महाभारत आदि पर्व अध्याय 165 श्लोक 1-18
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पञ्चषष्टयधिकशततम (165) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व )
द्रोण के द्वारा द्रुपद के अपमानित होने का वृत्तान्त
आगन्तुक ब्राह्मण ने कहा- गंगाद्वार में एक महा बुद्धिमान और परम तपस्वी भरद्वाज नामक महर्षि रहते थे, जो सदा कठोर व्रत का पालन करते थे। एक दिन वे गंगाजी में स्नान करने के लिये गये। वहां पहले से ही आकर सुन्दरी अप्सरा घृताची नामवाली गंगाजी में गोते लगा रही थी। महर्षि ने उसे देखा। जब नदी के तट पर खड़ी हो वह वस्त्र बदलने लगी, उस समय वायु ने उसकी साड़ी उड़ा दी। वस्त्र हट जाने से उसे नग्नावस्था में देखकर महर्षि उसे प्राप्त करने की इच्छा हुई की। मुनिवर भरद्वाज ने कुमारवस्था से ही दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य का पालन किया था। घृताची में चित्त आसक्त हो जाने के कारण उनका वीर्य स्खलित हो गया। महर्षि ने उस वीर्य को द्रोण (यज्ञकलश) में रख दिया। उसी से बुद्धिमान् भरद्वाजजी के द्रोण नामक पुत्र हुआ। उसने सम्पूर्ण वेदों और वेदांगों का भी अध्ययन कर लिया। पृषत नाम के एक राजा भरद्वाज मुनि के मित्र थे। उन्हीं दिनों राजा पृषत के भी द्रुपद नामक पुत्र हुआ। क्षत्रियशिरोमणि पृषतकुमार द्रुपद प्रतिदिन भरद्वाज मुनि के आश्रम पर जाकर द्रोण के साथ खेलते और अध्ययन करते थे। पृषत की मृत्यु के पश्चात् द्रुपद राजा हुए। इधर द्रोण ने भी यह सुना कि परशुरामजी अपना सारा धन दान कर देना चाहते हैं और वन में जाने के लिये उद्यत हैं। तब वे भरद्वाज नन्दन द्रोण परशुरामजी के पास जाकर बोले-‘ द्विजश्रेष्ठ ! मुझे द्रोण जानिये। मैं धन की कामना से यहां आया हूं ’।परशुरामजी ने कहा-ब्रह्मन् ! अब तो केवल मैंने अपने शरीर को ही बचा रक्खा है (शरीर के सिवा सब कुछ दान कर दिया)। अत: अब तुम मेरे अस्त्रों अथवा यह शरीर-दोनों में से एक को मांग लो। द्रोण बोले-भगवन् ! आप मुझे सम्पूर्ण अस्त्र तथा उन सब के प्रयोग और उपसंहार की विधि भी प्रदान करे। आगन्तुक ब्राह्मण ने कहा-तब भृगुनन्दन परशुरामजी ने ‘तथास्तु’ कहकर अपने सब अस्त्र द्रोण को दे दिये। उन सबको ग्रहण करके द्रोण उस समय कृतार्थ हो गये। उन्होंने परशुरामजी से प्रसन्नचित्त होकर परम सम्मानित ब्रह्मास्त्र ज्ञान प्राप्त किया और मनुष्यों में सबसे बढ़-चढ़कर हो गये। तब पुरुषसिंह प्रतापी द्रोण ने राजा द्रुपद के पास आकर कहा-‘राजन् ! मैं तुम्हारे सखा हूं, मुझे पहचानो’। द्रुपद ने कहा- जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रियका; जो रथी नहीं है, वह रथी वीर का और इसी प्रकार जो जो नहीं है, वह किसी राजा का मित्र होने योग्य नहीं है; फिर तुम पहले की मित्रता की अभिलाषा क्यों करते हो ? आगन्तुक ब्राह्मण ने कहा- बुद्धिमान् द्रोण ने पाञ्जाल-राज द्रुपद से बदला लेने का मन-ही-मन निश्चय किया। फिर वे कुरुवंशी राजाओं की राजधानी हस्तिनापुर में गये । वहां जाने पर बुद्धिमान् द्रोण को नाना प्रकार के धन लेकर भीष्मजी ने अपने सभी पौत्रों को उन्हें शिष्यरुप में सौंप दिया।।तब द्रोण ने सब शिष्यों को एकत्र करके, जिनमें कुन्ती के पुत्र तथा अन्य लोग भी थे, द्रुपद को कष्ट देने के उदेश्य से इस प्रकार कहा-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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