महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 162 श्लोक 51-62
द्विषष्ट्यधिकशततम (162) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
मूँछ और दाढ़ी बनवाते समय मंगलसूचक शब्दों का उच्चारण करना चाहिये। छींकनेवालों को । (शंतजीव आदि कहकर) आशीर्वाददेना तथा रोगग्रस्त पुरूषों का उनकी दीर्घायु होने की शुभ कामना करते हुए अभिनन्दन करना चाहिये। युधिष्ठिर! तुम कभी बड़ेसे बड़े संकट पड़ने पर किसी श्रेष्ठ पुरूष के प्रति तुमको प्रयोग न करना। किसी को तुम कहकर पुकारना या उसका वध कर डालना- इन दोनों में विद्धान पुरूष कोई अन्तर नहींमानते। जो अपने बराबर के हों, अपने से छोटे हों अथवा शिष्य हों, उनको ‘तुम’ कहने में कोई हर्ज नहीं है। पापकर्मी पुरूष का हृदय ही उसके पाप को प्रकट कर देता है। दृष्ट मनुष्य जान-बूझकर किये हुए पापकर्मी को दूसरों से छिपाने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु महापुरूषों के सामने अपने किये हुए पापों को गुप्त रखने के कारण वे नष्ट हो जाते है। ‘मुझे पाप करते समय न मनुष्य देखते हैं और न देवता ही देख पाते हैं।’ ऐसा सोचकर पापसे आच्छादित हुआ पापात्मा पुरूष पापयोनि में जन्म लेता है। जैसे सूदखोर जितने ही दिन बीतते हैं, उतनीही ही वृद्धि की प्रतीक्षा करता है। उसी प्रकार पाप बढ़ता है, परंतु यदि उस पापको धर्मसे दौा दिया जाय तो वह धर्म की वृद्धि करता है। जैसे नमक की डली जल में डालने से गल जाती है, उसी प्रकार प्रायश्चित करने से तत्काल पाप का नाश हो जाता है। इसलिये अपने पाप को न छिपाये। छिपाया हुआ पाप बढ़ता है। यदि कभी पाप बन गया हो तो उसे साधु पुरूषों से कह देना चाहिये। वे उसकी शांति कर देते हैं। आशा से संचित किये हुए द्रव्यको काल ही उपभोग करता है। उस मनुष्य शरीर से वियोग होने पर उस धन को दूसरे लोग प्राप्त करते हैं। मनीषी पुरूष धर्म को समस्त प्राणियों का हृदय कहते हैं। अत: समस्त प्राणियों को धर्मका आश्रम लेना चाहिये। मनुष्य को चाहिये कि वह अकेला ही धर्मका आचरण करे। धर्मध्वजजी (धर्मका दिखावा करने वाला) न बने। जो धर्मको जीविकाका साधन बनातेहैं, उसके नाम पर विकास चलाते है, वे धर्म के व्यवसायी हैं। दम्भका परित्याग करके देवताओं की पूजा करें। छल-कपट छोड़कर गुरूजनों की सेवा करेंऔर परलोक की यात्रा के लिये दान नाम निधिका संग्रह करें, अर्थात पारलौकिक लाभ के लिये मुक्तहस्त होकर दान करें।
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