महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 38 श्लोक 1-18

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अष्‍टत्रिंश (38) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्‍टत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

पञ्चचूड़ा अप्‍सरा का नारद जी से स्त्रियों के दोषों का वर्णन करना।

युधिष्ठिर ने कहा- भरतश्रेष्‍ठ! मैं स्त्रियों के स्‍वभाव का वर्णन सुनना चाहता हूँ, क्‍योंकि सारे दोषों की जड़ स्त्रियाँ ही हैं। वे ओच्छी बुद्धिवाली मानी गयी हैं। भीष्‍म जी ने कहा- राजन! इस विषय में देवर्षि नारद का अप्‍सरा पञ्चचूड़ा के साथ संवाद हुआ था, उसी प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। पहले की बात है, सम्‍पूर्ण लोकों में विचरते हुए देवर्षि नारद ने एक दिन ब्रम्हलोक की अनिन्‍दय सुन्‍दरी अप्‍सरा पञ्चचूड़ा को देखा। मनोहर अंगों से युक्‍त उस अप्‍सरा को देखकर मुनि ने उसके सामने अपना प्रश्‍न रखा- ‘सुमध्‍यमे! मेरे हदय में एक महान संदेह है। उसके विषय में मुझे यथार्थ बात बताओ।' भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! नारद जी के ऐसा कहने पर पंचचूड़ा अप्‍सरा ने उन्‍हें इस प्रकार उत्तर दिया- यदि आप मुझे उस प्रश्‍न का उतर देने के योग्‍य मानते हैं और वह बताने योग्‍य है तो अवश्‍य बताऊँगी। नारद जी ने कहा- भद्रे! मैं तुम्‍हें ऐसी बात बताने के लिये नहीं कहूँगा जो कहने योग्‍य न हो; मैं तुम्‍हारे मुँह से स्त्रियों के स्‍वभाव का वर्णन सुनना चाहता हूँ। भीष्‍म जी कहते हैं-राजन! नारद जी का यह वचन सुनकर वह उत्तम अप्‍सरा बोली- ‘देवर्षे! मैं स्त्री होकर स्त्रियों की निन्‍दा नहीं कर सकती। ‘संसार में जैसे स्त्रियाँ हैं उनके जैसे स्‍वभाव हैं, वे सब आपको विदित हैं; अत: देवर्षे! आप मुझे ऐसे कार्य में न लगावें। तब देवर्षि ने उससे कहा- ‘सुमध्‍यमे! तुम सच्‍ची बात बताओ। झूठ बोलने में दोष लगता है। सच कहने में कोई दोष नहीं है।' उनके इस प्रकार समझाने पर उस मनोहर हास्‍य वाली अप्‍सरा ने कहने के लिये दृढ़़ निश्‍चय करके स्त्रियों के सच्‍चे और स्‍वाभाविक दोषों को बताना आरम्‍भ किया। पंचचूड़ा बोली- नारदजी! कुलीन, रूपवती और सनाथ युवतियाँ भी मर्यादा के भीतर नहीं रहती हैं। यह स्त्रियों का दोष है। स्त्रियों से बढ़कर पापिष्‍ठ दूसरा कोई नहीं है। स्त्रियाँ सारे दोषों की जड़ हैं, इस बात को आप भी अच्‍छी तरह जानते हैं। यदि स्त्रियों को दूसरों से मिलने का अवसर मिल जाये तो वे सदगुणों में विख्‍यात, धनवान, अनुपम रूप-सौन्‍दर्यशाली तथा अपने वश में रहने वाली पतियों की भी प्रतीक्षा नहीं कर सकतीं। प्रभो! हम स्त्रियों में यह सबसे बड़ा पातक है कि हम पापी से पापी पुरुषों को भी लाज छोड़कर स्‍वीकार कर लेती हैं। जो पुरुष किसी स्‍त्री को चाहता है, उसके निकट तक पहुँचता है और उसकी थोड़ी-सी सेवा कर देता है, उसी को वे युवतियाँ चाहने लगती हैं। स्त्रियों में मर्यादा का कोई स्‍थान नहीं रहता। जब तक उनको कोई चाहने वाला पुरुष न मिले और परिजनों का भय बना रहे तथा पति पास हों, तभी ये नारियाँ मर्यादा के भीतर रह पाती हैं। इनके लिये कोई भी पुरुष ऐसा नहीं है जो अगम्‍य हो। उनका किसी अवस्‍था–विशेष पर भी निश्‍चय नहीं रहता। कोई रूपवान हो या कुरूप; पुरुष है,इतना ही समझकर स्त्रियाँ उसका उपभोग करती हैं। स्त्रियाँ न तो भय से, न दया से, न धन के लाभ से और न जाति या कुल के सम्‍बन्‍ध से ही पतियों के पास टिकती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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