महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 148 श्लोक 1-17

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

अष्टचत्वारिंशदधिकशततम (148) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: अष्टचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्मजी का युधिष्ठिर को राज्य करने के लिये आदेश देना

नारदजी कहते हैं- तदनन्तर आकाश में बिजली की गड़गड़ाहट और मेघों की गम्भीर गर्जना के साथ महान् शब्द होने लगा। मेघों की घनघोर घटा से घिरकर सारा आकाश नीला हो गया। वर्षाकाल की भाँति मेघसमूह निर्मल जल की वर्षा करने लगा। सब और घोर अन्धकार छा गया। दिशाएँ नहीं सूझती थीं। उस समय उस रमणीय, पवित्र एवं सनातन देवगिरि पर ऋषियों ने जब दृष्टिपात किया, तब उन्हें वहाँ न तो भगवान शंकर दिखायी दिये और न भूतों के समुदाय का ही दर्शन हुआ। फिर तो तत्काल एक ही क्षण में सारा आसमान साफ हो गया। कहीं भी बादल नहीं रह गया। तब ब्राह्मण लोग वहाँ से तीर्थयात्रा के लिये चल दिये और अन्य लोग भी जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। यह अद्भुत और अचिन्त्य घटना देखकर सब लोग आश्चर्यचकित हो उठे। पुरुषसिंह देवकीनन्दन! भगवान शंकर का पार्वतीजी के साथ जो आपके सम्बन्ध में संवाद हुआ उसे सुनकर हम इस निश्चय पर पहुँच गये हैं कि वे ब्रह्मभूत सनातन पुरुष आप ही हैं। जिनके लिये हिमालय के शिखर पर महादेवजी ने हम लोगों को उपदेश दिया था। श्रीकृष्ण! आपके तेज से दूसरी अद्भुत घटना आज यह घटित हुई है, जिसे देखकर हम चकित हो गये हैं और हमें पूर्वकाल की वह शंकरजी वाली बात पुनः स्मरण हो रही है । प्रभो! महाबाहु जनार्दन! यह मैंने आपके समक्ष जटाजूटधारी देवाधिदेव गिरीश के माहात्म्य का वर्णन किया है। तपोवन- निवासी मुनियों के ऐसा कहने पर देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने उस समय उन सबका विशेष सत्कार किया। तदनन्तर वे महर्षि पुनः हर्ष में भरकर श्रीकृष्ण से बोले- 'मधुसूदन! आप सदा ही हमें बारंबार दर्शन देते रहें। 'प्रभो! आपके दर्शन में हमारा जितना अनुराग है, उतना स्वर्ग में भी नहीं है। महाबाहो! भगवान शिव ने जो कहा था, वह सर्वथा सत्य हुआ। 'शत्रुसूदन! यह सारा रहस्य मैंने आपसे कहा है, आप ही अर्थ- तत्व के ज्ञाता हैं। हमने आपसे पूछा था, परंतु आप स्वयं ही जब हमसे प्रश्न करने लगे, तब हम लोगों ने आपकी प्रसन्नता के लिये इस गोपनीय रहस्य का वर्णन किया है। तीनों लोकों में कोई ऐसी बात नहीं है, जो आपको ज्ञात न हो। 'प्रभो! आपका जो यह अवतार अर्थात् मानव शरीर में जन्म हुआ है तथा जो इसका गुप्त कारण है, यह सब तथा अन्य बातें आपसे छिपी नहीं हैं। हम लोग तो अपनी अत्यन्त चपलता के कारण इस गूढ़ विषय को अपने मन में ही छिपाये रखने में असमर्थ हो गये हैं। 'भगवन्! इसीलिये आपके रहते हुए भी हम अपने ओछेपन के कारण प्रलाप करते हैं- छोटे मुँह बड़ी बात कर रहे हैं। देव! पृथ्वी पर या स्वर्ग में कोई भी ऐसी आश्चर्य की बात नहीं है, जिसे आप नहीं जानते हों। आपको सब कुछ ज्ञात है। 'श्रीकृष्ण! अब आप हमें जाने की आज्ञा दें, जिससे हम अपना कार्य साधन करें। आपको उत्तम बुद्धि और पुष्टि प्राप्त हो। तात! आपको आपके समान अथवा आपसे भी बढ़कर पुत्र प्राप्त हो। वह महान् प्रभाव से युक्त, दीप्तिमान्, कीर्ति का विस्तार करने वाला और सर्वसमर्थ हो'।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।