महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 111 श्लोक 19-35

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एकादशाधिकशततम (111) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर ने पूछा- भगवन। आपके मुंह से मैंने धर्मयुक्त परम हितकर बात सुनी। अब शरीर की स्थिति जानने के लिये मेरा विचार हो रहा है । मनुष्य का स्थूल शरीर तो मर कर यहीं पड़ा रह जाता है और उसका सूक्ष्म शरीर अव्यक्त भाव को प्राप्त हो जाता है- नेत्रों की पहुंच से परे है। ऐसी दशा में धर्म किस प्रकार उसका अनुसरण करता है? बृहस्पतिजी ने कहा- धर्मराज। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, यम, बुद्वि और आत्मा ये सब सदा एक साथ मनुष्य के धर्म पर दृष्टि रखते हैं । दिन और रात भी इस जगत संपूर्ण प्राणियों के कर्मों के साक्षी हैं। इन सबके साथ धर्म भी जीव का अनुसरण करता है । महामते। त्वचा, अस्थि, मांस, शुक्र और शोणित- ये सब धातु निष्प्राण शरीर का परित्याग कर देते हैं अर्थात ये उस शरीरधारी जीवात्मा का साथ छोड़ देते हैं, एक धर्म ही उसके साथ जाता है । इसलिये धर्मयुक्त जीव ही परमगति को प्राप्त करता है। फिर परलोक में अपने कर्मों का भोग समाप्त करके प्राणी जब दूसरा शरीर धारण करता है उस समय उसके शरीर के पांचों भूतों में स्थित अधिष्ठाता देवता उस जीव के शुभ और अषुभ कर्मों को देखते हैं। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो? । तदनन्तर धर्मयुक्त वह जीव इहलोक और परलोक में सुख का अनुभव करता है। अब तुम्हे और क्या बताऊं? युधिष्ठिर ने पूछा- भगवन्। धर्म जिस प्रकार जीव का अनुसरण करता है, वह तो आपने समझा दिया अब मैं यह जानना चाहता हूं कि इस शरीर में वीर्य की उत्पत्ति कैसे होती है? बृहस्पतिजी ने कहा- शुद्वात्मन। नेरष्वर। राजेन्द्र। इस शरीर में स्थित पृथ्वी, जल, अन्न, वायु आकाश और मन के अधिष्ठाता देवता जो अन्न भक्षण करते हैं और उस अन्न से मन सहित वे पांचों भूत जब पूर्ण तृप्त होते है, तब महान रेतस (वीर्य) की उत्पत्ति होती है । राजन। फिर स्त्री-पुरूष का संयोग होने पर वही वीर्य का गर्भ का रूप धारण करता है। ये सब बातें मैंने तुम्हें बात दीं अब और क्या सुनना चाहते हो । युधिष्ठिर ने कहा- भगवन। गर्भ जिस प्रकार उत्पन्न होता है, वह आपने बताया। अब यह बताइये कि उत्पन्न हुआ पुरूष पुनः किस प्रकार बंधन में पड़ता है । बृहस्पतिजी ने कहा- राजन। जीव उस वीर्य में प्रविष्ठ होकर जब गर्भ में संनिहित होता है, तब वे पांचों भूत शरीर रूप में परिणित हो उसे बांध लेते हैं, फिर उन्हीं भूतों विलग होने पर वह दूसरी गति को प्राप्त होता है । शरीर में संपूर्ण भूतों से युक्त हुआ वह जीव ही सुख या दुःख पाता है। उस समय पांचों भूतों में स्थित उनके अधिष्ठाता देवता जीव के शुभ या अषुभ कर्म को देखते हैं। अब और क्या सुनना चाहते हो? युधिष्ठिर ने पूछा- भगवन। जीव त्वचा, अस्थि और मांसमय शरीर का त्याग करके जब पांचों भूतों के सम्बन्ध से पृथक हो जाता है, तब कहां रहकर वह सुख-दुख का उपभोग करता है? बृहस्पतिजी ने कहा- भारत। जीव अपने कर्मों से प्रेरित होकर शीघ्र ही वीर्य भाव को प्राप्त होता है और स्त्री के रज में प्रविष्ट होकर समयानुसार जन्म धारण करता है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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