महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 229-240

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चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 229-240 का हिन्दी अनुवाद

सुरेश्‍वर ! तुम्‍हें प्रत्‍यक्ष विदित है कि ब्रहृा आदि प्रजापतियों के संकल्‍प से उत्‍पन्‍न हुआ यह बद्ध और मुक्‍त जीवों से युक्‍त त्रिभुवन भग और लिंग से प्रकट हुआ है तथा शहस्‍त्रों कामनाओं से युक्‍त बुद्धिवाले तथा ब्रहृा, इन्‍द्र, अग्नि एवं विष्‍णु सहित सम्‍पूर्ण देवता और दैत्‍यराज महादेवजी से बढ़कर दूसरे किसी देवताओं को नहीं बताते हैं । जो सम्‍पूर्ण चराचर जगत् के लिये वेद-विख्‍यात् सर्वोतम जानने योग्‍य तत्‍व हैं, उन्‍हीं कल्‍याणमय देव भगवान् शंकर का कामनापूर्ति के लिये वरण करता हूं तथा संयतचित होकर सध: मुक्ति के लिये भी उन्‍हीं से प्रार्थना करता हूं । दूसरे-दूसरे कारणों को बतलाने से क्‍या लाभ ? भगवान् शंकर इसलिये भी समस्‍त कारणों के भी कारण सिद्ध होते हैं कि हमने देवताओं द्वारा दूसरे किसी के लिंग को पूजित होते नहीं सुना है । भगवान् महेश्‍वर को छोड़कर दूसरे किसके लिंग की सम्‍पूर्ण देवता पूजा करते हैं अथवा पहले कभी उन्‍होनें पूजा की है ? यदि तुम्‍हारे सुनने में आया हो तो बताओ । ब्रह्मा, विष्‍णु तथा सम्‍पूर्ण देवताओं सहित तुम सदा ही शिवलिंग की पूजा करते आये हो, इसलिये भगवान शिव ही सबसे श्रेष्‍ठतम देवता हैं । प्रजाओं के शरीर में न तो पधका चिन्‍ह है, न चक्र का चिन्‍ह है और न वज्र का ही चिन्‍ह उपललिक्षत होता है । सभी प्रजा लिंग और भग के चिन्‍ह से युक्‍त हैं, इसलिये यह सिद्ध है कि सम्‍पूर्ण प्रजा माहेश्‍वरी है (महादेवजी से उत्‍पन्‍न हुई है) । देवी पार्वती के कारणस्‍वरूप भाव से संसार की समस्‍त स्त्रियां उत्‍पन्‍न हुई है, इसलिये भाग के चिन्‍ह से अंकित है और भगवान् शिव से उत्‍पन्‍न होने के कारण सभी पुरूष लिंग के चिन्‍ह से चिन्हिृत हैं – यह सबको प्रत्‍यक्ष है, ऐसी दशा में जो शिव और पार्वती के अतिरिक्‍त अन्‍य किसी को कारण बताता है, जिससे कि प्रजा चिन्हिृत नहीं है, वह अन्‍य कारणवादी दुर्बुद्धि पुरूष चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों से बाहर कर देने योग्‍य है । जितना भी पुल्लिंग है, वह सब शिवस्‍वरूप है और जो भी शिवस्‍वरूप है और जो भी स्‍त्रीलिंग है उसे उमा समझो । महेश्‍वर और उमा-इन दो शरीरों से ही यह सम्‍पूर्ण चराचर जगत् व्‍याप्त है । सूर्य, चन्‍द्रमा और अग्नि जिनके नेत्र हैं, जो त्रिभुवन के सारतत्‍व, अपार, ईश्‍वर, सबके आदिकारण तथा अजर-अमर हैं, उन रूद्र देव को प्रसन्‍न किये बिना इस संसार में कौन पुरूष शांति पा सकता है । अत: कौशिक ! मैं भगवान् शंकर से ही वर अथवा मृत्‍यु पाने की इच्‍छा रखता हूं । बलसूदन इन्‍द्र ! तुम जाओ या खड़े रहो, जैसी इच्‍छा हो करो । मुझे महेश्‍वर से चाहे वर मिले, चाहे शाप प्राप्‍त हो, स्‍वीकार है, परंतु दूसरा देवता यदि सम्‍पूर्ण मनोवांछित फलों को देने वाला हो तो भी मैं उसे नहीं चाहता । देवराज इन्‍द्र से ऐसा कहकर मेरी इन्द्रियां दु:ख से व्‍याकुल हो उठी और मैं सोचने लगा कि यह क्‍या कारण हो गया कि महादेव जी मुझ पर प्रसन्‍न नहीं हो रहे हैं । तदनन्‍तर एक ही क्षण में मैंने देखा कि वही ऐरावत हाथी अब वृषभरूप धारण करके स्थित है । उसका वर्ण हंस, कुन्‍द और चन्‍द्रमा के समान श्‍वेत है । उसकी अंगकांति मृणाल के समान उज्‍ज्‍वल और चांदी के समान चमकीली है । जान पड़ता था साक्षात् क्षीरसागर ही वृषभरूप धारण करके खड़ा हो । काली पूंछ, विशाल शरीर और मधु के समान पिंगल वर्ण वाले नेत्र शोभा पा रहे थे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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