महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-15

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

विविध प्रकार के कर्म् फलोंका वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-15 का हिन्दी अनुवाद

कोई मूर्ख हो या पण्डित, प्रत्येक मनुष्य दान का फल भोगता है। बुद्धि से अनपेक्षित दान भी सर्वथा फल देता ही है।उमा ने पूछा- भगवन्! देवदेवेश्वर! मनुष्यों में ही कुछ लोग बड़े मेधावी, किसी बात को एक बार सुनकर ही उसे याद कर लेने वाले और विशद अक्षर-ज्ञान से सम्पन्न होते हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य पहले गुरू की अत्यन्त सेसा करने वाले रहे हैं और ज्ञान के लिये विधिपूर्वक गुरू का आश्रय लेकर स्वयं भी दूसरों को विधि से ही अपनी विद्या ग्रहण कराते रहे हैं, अविधि से नहीं। अपने ज्ञान के द्वारा जो कभी अपनी झूठी बड़ाई नहीं करते रहे हैं, अपितु शान्त और मौन रहे हैं तथा जो जगत् में यत्नपूर्वक विद्यालयों की स्थापना करते रहे हैं, शोभने! ऐसे पुरूष जब मृत्यु को प्राप्त होकर पुनर्जन्म लेते हैं, तब मेधावी, किसी बात को एक बार ही सुनकर उसे याद कर लेने वाले और विशद अक्षर-ज्ञान से सम्पन्न होते हैं। उमा ने पूछा- देव! दूसरे मनुष्य यत्न करने पर भी जहाँ-तहाँ शास्त्रज्ञान और बुद्धि से बहिष्कृत दिखायी देते हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये।श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य ज्ञान के घमंड में आकर अपनी झूठी प्रशंसा करते हैं और ज्ञान पाकर उसके अहंकार से मोहित हो दूसरों पर आक्षेप करते हैं, जिन्हें सदा अपने अधिक ज्ञान का गर्व रहता है, जो ज्ञान से दूसरों के दोष प्रकट किया करते हैं और दूसरे ज्ञानियों को नहीं सहन कर पाते हैं, शोभने! ऐसे मनुष्य मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म लेने पर चिरकाल के बाद मनुष्य-योनि पाते हैं। देवि! उस जन्म में वे सदा यत्न करने पर भी बोधहीन और बुद्धिरहित होते हैं। उमा ने पूछा- भगवन्! कितने ही मनुष्य समस्त कल्याणमय गुणों से युक्त होते हैं। वे गुणवान् स्त्री-पुत्र, दास-दासी तथा अन्य उपकरणों से सम्पन्न होते हैं। स्थान, ऐश्वर्य तथा मनोहर भोगों और पारस्परिक समृद्धि से संयुक्त होते हैं। रोगहीन, बाधाओं से रहित, रूप-आरोग्य और बल से सम्पन्न, धन-धान्य से परिपूर्ण, भाँति-भाँति के विचित्र एवं मनोहर महल, यान और वाहनों से युक्त एवं सब प्रकार के भोगों से संयुक्त हो वे प्रतिदिन जाति-भाइयों के साथ निर्विघ्न आनन्द भोगते हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! यह मैं तुम्हें बताता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सब बातें सुनो। जो धनाढ्य या निर्धन मनुष्य पहले शास्त्रज्ञान और सदाचार से युक्त, दान करने के इच्छुक, शास्त्रप्रेमी, दूसरों के इशारे को समझकर सदा दान देने के लिये दृढ़ विचार रखने वाले, सत्यप्रतिज्ञ, क्षमाशील, लोभ-मोह से रहित, सुपात्र को दान देने वाले, व्रत और नियमों से युक्त तथा अपने दुःख के समान ही दूसरों के भी दुःख को समझकर किसी को दुःख न देने वाले होते हैं, जिनका शील-स्वभाव सौम्य होता है, आचार-व्यवहार शुभ होते हैं, जो देवताओं तथा ब्राह्मणों के पूजक होते हैं, शोभामयी देवि! ऐसे शील सदाचार वाले मानव पुनर्जन्म पाने पर स्वर्ग में या पृथ्वी पर अपने सत्कर्मों के फल भोगते हैं। वैसे पुरूष जब मनुष्यों में जन्म ग्रहण करते हैं, तब वे सभी तुम्हारे बताये अनुसार कल्याणमय गुणों से सम्पन्न होते हैं। उन्हें रूप, द्रव्य, बल, आयु, भोग, ऐश्वर्य, उत्तम कुल और शास्त्रज्ञान प्राप्त होते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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