महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 151 श्लोक 1-16

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एकपन्चाशदधिकशततम (151) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: एकपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! संसार में कौन मनुष्य पूज्य हैं? किनको नमस्कार करना चाहिये? किनके साथ कैसा बर्ताव करना उचित है तथा कैसे लोगों के साथकिस प्रकार का आचरण किया जाय तो वह हानिकर नहीं होता? भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर! ब्राह्मणों का अपमान देवताओं को भी दुख में डाल सकता है। परंतु यदि ब्राह्मणों को नमस्कार करके उनके साथ विनयपूर्ण बर्ताव किया जाय तो कभी कोई हानि नहीं होती। अतः ब्राह्मणों की पूजा करे। ब्राह्मणों को नमस्कार करे। उनके प्रति वैसा ही बर्ताव करे, जैसा सुयोग्य पुत्र अपने पिता के प्रति करता है, क्योंकि मनीषी ब्राह्मण इन सब लोकों को धारण करते हैं।। 3।। ब्राह्मण समस्त जगत् की धर्ममर्यादा का संरक्षण करने वाले सेतु के समान है। वे धन का त्याग करके प्रसन्न होते हैं और वाणी का संयम रखते हैं। वे समस्त भूतों के लिये रमणीय, उत्तम निधि, दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले, लोकनायक, शास्त्रों के निर्माता और परम यशस्वी हैं। सदा तपस्या उनका धन और वाणी उनका महान् बल है। वे धर्मों की उत्पत्ति के कारण, धर्म के ज्ञाता और सूक्ष्मदर्शी हैं। वे धर्म की ही इच्छा रखने वाले, पुण्यकर्मों द्वारा धर्म में ही स्थित रहनेवाले और धर्म के सेतु हैं। उन्हीं का आश्रय लेकर चारों प्रकार की सारी प्रजा जीवन धारण करती है। ब्राह्मण ही सबके पथ प्रदर्शक, नेता और सनातन यज्ञ-निर्वाहक हैं। वे बाप-दादों की चलायी हुई भारी धर्म-मर्यादा का भार सदा वहन करते हैं। जैसे अच्छे बैल बोझ ढोने में शिथिलता नहीं दिखाते, उसी प्रकार वे धर्म का भार वहन करने में कष्ट का अनुभव नहीं करते हैं। वे ही देवता, पितर और अतिथियों के मुख तथा हव्य-कव्य में प्रथम भोजन के अधिकारी हैं। ब्राह्मण भोजनमात्र करके तीनों लोकों की महान् भय से रक्षा करते हैं। वे सम्पूर्ण जगत् के लिये दीप की भाँति प्रकाशक तथा नेत्रवालों के भी नेत्र हैं। ब्राह्मण सबको सीख देने वाले हैं। वेद ही उनका धन है। वे शास्त्रज्ञान में कुशल, मोक्षदर्शी, समस्त भूतों की गति के ज्ञाता और अध्यात्म-तत्व का चिन्तन करने वाले हैं। ब्राह्मण आदि, मध्य और अन्त के ज्ञाता, संशयरहित, भूत-भविष्य का विशेष ज्ञान रखने वाले तथा परम गति को जानने और पाने वाले हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मणसब प्रकार के बन्धनों से मुक्त और निष्पाप हैं। उनके चित्त पर द्वन्द्वों का प्रभाव नहीं पड़ता। वे सब प्रकार के परिग्रह का त्याग कने वले और सम्मान पाने के योग्य हैं। ज्ञानी महात्मा उन्हें सदा ही आदर देते हैं। वे चन्दन और मल की कीचड़ में, भोजन और उपवास में समान दृष्टि रखते हैं। उनके लिये साधारण वस्त्र, रेशमी वस्त्र और मृगछाला समान हैं। वे बहुत दिनों तक बिना खाये रह सकते हैं और अपनी इन्द्रियो को संयम में रखकर स्वाध्याय करते हुए शरीर को सुखा सकते हैं। ब्राह्मण अपने तपोबल से जो देवता नहीं है, उसे भी देवता बना सकते हैं। यदि वे क्रोध में भर जायँ तो देवताओं को भी देवत्व से भ्रष्ट कर सकते हैं। दूसरे-दूसरे लोक और लोकपालों की रचना कर सकते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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