महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 87 श्लोक 1-19

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सप्‍ताशीतितमो (87) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: सप्‍ताशीतितमो अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल ।

युधिष्ठिर नें कहा- धर्मात्मन ! पृथ्वीनाथ ! आपने जैसे चारो वर्णों के धर्म बताये हैं, उसी प्रकार अब मेंरे लिये श्राद्धविधि का वर्णन कीजिये। वैशम्पायनजी कहते हैं-(जनमेजय !) राजा युधिष्ठिर के इस प्रकार अनुरोध करने पर उस समय शान्तनु नन्दन भीष्म ने इस सम्पूर्ण श्राद्धविधि का इस प्रकार वर्णन आरम्भ किया । भीष्म जी बाले- शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश ! तुम श्राद्ध-कर्म की शुभविधि को सावधान होकर सुनो। यह धन, यश और पुत्र की प्रप्ति कराने वाला है। इसे पितृयज्ञ कहते हैं। देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस, पिशाच और किन्नर- इन सबके लिये पितर सदा ही पूज्य हैं। मनीषी पुरुष पहले पितरों की पूजा करके पीछे देवताओं की पूजा करते हैं। इसलिये पुरुष को चाहिये कि वह सदा सम्पूर्ण यज्ञों के द्वारा पितरों की पूजा करें। महाराज ! पितरों के श्राद्ध को अन्वाहार्य कहते हैं। अतः विशेष विधि के द्वारा उसका अनुष्ठान पहले करना चाहिये। सभी दिनों में श्राद्ध करनें से पितर प्रसन्न रहतें है। अब मैं तिथि और अतिथि के सब गुणागुण का वर्णन करूंगा। निष्पाप नरेश ! जिन दिनों में श्राद्ध करने से जो फल प्राप्त होता है, वह सब मैं यथार्थ रूप से बताऊंगा, ध्यान देकर सुनो। प्रतिपदा तिथि को पितरों की पूजा करने से मनुष्य अपने उत्तमगृह में मन के अनुरूप सुन्दर एवं बहुसंख्यक संतानों को जन्म देने वाली दर्शनीय भार्या प्राप्त करता है। द्वितीया को श्राद्ध करने से कन्याओं का जन्म होता है। तृतीया के श्राद्ध से घोड़ों की प्राप्ति होती है। चतुर्थी कों पशुओं की संख्या बढ़ती है। नरेश्‍वर ! पंचमी को श्राद्ध करने वाले पुरुषों के बहुत-से पुत्र होते हैं। षष्ठी को श्राद्ध करने वाले मनुष्य कान्ति के भागी होते हैं। राजन ! सप्तमी को श्राद्ध करने वाला कृषी कर्म में लाभ उठाता है। और अष्टमी को श्राद्ध करने वाले पुरुष को व्यापार में लाभ होता है। नवमी को श्राद्ध करने वाले पुरुष के यहां एक खुर वाले घोड़े आदि पशुओं की बहुतायत होती है और दशमी को श्राद्ध करने वाले मनुष्य के घर में गौओं की वृद्धि होती है। महाराज ! एकादशी को श्राद्ध करने वाला मनुष्य सोने-चांदी को छोड़कर शेष सभी प्रकार के धन का भागी होता है। उसके घर में ब्रह्मतेज से सम्पन्न पुत्र जन्म लेते हैं। द्वादशी को श्राद्ध करने के लिये प्रयत्न करने वाले पुरुष के यहां सदा ही मनोरम सुवर्ण चांदी तथा बहुत-से धन की प्राप्ति होती देखी जाती है। त्रयोदश को श्राद्ध करने वाला पुरुष अपने कुटुम्बीजनों में श्रेष्ठ होता है; परंतु जो चतुर्दशी को श्राद्ध करता है, उसके घर में नवयुवकों की मृत्यु अवश्‍य होती है तथा श्राद्ध करने वाला मनुष्य स्‍वयं भी युद्ध का भागी होता है ( इसलिए चतुर्दशी को श्राद्ध नहीं करना चाहिये)। अमावस्या को श्राद्ध करनें से वह अपनी सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। कृष्ण पक्ष में केवल चतुर्दशी को छोड़कर दशमी से अमावस्या तक की सभी तिथियां श्राद्ध कर्म में जैसे प्रशस्त मानी गयी है; वैसे दूसरी प्रतिपदा से नवमी तक नहीं। जैसे पूर्व (शुक्ल) पक्ष की अपेक्षा अपर (कृष्ण) पक्ष के श्राद्ध के लिये श्रेष्ठ माना है, उसी प्रकार पूर्वाह्न की अपेक्षा अपराह्न उत्तम माना जाता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत दानधर्म पर्व में श्राद्धकल्पविषयक सत्तासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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