महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 97 श्लोक 21-25

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

सप्तनवतितम (97) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तनवतितम अध्याय: श्लोक 21-25 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण। गृहस्थ पुरूष को सदा यज्ञशिष्ट अन्न का ही भोजन करना चाहिये। राजा, ऋत्विज, स्नातक, गुरू और श्वषुर- ये यदि एक वर्ष के बाद घर आवें तो मधुपर्क से इतनी पूजा करनी चाहिये । कुत्तों, चाण्डालों और पक्षियों के लिये भूमि पर अन्न दख देना चाहिये। यह वैश्‍वदेव नामक कर्म है। इसका सायंकाल और प्रातःकाल अनुष्ठान किया जाता है । जो मनुष्य दोषदृष्टि का परित्याग करके इन गृहस्थोचित धर्मों का पालन करता है, उसे इस लोक में ऋषि-महर्षियों का वरदान प्राप्त होता है और मृत्यु के पश्‍चात वह पुण्यलोकों में सम्मानित होता है । भीष्मजी कहते हैं-युधिष्ठिर। पृथ्वी देवी के ये वचन सुनकर प्रतापी भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हीं के अनुसार गृहस्थ धर्मों का विधिवत् पालन किया। तुम भी सदा इन धर्मों का अनुष्ठान करते रहो । जनेश्‍वर। इस गृहस्थ-धर्म का पालन करते रहने पर तुम इहलोक में सुयश और परलोक में स्वर्ग प्राप्त कर लोगे ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।