महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-64

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

सांख्य ज्ञान का प्रतिपादन करते हुए अव्यक्तादि चौबीस तत्वों की उत्पति आदि का वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-64 का हिन्दी अनुवाद

है। नाना भावों से युक्त वह महापराक्रमी परमात्मा अकेला ही सम्पूर्ण चराचर भूतों में निवास करता है। वह न ऊपर, न अगल-बगल में और न नीचे ही कभी दिखायी देता है। वह यहाँ इन्द्रियों अथवा बुद्धि के द्वारा कदापि दिखायी नहीं देता। नौ द्वार वाले नगर (शरीर) में जाकर वह सदा नियमपूर्वक निवास करता है। सबको वश में रखता है। सम्पूर्ण लोकों में चराचर प्राणियों का शासन करने वाला ईश्वर भी वही है। उसे अणु से भी अणु और महान् से भी महान् कहते हैं। वह नाना प्रकार के सभी प्राणियों को व्याप्त करके सदा स्थित रहता है। क्षेत्रज्ञ को एक ओर करके दूसरी ओर सम्पूर्ण क्षेत्र को पृथक् करके रखे। संयमपूर्वक रहनेवाला ज्ञानी पुरूष सदा इस प्रकार अपने हृदय में विचार करता रहे- जड और चेतन की पृथक्ता का विवेचन किया करे। पुरूष प्रकृति में स्थित रहकर ही उससे उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है। वह अकर्ता, निर्लेप, नित्य और समस्त कर्मों का मध्यस्थ है। कार्य और करण को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और पुरूष (जीवात्मा) सुख-दुख के भोक्तापन में हेतु कहा जाता है। दूसरे लोग ऐसा मानते हैं कि तेजोमय आत्मा इस शरीर के भीतर स्थित है। यह अजर, अचिन्त्य, अव्यक्त और सनातन है। कुछ विचारक सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त करके स्थित हुए परमेश्वर को ही तिल में तेल की भाँति इस शरीर में जीवात्मारूप से विद्यमान बताते हैं। दूसरे मूर्ख नास्तिक मनुष्य स्थूल लक्षणों से भिन्न होने के कारण आत्मा की सत्ता ही नहीं मानते हैं। ‘आत्मा नहीं है’ ऐसा निश्चय कर वे लोग नरक के निवासी होते हैं। इस प्रकार महेश्वर के विषय में नाना प्रकार से विचार करते हैं। उमा ने कहा- भगवन्! लोक में जो विचारशील ब्राह्मण है, वह तो यही बताता है कि सम्पूर्ण शरीर में नित्य, अक्षर, अविनाशी आत्मा अवश्य है। परंतु इसकी सत्यता में क्या कारण है, इसे जानना अत्यन्त कठित है। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! ऋषि और देवता भी इस परमात्मा को प्रत्यक्ष नहीं देख पाते हैं। जो वास्तव में उन परमात्मा का साक्षत्कारकर लेता है, वह पुनः इस संसार में नहीं लौटता है। देवि! अतः उस परमात्मा के दर्शन से ही परमगति की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार यह सनातन सांख्यधर्म तुम्हें बताया गया है, जो कपिल आदि आचार्यों एवं महर्षियों द्वारा सेवित है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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