भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 127

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-4
ज्ञानमार्ग ज्ञानयोग की परम्परा

  
7.यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
जब भी कभी धर्म का हृास होता है और अधर्म की वृद्धि होती है, हे भारत (अर्जुन), तभी मैं (अवतार रूप में) जन्म लेता हूँ। ’’जब भी धर्म क्षीण होने लगता है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब सर्वशक्तिमान् हरि जन्म धारण करता है।’[१] जब भी जीवन में कोई गम्भीर तनाव आ जाता है, जब एक प्रकार का सर्वव्यापी भौतिकवाद मानवीय आत्माओं के हृदयों पर आक्रमण करने लगता है, तब समतुलन को बनाए रखने के लिए प्रत्युत्तर देने वाली ज्ञान और धर्म की अभिव्यक्ति आवश्यक होती है। भगवान् यद्यपि अजन्मा और अमर है, फिर भी वह अज्ञान और स्वार्थ की शक्तियों को परास्त करने के लिए मानवीय शरीर में प्रकट होता है। [२]अवतार का अर्थ है उतरना, वह जो नीचे उतरा है। दिव्य भगवान् संसार को एक ऊंचे स्तर तक उठाने के लिए पार्थिव स्तर पर उतर आता है। जब मनुष्य ऊंचा उठता है, तब परमात्मा नीचे उतर आता है। अवतार का उद्देश्य एक नये संसार का, एक नये धर्म का उद्घाटन करना है। अपने उपदेश और उदाहरण द्वारा वह यह प्रदर्शित करता है। कि किस प्रकार मनुष्य अपने-आप को जीवन के उच्चतर स्तर तक उठा सकता है। धर्म (सही) और अधर्म (गलत) के बीच का प्रश्न निर्णायक प्रश्न है। परमात्मा धर्म के पक्ष में कार्य करता है। प्रेम और दया अन्ततोगत्वा द्वेष और क्रूरता की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हैं। धर्म अधर्म को जीत लेगा और सत्य की असत्य पर विजय होगी। मृत्यु, रोग और पाप के पीछे काम कर रही शक्तियाँ उस वास्तविकता द्वारा परास्त कर दी जाएंगी, जो सतृ, चित् और आनन्द है।धर्म का शाब्दिक अर्थ है- वस्तु हया प्राणी की विशिष्टता (भूतवेशिष्ट्य)। प्राणी का मूल स्वभाव ही उसके व्यवहार के रूप का निर्धारण करता है। जब तक हमारा आचरण हमारी मूल प्रकृति के अनुकूल है, तब तक हम सही ढंग से कार्य कर रहे हैं। अपनी प्रकृति के साथ अनुकूल न होना अधर्म है। यदि विश्व की समस्वरता सब प्राणियों के उनकी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुकूल होने से उत्पन्न होती है, तो विश्व विसंवादिता उन प्राणियोंके अपनी प्रकृति के प्रतिकूल होने से उत्पन्न होती है। जब हम अपनी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करते हैं और विसमतुलना उत्पन्न कर देते हैं, तो परमात्मा अलग खड़ा देखता नहीं रहता। ऐसा नहीं है कि वह संसार में केवल चाबी भर देता हो और उसके बाद इसे सही पटरी पर चलाकर फिर इसे अपने-आप लुढ़कता जाने देता हो। उसका प्रेममय हाथ सारे समय इसे सही दिशा में चलाता रहता है।धर्म की धारणा ऋत के विचार का ही विकास है, जो ऋग्वेद में सांसरिक और नैतिक व्यवस्था का द्योतक है। ऋत, जो संसार को तार्किक दृष्टि से महत्व और नैतिक दृष्टि से ऊंचा स्थान प्रदान करता है, वरुण द्वारा रक्षित है। गीता का परमात्मा धर्म का रक्षक है, शाश्वत धर्मगोप्ता (11,18), अच्छाई और बुराई से परे विद्यमान ऐसा परमात्मा नहीं, जो बहुत दूर हो और जिसे अधर्म के साथ चल रहे मनुष्य के संघर्षां की परवाह न हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ’ यदा यदेह धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्च पाप्मनः । तदा तु भगवानीश आत्मानं सृजते हरिः ।। - भागवत, 9, 24, 56
  2. तुलना कीजिए, विष्णुपुराण: यत्रावतीर्ण कृष्णाख्यं परं ब्रह्म नराकृतिः।

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