महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 22 श्लोक 18-35

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द्वाविंश (22) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! विद्वानोंका कहना है कि धर्मके साधन और फल अनेक प्रकारके हैं। पात्रके कौन-से गुण उसकी दानपात्रतामें कारण होते हैं? यह मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा-राजेन्द्र! अहिंसा,सत्य,अक्रोध,कोमलता,इन्द्रियसंयम और सरलता-ये धर्मके निश्चित लक्षण हैं। प्रभो! जो लोग इस पृथ्वीपर धर्मकी प्रशंसा करते हुए घूमते-फिरते हैं; परंतु स्वयं उस धर्मका आचरण नहीं करते, वे ढोंगी हैं और धर्मसंकरता फैलानेमें लगे हैं। ऐसे लोगोंको जो सुवर्ण, रत्न, गौ अथवा अश्व आदि वस्तुओंका दान करता है वह नरक में पड़कर दस वर्षोतक विष्ठा खाता है।

जो उच्चवर्ण के लोग राग और मोह के वशीभूत हो अपने किये अथवा बिना किये शुभ कर्म का जनसमुदाय में वर्णन करते हैं वे मेद, पुल्कस तथा अन्त्यजोंके तुल्य माने जाते हैं। राजेन्द्र! जो मूढ़ मानव ब्रहमचारी ब्राहामण को बलिवैश्वदेव सम्बन्धी अन्न (अतिथियोंको देनेयोग्य हन्तकार) नहीं देते हैं, वे अशुभ लोकों का उपभोग करते हैं। युधिष्ठिरने पूछा- पितामह! उतम ब्रहमचार्य क्या है? धर्म का सबसे श्रेष्ठ लक्षण क्या है? तथा सर्वोतम पवित्रता किसे कहते हैं? यह मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा- तात! मांस और मदिरा का त्याग ब्रहमचर्य से भी श्रेष्ठ है- वही उत्तम ब्रहमचर्य है वेदोक्त मर्यादा में स्थित रहना सबसे श्रेष्ठ धर्म है तथा मन और इन्द्रियों को संयम में रखना ही सर्वोतम पवित्रता है। युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! मनुष्य किस समय धर्म का आचरण करे? कब अर्थोपार्जन में लगे तथा किस समय सुखभोग में प्रवृत हो? यह मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा- राजन! पूर्वाहण में धन का उपार्जन करें, तदनन्तर धर्म का और उसके बाद काम का सेवन करें; परंतु काम में आसक्त न हों। ब्राहामणों का सम्मान करें। गुरुजनों की सेवा-पूजा में संलग्न रहें। सब प्राणियोंके अनुकूल रहें। नम्रता का बर्ताव करें और सबसे मीठे वचन बोलें। न्याय का अधिकार पाकर झूठा फैसला देना अथवा न्यायालय में जाकर झूठ बोलना, राजाओं के पास किसी की चुगली करना और गुरु के साथ कपटपूर्ण बर्ताव करना-ये तीन ब्रहमाहत्या के समान पाप हैं। राजाओं पर प्रहार न करे और गाय को न मारे। जो राजा और गौ पर प्रहार रूप द्विविध दुष्कर्म का सेवन करता है, उसे भ्रूण हत्याके समान पाप लगता है। अग्निहोत्र का कभी त्याग न करें। वेदों का स्वाध्याय न छोड़े तथा ब्रहामण की निन्दा न करें; क्योंकि ये तीनों दोष ब्रहमाहत्या के समान हैं। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! कैसे ब्राहामण को श्रेष्ठ समझना चाहिये ? किनको दिया हुआ दान महान फल देने वाला होता है ? तथा कैसे ब्राहामणों को भोजन कराना चाहिये ? यह मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा- राजन!जो क्रोधरहित,धर्मपरायण,सत्यनिष्ठ,और इन्द्रियसंयम में तत्पर हैं, ऐसे ब्राहामणों को श्रेष्ठ समझना चाहिये और उन्हीं को दान देने से महान फल की प्राप्ति होती है (अतः उन्हीं को श्राद्ध में भोजन कराना चाहिये)। जिनमें अभिमान का नाम नहीं है, जो सब कुछ सह लेते हैं, जिनका विचार दृढ़ है, जो जितेन्द्रिय, सम्पूर्ण प्राणियोंके हितकारी तथा सबके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाले हैं, उनको दिया हुआ दान महान फल देने वाला है। जो निर्लोभ, पवित्र, विद्वान,संकोची,सत्यवादी और अपने कर्तव्य का पालन करने वाले हैं, उनको दिया हुआ दान भी महान कहलाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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