महाभारत आदि पर्व अध्याय 104 श्लोक 16-34
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चतुरधिकशततम (104) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
‘वे सत्यवादी, शान्त, तपस्वी और पापशून्य हैं। वे उत्पन्न होते ही बड़े होकर द्वीप से अपने पिता के साथ चले गये थे। ‘मेरे और तुम्हारे आग्रह करने पर वे अनुपम तेजस्वी व्यास अवश्य ही अपने भाई के क्षेत्र में कल्याणकारी संतान उत्पन्न करेंगे। ‘उन्होंने जाते समय मुझसे कहा था कि संकट के समय मुझे याद करना। महावाहु भीष्म ! यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं उन्हीं का स्मरण करूं। ‘भीष्म ! तुम्हारी अनुमति मिल जाय, तो महातपस्वी व्यास निश्चय ही विचित्रवीर्य की स्त्रियों को पुत्रों को उत्पन्न करेंगे’। वैशम्पायनजी कहते हैं- महर्षि व्यास का नाम लेते ही भीष्मजी हाथ जोड़कर बोले-‘माताजी ! जो मनुष्य धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों का बारंबार विचार करता है तथा यह भी जानता है कि किस प्रकार अर्थ से अर्थ, धर्म से धर्म और काम से कामरुप फल की प्राप्ति होती है और वह परिणाम में कैसे सुखद होता है तथा किस प्रकार अर्थादि के सेवन से विपरीत फल (अर्थनाश आदि) प्रकट होते हैं, इन बातों पर पृथक-पृथक भलीभांति विचार करके जो धीर पुरुष अपनी बुद्धि के द्वारा कर्तव्या कर्तव्य का निर्णय करता है, वही बुद्धिमान् है। तुमने जो बात कही है, वह धर्मयुक्त तो है ही, हमारे कुल के लिये भी हितकर और कल्याणकारी है; इसलिये मुझे बहुत अच्छी लगी’। वैशम्पायनजी कहते हैं- करुनन्दन ! उस समय भीष्मजी के इस प्रकार अपनी सम्मति देने पर काली (सत्यवती) ने मुनिवर कृष्णदैयापन का चिन्तन किया। जनमेजय ! माता ने मेरा स्मरण किया है, यह जानकर परम बुद्धिमान् व्यासजी वेदमन्त्रों का पाठ करते हुए क्षण भर में वहां प्रकट हो गये । वे कब किधर से आ गये, इसका पता किसी को न चला। सत्यवती ने अपने पुत्र का भलिभांति सत्कार किया और दोनों भुजाओं से उनका आलिंगन करके अपने स्तनों के झरते हुए दूध से उनका अभिषेक किया। अपने पुत्र को दीर्घकाल के बाद देखकर सत्यवती की आंखों में स्नेह और आनन्द के आंसू बहने लगे। तदनन्तर सत्यवती के प्रथम पुत्र महर्षि व्यास ने अपने कमण्डल के पवित्र जल से दु:खिनी माता का अभिषेक किया और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहा-‘धर्म के तत्व को जानने वाली माताजी ! आपकी जो हार्दिक इच्छा हो, उसके अनुसार कार्य करने के लिये मैं यहां आया हूं। आज्ञा दीजिये, मैं आपकी कौन-सी प्रिय सेवा करूं’। तत्पश्चात् पुरोहित ने महर्षि का विधि पूर्वक मन्त्रोच्चारण के साथ पूजन किया और महर्षि ने उसे प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया। विधि और मन्त्रोच्चारण पूर्वक की हुई उस पूजा से व्यासजी बहुत प्रसन्न हुए। जब वे आसन पर बैठ गये, तब माता सत्यवती ने उनका कुशल-क्षेम पूछा औरउनकी ओर देखकर इस प्रकार कहा- ‘विद्वन् ! माता और पिता दोनों से पुत्रों का जन्म होता है, अत: उन पर दोनों का समान अधिकार होता है। जैसे पिता पुत्रों का स्वामी है, उसी प्रकार माता भी है। इसमें संदेह नहीं है। ब्रह्मर्षे ! विधाता के विधान या मेरे पूर्व जन्मों के पुण्य से जिस प्रकार तुम मेरे प्रथम पुत्र हो, उसी प्रकार विचित्रवीर्य मेरा सबसे छोटा पुत्र था। जैसे एक पिता के नाते भीष्म उसके भाई हैं, उसी प्रकार एक माता के नाते तुम भी विचित्रवीर्य के भाई ही हो। बेटा ! मेरी तो ऐसी ही मान्यता है; फिर तुम जैसा समझो। ये सत्यपराक्रमी शान्तनु नन्दन भीष्म सत्य का पालन कर रहे हैं।
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