महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 406-424
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चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
‘तीनों लोकों में तुम्हारे समान दूसरा कोई मुझे प्रिय नहीं है ।‘ जब मैंने मस्तक झुकाकर महादेव जी को प्रणाम किया, तब देवी उमा को बड़ी प्रसन्न्ता हुई । उस समय मैंने ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा प्रशंसित भगवान शिव से इस प्रकार कहा । श्रीकृष्ण कहते हैं – सबके कारणभूत सनातन परमेश्वर ! आपको नमस्कार है । ऋषि आपको ब्रह्माजी का भी अधिपति बताते हैं । साधु पुरूष आपको ही तप, सत्वगण, रजोगण, तमोगण तथा सत्यस्वरूप कहते हैं । आप ही ब्रृहृा रूद्र, वरूण, अग्नि, मनु, शिव, धाता, विधाता और त्वष्टा हैं । आप ही सब ओर मुखवाले परमेश्वर हैं । समस्त चराचर प्राणी आप ही से उत्पन्न हुए हैं । आपने ही स्थावर-जंगम प्राणियों सहित इस समस्त त्रिलोकी की दृष्टि की है । यहां जो-जो इन्द्रियां, जो सम्पूर्ण मन, जो समस्त वायु और सात अग्नियां हैं, जो देवसमुदाय के अंदर रहने वाले स्तवन के योग्य देवता हैं, उन सबसे पर आपकी स्थिति है । ऋषिगण आपके विषय में ऐसा ही कहते हैं । वेद, यज्ञ, सोम, दक्षिणा, अग्नि, हविष्य तथा जो कुछ भी यज्ञोपयोगी सामग्री है, वह सब आप भगवान ही हैं, इसमें संशय नहीं है । यज्ञ, दान, अध्ययन, व्रत और नियम, लज्जा, कीर्ति, श्री, धुति, तुष्टि तथा सिद्धि – ये सब आपके स्वरूप की प्राप्ति कराने वाले हैं । भगवान ! काम, क्रोध, भय, लोभ, मद, स्तब्धता, मात्सर्य, आधि और व्याधि –ये सब आपके ही शरीर हैं । क्रिया, विकार, प्रणय, प्रधान, अविनाशी, बीज, मनका परम कारण और सनातन प्रभाव – ये भी आपके ही स्वरूप हैं । अव्यक्त, पावन, अचिन्त्य, हिरण्मय सूर्यस्वरूप आप ही समस्त गणों के आदिकारण तथा जीवन के आश्रय हैं । महान्, आत्मा, मति, ब्रह्मा, विश्व, शंभु, स्वयम्भू, बुद्धि, प्रज्ञा, उपलब्धि, संवित्, ख्याति, धृति ओर स्मृति – इन चौदह पर्यायवाची शब्दों द्वारा आप परमात्मा ही प्रकाशित होते हैं। वेद से आपका बोध प्राप्त करके ब्रह्माज्ञानी ब्राहृाण मोह का सर्वथा नाश कर देता है । ऋषियों द्वारा प्रशंसित आप ही सम्पूर्ण भूतों के हृदय में स्थित क्षेत्रज्ञ हैं । आपके सब ओर हाथ-पैर हैं । सब ओर नेत्र मस्तक और मुख हैं ।आपके सब ओर कान हैं और जगत् में आप सबको व्याप्त करके स्थित हैं । जीव के आंख मीजने और खोलने से लेकर जितने कर्म हैं, उनके फल आप ही हैं । आप अविनाशी परमेश्वर ही सूर्य की प्रभा और अग्नि की ज्वाला हैं । आप ही सबके हृदय में आत्मारूप से निवास करते हैं । अणिमा, महिमा, और प्राप्ति आदि सिद्धियां तथा ज्येाति भी आप ही हैं । आपमें बोध और मनन की शक्ति विद्यमान है । जो लोग आपकी शरण में आकर सर्वथा आपके आश्रित रहते हैं, वे ध्यानपरायण, नित्य योगयुक्त, सत्यसकंल्प तथा जितेन्द्रिय होते है । जो आपको अपनी हृदयगुहा में स्थित आत्मा, प्रभु, पुराण-पुरूष, मूर्तिमान् परब्रह्मा, हिरण्मय पुरूष और बुद्धिमानों की परम गतिरूप में निश्चित भाव से जानता है, वहीं बुद्धिमान लौकिक बुद्धि का उल्लंघन करके परमात्म-भाव में प्रतिष्ठित होता है । विद्वान पुरूष महत्तत्व, अंहकार और पंचतंमात्रा इन सात सूक्ष्म तत्वों को जानकर आपके स्वरूपभूत छ: अंगो का बोध प्राप्त करके प्रमुख विधियोग का आश्रय ले आप में ही प्रवेश करते हैं । कुन्तीनन्दन ! जब मैंने सबकी पीड़ा का नाश करने वाले महादेव जी की इस प्रकार स्तुति की, तब यह सम्पूर्ण चराचर जगत् सिंहनाद कर उठा ।
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