भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 134

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अध्याय-4
ज्ञानमार्ग ज्ञानयोग की परम्परा

  
17.कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्य बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ।।
मनुष्य को यह समझना चाहिए कि कर्म क्या है। इसी प्रकार उसे यह भी समझना चाहिए कि गलत कर्म क्या है; और उसे यह भी समझना होगा कि अकर्म क्या है। कर्म की गति को समझना बहुत कठिन है। सही मार्ग कौन-सा है, यह साधारणतया स्पष्ट नहीं होता। हमारे समय के विचार, परम्पराओं की रूढ़ियां और अन्तरात्मा की आवाज आपस में मिल जाती हैं और हमें भ्रान्त कर देती हैं। इस सबके बीच में ज्ञानी मनुष्य अपरिवर्तनशील सत्यों के अनुसार अपने उच्चतम विवके की अन्तर्दृष्टि द्वारा मार्ग खोजता है।
 
18.कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ।।
जो मनुष्य कर्म में अकर्म को देखता है और अकर्म में कर्म को देखता है, वह मनुष्यों में ज्ञानी मनुष्य है। वह योगी है और उसने अपने सब कर्मों को कर लिया है।
जब तक हम अनासक्त भावना से कर्म करते हैं, हमारा मानसिक सन्तुलन विचलित नहीं होता। हम उन कर्मों से दूर रहते हैं, जो इच्छा से उत्पन्न होते है और हम भगवान् के साथ एकात्म होकर अपना कत्र्तव्य करते जाते हैं। इस प्रकार सच्ची अक्रियता अपनी आन्तरिक शान्ति को बनाए रखना और आसक्ति से मुक्त रहना है। अकर्म का अर्थ है- कर्म के परिणामस्वरूप होने वाले बन्धन का अभाव; क्यों कि वह कर्म आसक्ति के बिना किया जाता है। जो व्यक्ति अनासक्त होकर कर्म करता है, वह बन्धन में नहीं पड़ता। जब हम शान्त बैठे होते हैं और कोई बाहरी कर्म नहीं करते, तब भी हम कर्म कर रहे होते हैं। अष्टावक्रगीता ये तुलना कीजिएः ’’मुर्ख लोग दुराग्रह और अज्ञान के कारण जो कर्म से विमुख होते हैं, उनका वह विमुख होना भी कर्म ही है। ज्ञानी लोगों का कर्म (अर्थात् उनका निष्काम कर्म) वही फल प्रदान करता है, जो निवृत्ति से प्राप्त होता है।’’ [१]शंकराचार्य ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि आत्मा में कोई क्रिया नहीं होती। परन्तु शरीर में निष्क्रियता कभी नहीं रहती, तब भी नहीं, जब कि शरीर देखने में निष्क्रिय मालूम होता है।
राममानुज का मत है कि अकर्म आत्मज्ञान है। ज्ञानी मनुष्य वह है, जो सच्चे कर्म में ही ज्ञान को देखता है। उसके लिए ज्ञान और कर्म दोनों साथ रहते है
मध्य अकर्म आत्मा की निष्क्रियता और विष्णु की सक्रियता है। इसलिए ज्ञानी मनुष्य वह है, जो भगवान् सक्रियता को देखता है, चाहे व्यक्ति सक्रिय हो या न हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. निवृत्तिरपि मूढ़स्य प्रवृत्तिरुपजायते। प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफभागिनी।। - 18,61

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