महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 85 श्लोक 62-93
पन्चाशीतितमो (85) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
‘निष्पाप अग्निदेव ! इसने मुझे मूर्च्छित- सी कर दिया है। मेरा स्वास्थ्य अब पहले जैसा नहीं रह गया है। भगवन। मैं बहुत घबरा गयी हूं। मेरी चेतना लुप्त- सी हो रही है। ‘तपने वालों में श्रेष्ठ पावक ! अब मुझमें इस गर्भ को धारण करने की शक्ति नहीं रह गयी है। मैं असह्य दुःख से ही इसे त्यागने जा रही हूं। स्वेच्छा से किसी प्रकार नहीं । ‘देव। विभावसो ! महाद्युते ! इस तेज के साथ मेरा कोई संपर्क नहीं है। इस समय जो अत्यन्त सूक्ष्म सम्बन्ध स्थापित हुआ है वह भी देवताओं पर आयी हुई विपत्ति को टालने के उद्वेश्य से है। ‘हुताशन ! इस कार्य में यदि कोई गुण या दोषयुक्त परिणाम हो या केवल धर्म या अधर्म हो, सबका उत्तरदायित्व आप पर ही हैं, ऐसा मैं मानती हूं। तब अग्नि ने गंगाजी से कहा- देवी ! यह गर्भ मेरे तेज से युक्त है, इससे महान गुणयुक्त फल का उदय होने वाला है। इसे धारण करो, धारण करो। ‘देवी ! तुम सारी पृथ्वी को धारण करने में समर्थ हो, फिर इस गर्भ को धारण करना तुम्हारे लिये कुछ असाध्य नहीं है। देवताओं और अग्नि के मना करने पर भी सरिताओं में श्रेष्ठ गंगा ने उस गर्भ को गिरिराज मेरू के शिखर पर छोड़ दिया। यद्यपि गंगाजी उस गर्भ को धारण करने में समर्थ थीं; तो भी रूद्र के तेज से पराभूत होकर बलपूर्वक उसे धारण न कर सकीं। भृगुश्रेष्ठ ! गंगाजी ने बड़े दुःख से अग्नि के समान तेजस्वी उस गर्भ को त्याग दिया। तत्पश्चात अग्नि ने उनका दर्शन किया और सरिताओं में श्रेष्ठ उन गंगाजी से पूछा- ‘देवी ! तुम्हारा गर्भ सुखपूर्वक उत्पन्न हो गया है न? उसकी कांति कैसी है अथवा उसका रूप कैसा दिखाई देता है, वह कैसे तेज से युक्त है? यह सारी बातें मुझसे कहो।' गंगा बोली- देव ! वह गर्भ क्या है सोना है, अनघ! वह तेजमय हू - बहू आप के ही समान है। स्वर्ण जैसी निर्मल कांति से प्रकाशित होता है और सारे पर्वत को उभ्दासित करता है। तपने वालों में श्रेष्ठ अग्निदेव। कमल और उत्पल से युक्त सराबरों के समान उसका अंग शीतल है और कदम्ब, पुष्पों के समान उससे मीठी-मीठी सुगंध फैलती रहती है । सूर्य की किरणों के समान उस गर्भ से वहां की भूमि या पर्वतों पर रहने वाले जिस किसी द्रव्य का स्पर्श हुआ, वह सब चारों ओर से सुवर्णमय दिखायी देने लगा। वह बालक अपने तेज से चराचर प्राणियों को प्रकाशित करता हुआ पर्वतों, नदियों और झरनों की ओर दौड़ने लगा था। हव्यवाहन। आपका ऐश्वर्यशाली पुत्र ऐसे ही रूपवाला है। वह सूर्य तथा आपके समान तेजस्वी और दूसरे चन्द्रमा के समान कांतिमान है। भार्गवनन्दन। ऐसा कहकर देवी गंगा वहीं अन्तर्धान को गयी और तेजस्वी अग्निदेव देवताओें का कार्य सिद्व करके उस मसय वहां से अभीष्ट देश को चले गये। इन्हीं समस्त कर्मों और गुणों के कारण देवता तथा ऋषि संसार में अग्नि को हिरण्यरेता के नाम से पुकारते हैं। उस समय अग्नि जनित हिरण्य (वसु) धारण करने के कारण पृथ्वीदेवी वसुमति नाम से विख्यात हुई।।अग्नि के अंश से उत्पन्न हुआ गंगा का वह महातेजस्वी गर्भ सरकण्डों के दिव्य वन में पहुंचकर बढने और अदभुत दिखाई देने लगा। प्रभातकाल के सूर्य की भांति अरुण कांति वाले उस तेजस्वी बालक को कृत्तिकाओं ने देखा और उसे अपना पुत्र मानकर स्तनों को दूध पिलाकर पालन-पोषन किया। इसलिये वह परम तेजस्वी कुमार ‘कार्तिकेय’ नाम से प्रसिद्व हुआ। शिव के स्कन्दित (स्खलित) वीर्य से उत्पन्न होने के कारण उनका नाम ‘स्कन्द’ हुआ और पर्वत की गुहा में निवास करने से वह ‘गुह’ कहलाया। इस प्रकार अग्नि से संतान रूप में सुवर्ण की उत्पत्ति हुई है। उसमें भी जाम्बुनद नामक सुवर्ण श्रेष्ठ है और वह देवताओं का भी भूषण है। तभी से सुवर्ण का नाम जातरूप हुआ। वह रत्नों में उत्तम रत्न और आभूषणों में श्रेष्ठ आभूषण है। वह पवित्रों में भी अधिक पवित्र तथा मंगलों में भी अधिक मंगलमय है। जो सुवर्ण है, वही भगवान अग्नि है वही ईश्वर और प्रजापति है। द्विजवरों। सुवर्ण सम्पूर्ण पवित्र वस्तुओं में अतिशय पवित्र है; उसे अग्नि और सोमरूप बताया गया है।।वसिष्ठजी कहते हैं- परशुराम ! परमात्मा ! पितामह ! ब्रम्हा का जो ब्रह्मदर्शन नामक वृतांत जो मैंने पूर्वकाल में सुना था, वह तुम्हें बता रहा हूं, सुनो- प्रभावशाली तात परशुराम ! एक समय की बात है, सबसे ईश्वर और महान देवता भगवान रूद्र वरुण का स्वरूप धारण करके वरुण के साम्राज्य पर प्रतिष्ठित थे। उस समय में उनके यज्ञ में अग्नि आदि सम्पूर्ण देवता और ऋषि पधारे। सम्पूर्ण मूर्तिमान यज्ञांग, वषट्कार, साकार साम, सहस्त्रों यजुमन्त्र तथा पद और क्रम से विभूषित ऋग्वेद भी वहां उपस्थित हुए। वेदों के लक्षण, उदात्त आदि स्वर, स्तोत्र, निरूक्त, सुरपंक्ति, आंकार तथा यज्ञ के नेत्र स्वरूप प्रग्रह और निग्रह भी उस स्थान पर स्थित थे। वेद, उपनिषद्, विद्या और सावित्री देवी भी वहां आयी थीं। भगवानशिव ने भूत, वर्तमान और भविष्य- तीनों कालों को धारण किया था। प्रभो। पिनाकधारी महादेवजी ने अनेक रूपवाले उस यज्ञ की शोभा बढायी और उन्होंने स्वयं ही अपने द्वारा अपने आपको आहुति प्रदान की।
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