महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 श्लोक 35-49

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चतुश्‍चत्‍वारिंश (44) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुश्‍चत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 35-49 का हिन्दी अनुवाद

जब तक कन्‍या का पाणिग्रहण संस्‍कार होने के पहले तक वर और कन्‍या आपस में एक-दूसरे के लिये प्रार्थना कर सकते हैं। म‍हर्षियों का मत है कि अयोग्‍य वर को कन्‍या नहीं देनी चाहिये, क्‍योंकि सुयोग्‍य पुरुष को कन्‍यादान करना ही काम-सम्‍बन्‍धी सुख और सुयोग्‍य संतान की उत्‍पत्ति का कारण है। ऐसा मेरा विचार है। कन्‍या के क्रय-विक्रय में बहुत-से दोष हैं। इस बात को तुम अधिक काल तक सोचने-विचारने के बाद स्‍वयं समझ लोगे। केवल मूल्‍य दे देने से विवाह का अन्तिम निश्‍चय नहीं हो जाता है। पहले भी कभी ऐसा नहीं हुआ था, इस विषय में तुम सुनो। मैं विचित्रवीर्य के विवाह के लिये मगध, काशी तथा कौशल देश के समस्‍त वीरों को पराजित करके काशिराज की दो* कन्‍याओं को हर लाया था। उनमें से एक कन्‍या अम्‍बा अपना हाथ शाल्‍वराज के हाथ में दे चुकी थी; अर्थात मन-ही-मन उसको अपना पति मान चुकी थी। दूसरी (दो कन्‍याओं)का काशिराज को शुल्‍क प्राप्‍त हो गया था। इसलिये मेरे पिता (चाचा)कुरुवंशी बाहलीक ने वहीं कहा कि ‘जो कन्‍या पाणिगृहीत हो चुकी है उसका त्‍याग कर दो और दूसरी कन्‍या का (जिनके लिये शुल्‍कमात्र लिया गया है) विवाह करो।' मुझे चाचाजी के इस कथन पर संदेह था, इसलिये मैंने दूसरों से भी इसके विषय में पूछा। परंतु इस विषय में मेरे चाचाजी की बहुत प्रबल इच्‍छा थी कि धर्म का पालन हो (अत: वे पाणिगृहिता कन्‍याके त्‍यागपर अधिक जोर दे रहे थे)। राजन! तदनन्‍तर मैं आचार जानने की इच्‍छा से बोला-‘पिताजी ! मैं इस विषय में यह ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ कि परम्‍परागत आचार क्‍या है?’ महाराज! मेरे ऐसा कहने पर धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ मेरे चाचा बाहलीक इस प्रकार बोले- ‘यदि तुम्‍हारे मत में मूल्‍य देने मात्र से ही विवाह का पूर्ण निश्‍चय हो जाता है, पाणिग्रहण से नहीं, तब तो स्‍मृति का यह कथन ही व्यर्थ होगा कि कन्‍या का पिता एक वर से शुल्‍क ले लेने पर भी दूसरे गुणवान वर का आश्रय ले सकता है।' अर्थात पहले को छोड़कर दूसरे गुणवान वर से अपनी कन्‍या का विवाह कर सकता है। जिनका यह मत है कि शुल्‍क से ही विवाह का निश्‍चय होता है, पाणिग्रहण से नहीं, उनके इस कथन को धर्मज्ञ पुरुष प्रमाण नहीं मानते हैं। ‘कन्‍यादान के विषय में तो लोगों का कथन भी प्रसिद्ध है ‘अर्थात सब लोग यही कहते हैं कि कन्‍यादान हुआ है।' अत: जो शुल्‍क से ही विवाह निश्‍चय मानते हैं उनके कथन की प्रतीति कराने वाला कोई प्रमाण उपलब्‍ध नहीं होता। जो क्रय और शुल्‍क को मान्‍यता देते हैं वे मनुष्‍य धर्मज्ञ नहीं हैं। ‘ऐसे लोगों को कन्‍या नहीं देनी चाहिये और जो बेची जा रही हो ऐसी कन्‍या के साथ विवाह नहीं करना चाहिये, क्‍योंकि भार्या किसी प्रकार भी खरीदने या विक्रय करने की वस्‍तु नहीं है।' जो दासियों को खरीदते और बेचते हैं वे बड़े लोभी और पापात्‍मा हैं। ऐसे ही लोगों में पत्‍नी को भी खरीदने-बचेने की निष्‍ठा होती है। इस विषय में पहले के लोगों ने सत्‍यवान से पूछा था कि ‘महाप्राज्ञ ! यदि कन्‍या का शुल्‍क देने के पश्‍चात शुल्‍क देने वाले की मृत्‍यु हो जाये तो उसका पाणिग्रहण दूसरा कोई कर सकता है या नही? इसमें हमें धर्म विषयक संदेह हो गया है। आप इसका निवारण कीजिये, क्‍योंकि आप ज्ञानी पुरुषों द्वारा सम्‍मानित हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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