भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-115

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भागवत धर्म मिमांसा

6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति

 
पहले तीन श्लोकों में उद्धव भगवान् से प्रार्था कर रहे हैं :
(19.1) ज्ञानं विशुद्धं विपुलं यथैतद्
वैराग्य-विज्ञान-युतं पुराणम् ।।
आख्याहि विश्वेश्वर! विश्वमूर्ते!
त्वद्‍भक्ति-योगं च महद्-विमृग्यम् ।।[१]

ज्ञानम् आख्याहि –मुझे ज्ञान बताओ। यथैतद् –यह ज्ञान कैसा है?विशुद्धं विपुलं ज्ञानम् –ज्ञान विशुद्ध और विपुल दोनों है। यहाँ विशुद्ध और विपुल का विरोध नहीं। हम सोचते हैं कि ग्रामदान व्यापक चाहेंगे तो उसमें अशुद्धियाँ आएँगी। हजारों ग्रामदान हों और अच्छे भी हों, क्या यह संभव है? यानी विपुलता और विशुद्धता में हम भेद करते हैं। लेकिन यहाँ कहा है कि आत्मज्ञान शुद्ध होता है और व्यापक भी। फिर कहा :वैराग्य-विज्ञान-युतम् –ज्ञान बताइये वैराग्य-विज्ञानयुक्त। फिरपुराणम् –कहा। नया नहीं, पुराना ज्ञान। पुराण यानी कैसा? मुरब्बे जैसा। मुरब्बा कल बनाया और आज खाया, ऐसा प्रायः नहीं होता। पुराण यानी भीना हुआ। मराठी में इसे ‘मुरणें’ कहते हैं। यानी अनुभव की कसौटी पर कसा हुआ ज्ञान। कोई नयी बात निकली तो वह ठीक है या बे-ठीक, कह नहीं सकते। इसलिए कहा :पुराणं ज्ञानम् –अनुभव की कसौटी पर कसा हुआ ज्ञान। विश्वेश्वर! विश्वमूर्ते!ये दो सम्बोधन है। हे विश्वचालक और हे विश्वरूपमूर्ति!‘विश्वचालक’ कहने पर भगवान् विश्व के ऊपर हो जाते हैं, पर ‘विश्वमूर्ति’ कहने से विश्वमय हो गये। भगवान् विश्व में ओतप्रोत हैं। भगवान् अपने चालक बनते हैं, यानी चलानेवाले वे हैं और चलानेवाले भी वे ही हैं। और कौन-सी आवश्यक बात सिखाने के लिए उद्धव ने भगवान् से कहा :त्वद्‍भक्ति-योगम् –अपना भक्तियोग सिखाओ। वह भक्तियोग कैसा है? महद्-विमृग्यम् –महान् पुरुषों द्वारा शोधनीय। विमृग्य यानी शोधनीय। भक्तियोग का शोधन अभी तक पूरा नहीं हुआ है। आज भी महापुरुष उसका शोधन करते ही जा रहे हैं, खोज जारी ही है। यहाँ भक्तियोग का विशेषण ‘महद्-विमृग्यम्’ है और ज्ञान के विशेषण ‘विशुद्धं, विपुलं, वैराग्य-विज्ञान-युतम्’ और ‘पुराणम्’। इसमें एक बात कही है कि भक्तियोग आखिरी यानी नवीनतम चाहिए। परमात्मा की प्राप्ति के लिए सबसे अच्छी उपासना कौन-सी? आज जो चल सकती है, वही उपासना अच्छी है। पुरानी उपसना काम की नहीं। आज अलग-अलग देवताओं की उपासना चलती है, शालग्राम की उपासना चलती है, शिव की उपासना चलती है या परिश्रम – खेती की उपासना चलती है – पर जो आज के लिए अनुकूल उपासना होगी, वही उपासना अच्छी मानी जायेगी। लेकिन ज्ञान तो पुराना ही चाहिए, वह नया नहीं चलेगा। आज का आज, ताजा ज्ञान नहीं चलेगा। अब उद्धव अपना वर्णन कर रहे हैं

 (19.2) ताप-त्रयेणाभिहतस्य घोरे
संतप्यमानस्य भवाध्वनीश!
पश्यामि नान्यच्छरणं तवांघ्रि-
द्वंद्वातपत्रादमृताभिवर्षात् ।।[२]

हम ताप-त्रयेणाभिहत –तीनों तापों से संतप्त हैं। भवाध्वनि – अध्वा यानी मार्ग, संसाररूपी मार्ग में थके हुए हैं। संसार-मार्ग कैसा है?घोर है। तुलसीदासजी ने भी कहा है :संसार-कांतार अति घोर गंभीर। कान्तार यानी जंगल। घोर यानी घना। संसार अत्यन्त घना जंगल है। उसमें शेर रहते होंगे, और दूसरे हिंसक पशु भी होंगे। तुलसीदासजी तो कवि हैं। उन्होंने संसार का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। जमशेदपुर जैसे शहर में रहनेवाले लोग कबूल नहीं करेंगे कि संसार-मार्ग घोर है। यहाँ तो सुन्दर रास्ते हैं, अच्छे मकान हैं, बड़ी-बड़ी नौकरियाँ मिलती हैं, तो कौन कहेगा कि संसार घोर है? लेकिन तुलसीदासजी कहते हैं कि संसार घोर और गम्भीर है। हम तीनों तापों से तपे हुए हैं, संतप्त हैं। हमें आपके सिवा दूसरा कोई आश्रय नहीं दीखता। आपका चरण-युगलरूपी छाता ही हमारा आधार है। तभी हम उस धूप से बच पायेंगे। ‘आतप’ यानी धूप और ‘आतपत्र’ यानी छाता। वह भी सामान्य छाता नहीं। ऐसा सुन्दर कि उसमें से अमृत की बूँदें टपक रही हैं। अद्‍भुत छाता है! धूप से बचाता है और अमृत की वर्षा भी करता है!नान्यत् शरणम् –आपके सिवा और कोई आधार नहीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.19.8
  2. 11.19.9

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