भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 95

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

  
44.भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।
जो लोग आनन्द और शक्ति प्राप्त करने में लगे रहते हैं और जिनके मन (वेद के) इन शब्दों द्वारा प्रेरति रहते हैं, उनकी भले और बुरे का विवके करने वाली बुद्धि आत्मा में (या एकाग्रता में ) भलीभाँति स्थिर नहीं होती। उनका मन परमात्मा में एकाग्र नहीं होगा। [१] बुद्धि, जिसे भलीभाँति प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, अपने सामान्य कत्र्तव्य से विचलित हो जाती है।

45 त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निद्र्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।।
वेदों का विषय तीन गुणों की क्रिया से सम्बन्धित है। परन्तु हे अर्जुन, तू इस त्रिगुणात्मक प्रकृति से स्वतन्त्र हो जा। तू सब द्वन्द्वों से (परस्पर विरोधी युग्मों से) मुक्त हो जा और दृढ़तापूर्वक सत्वभाव में स्थित हो जा। अर्जुन और रक्षण की चिन्ता छोड़ दे और आत्मा को प्राप्त कर ।
नित्ससत्व: अर्जुन से कहा गया है कि वह गुणों से ऊपर उठ जाए और दृढ़तापूर्वक सत्व में स्थिर हो जाए। अर्जुन से सत्व-गुण के परे पहुँचने को नहीं कहा गया, अपितु शाश्वत सत्य तक पहुँचने को कहा गया है। परन्तु शंकराचार्य और रामानुज ने यहाँ इसका अर्थ सत्व-गुण दिया है। सांसरिक जीवन के निर्वाह के लिए आवश्यक कर्मकाण्डीय विधियां इन गुणों का परिणाम हैं। पूर्णता का उच्चतर पुरस्कार प्राप्त करने के लिए हमें अपना ध्यान परम वास्तविकता की ओर लगाना होगा। परन्तु मुक्त व्यक्ति का आचरण बाह्य रूप से वैसा ही होगा, जैसा कि उस व्यक्ति का होता है, जो सत्व-गुण की दशा में स्थित है। उससे कर्म शान्त और अनासक्त होंगे। वह कर्मफल की इच्छा के बिना कर्म करता है। वेद के कर्मकाण्ड के अनुयायी ऐसा नहीं करते।
योगक्षेम का अर्थ- नई वस्तुओं की प्राप्ति और प्राप्त हो चुकी वस्तुओं की रक्षा। [२] आत्मवान्ः आत्म वाला, सदा सचेत। [३]आपस्तम्ब का कथन है कि आत्मा को प्राप्त करने से अधिक ऊंची वस्तु और कोई नहीं है।[४] उस आत्मा को जानना, जिसका न आदि है, न विनाश ; उस आत्मा को, जो अमर है और जिसे हम नहीं जानते, जानना मनुष्य का सच्चा लक्ष्य है। यदि हम इस पक्ष को दबा देते हैं, तो हम उपनिषद् के शब्दों में आत्मा के घातक हैं।[५]

 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीधर ने तुलना कीजिएः समाधिश्चित्तैकाग्रयम्, परमेश्वराभिमुखत्वम् इति यावत्ः तस्मिन् निश्चयात्मिका बुद्धिस्तु न विधीयते ।
  2. अनुपात्तस्य उपादानं योग; उपात्तस्य रक्षण क्षेमः ।
  3. अप्रमत्तश्च भव।- शंकराचार्य।
  4. आत्मलाभान्न परं विद्यते। - धर्मसूत्र 1,7,2
  5. आत्महनो जनाः ।

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