्वारा बन्धन में पड़ते हैं। प्रत्येक क्रिया की एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है और वह बन्धन का कारण बन जाती है, जिससे आत्मा इस नाम-रूपमय जगत् में फंस जाता है और यह प्रतिक्रिया संसारसे ऊपर उठने के द्वारा आत्मा के भगवान् के साथ संयोग में बाधक बन जाती है। जिस चीज की आवश्यकता बताई गई है, वह कर्मों का त्याग नहीं, अपितु स्वार्थ-लालसा का त्याग है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. द्वाविगावथ पन्थानौ यस्मि वेदाः प्रतिष्ठिताः । प्रवृत्तिलक्षणो धर्मः, निवृत्तिश्च विभाषितः ।। - महाभारत, शान्तिपर्व, 240 ,60
  2. अभिनवगुप्त ने यह श्‍लोक उद्धत किया है: न क्रियारहितं ज्ञानं न ज्ञानरहिता क्रिया। ज्ञानक्रियाविनिष्पनः आचार्यः पुशपाशहा ।। - भगवद्गीता पर शंकराचार्य की टीका, 2,11

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