महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 161 श्लोक 22-29
एकषष्ट्यधिकशततम (161) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
उनकी महत्ता, व्यापकता तथा दिव्य कर्मों के अनुसार देवताओं में उनके बहुत-से यथार्थ नाम प्रचलित हैं। वेदके शतरुद्रिय प्रकरण में सैकड़ों उत्तम नाम हैं, जिन्हें वेदवेत्ता ब्राह्मण जानते हैं। महर्षि व्यासने भी उन महत्मा शिवका उपस्थान (सॄवन) बताया है। ये संपूर्ण लोकों को उनकी अभीष्ट वस्तु देने वाले हैं। यह मान विश्व उन्हीं का स्वरूप बताया गया है। ब्राह्मण और ऋषि उन्हें सबसे ज्येष्ठ कहते है। ये देवाताओं में प्रधान है, उन्होंने अपने मुख से अग्नि को उत्पन्न किया है। वे नाना प्रकार की ग्रह-बाधाओं से ग्रस्त प्राणियों को दुख: से छुटकारा दिलाते है। पुण्यात्मा और शरणागतवत्सल तो वे इतने हैं कि शरण में आये हुए किसी भी प्राणी का त्याग नहीं करते। वे ही मनुष्यों को आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, धन और सम्पूर्ण कामनाएँ प्रदान करते हैं और वे ही पुन: उन्हें छीन लेते हैं। इन्द्र आदि देवताओं के पास उन्हीं का दिया हुआ ऐश्वर्य बताया जाता है। तीनों लोकों के शुभाशुभ कर्मों का फल देने के लिये वे ही सदा तत्पर रहते है। समस्त कामनाओं के अधीश्वर होने के कारण उन्हें ‘ईश्वर’ कहते है और महान लोकों के ईश्वर होने के कारण उनका नाम ‘महेश्वर’ हुआ है। उन्होंने नाना प्रकार के बहुसंख्यक रूपोंद्वारा इस सम्पूर्ण लोक को व्याप्त कर रखा है। उन महादेवजी का जो मुख है, वही समुद्रा में वडवानल है।
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