महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 150 श्लोक 22-46

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पन्चाशदधिकशततम (150) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: पन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 22-46 का हिन्दी अनुवाद


प्रजापति ब्रह्माजी ने जिन लोकों की रचना की है, उन सबमें ये अपने दिव्य तेज से निवास करते हैं तथा शुद्धभाव से सबके कर्मों का निरीक्षण करते हैं। ये सबके प्राणों के स्वामी हैं। जो मनुष्य शुद्धभाव से नित्य इनका कीर्तन करता है, उसे प्रचुरमात्रा में धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति होती है । वह लोकनाथ ब्रह्माजी के रचे हुए मंगलमय पवित्र लोकों में जाता है। ऊपर बताये हुए तैंतीस देवता सम्पूर्ण भूतों के स्वामी हैं। इसी प्रकार नन्दीश्वर, महाकाय, ग्रामणी, वृषभध्वज, सम्पूर्ण लोकों के स्वामी गणेश, विनायक, सौम्यगण, रूद्रगण, योगगण, भूतगण, नक्षत्र, नदियाँ, आकाश, पक्षिराज गरूड़, पृथ्वी पर तप से सिद्ध हुए महात्मा, स्थावर, जंगम, हिमालय, समस्त पर्वत, चारों समुद्र, भगवान् शंकर के तुल्य पराक्रमवाले उनके अनुचरगण, विष्णुदेव, जिष्णु, स्कन्द और अम्बिका- इन सबके नामों का शुद्धभाव से कीर्तन करने वाले मनुष्य के सब पाप नष्ट हो जाते हैं। अब श्रेष्ठ महर्षियों के नाम बता रहा हूँ- यवक्रीत, रैभ्य, अर्वावसु, परावसु, उशिज के पुत्र कक्षीवान्, अंगिरानन्दन बल, मेधातिथि के पुत्र कण्व ऋषि और वर्हिषद- ये सब ऋषि ब्रह्मतेज से सम्पन्न् और लोकस्त्रष्टा बतलाये गये हैं। इनका तेज रूद्र, अग्नि तथा वसुओं के समान है। ये पृथ्वी पर शुभकर्म करके अब स्वर्ग में देवताओं के साथ आनन्दपूर्वक रहते हैं और शुभफल का उपभोग करते हैं। महेन्द्र के गुरू सातों महर्षि पूर्व दिशा में निवास करते हैं। जो पुरूष शुद्धचित्त से इनका नाम लेता है, वह इन्द्रलोक में प्रतिष्ठित होता है। उन्मुचु, प्रमुचु, शक्तिशाली स्वस्त्यात्रेय, दृढव्य, ऊध्र्वबाहु, तृणसोमांगिरा और मित्रावरूण के पुत्र महाप्रतापी अगस्त्य मुनि- ये सात धर्मराज (यम)- के ऋत्विज् हैं और दक्षिण दिशा में निवास करते हैं। दृढेयु, ऋतेयु, कीर्तिमान् परिव्याध, सूर्य के सदृश तेजस्वी एकत, द्वित, त्रित तथा धर्मात्मा अत्रि के पुत्र सारस्वत मुनि- ये सात वरूण के ऋत्विज् हैं और पश्चिम दिशा में इनका निवास है। अत्रि, भगवान् वसिष्ठ, महर्षि कश्यप, गौतम, भरद्वाज, कुशिकवंशी विश्वामित्र और ऋचीकनन्दन प्रतापवान् उग्रस्वभाव वाले जमदग्नि- ये सात उत्तर दिशा में रहने वाले औश्र कुबेर के गुरू (ऋत्विज्) हैं। इनके सिवा सात महर्षि और हैं जो सम्पूर्ण दिशाओं में निवास करते हैं। वे जगत् को उत्पन्न करने वाले हैं। उपर्युक्त महर्षियों का यदि नाम लिया जाय तो वे मनुष्यों की कीर्ति बढ़ाते और उनका कल्याण करते हैं। धर्म, काम, काल, वसु, वासुकि, अनन्त और कपिल- ये सात पृथ्वी को धारण करने वाले हैं। परशुराम, व्यास, द्रोणपुत्र अश्वत्थाम और लोमश- ये चारों दिव्य मुनि हैं। इनमें से एक-एक सात-सात ऋषियों के समान हैं। ये सब ऋषि इस जगत् में शान्ति और कल्याण का विस्तार करने वाले तथा दिशाओं के पालक कहे जाते हैं। ये जिस-जिस दिशा में निवास करें, उस-उस दिशा की ओर मुँह करके इनकी शरण लेनी चाहिये। ये सम्पूर्ण भूतों के स्त्रष्टा और लोकपावन बताये गये हैं। संवर्त, मेरूसावर्णि, धर्मात्मा मार्कण्डेय, सांख्य,योग, नारद, महर्षि दुर्वासा- ये सात ऋषि अत्यन्त तपस्वी, जितेन्द्रिय और तीनों लोकों में विख्यात हैं। इन सब ऋषियों के अतिरिक्त बहुत- से महर्षि रूद्र के समान प्रभावशाली हैं। इनका कीर्तन करने से ये ब्रह्मलोक की प्राप्ति कराने वाले होते हैं। उनके कीर्तन से पुत्रहीन को पुत्र मिलता है और दरिद्र को धन।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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