महाभारत आदि पर्व अध्याय 222 श्लोक 36-58

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द्वाविंशत्यधिकद्विशततम (222) अध्‍याय: आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्वाविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 36-58 का हिन्दी अनुवाद

ब्राह्मणों का यह आक्षेपयुक्त वचन सुनकर राजा श्वेतकि को बड़ा क्रोध हुआ। वे कैलास पर्वत पर जाकर उग्र तपस्या में लग गये। राजन् ! तीक्ष्ण व्रत का पालन करने वाले राजा श्वेतकि मन-इन्द्रियों के संयमपूर्वक महादेव जी क आराधना करते हुए बहुत दिनों तक निराहार खडे़ रहे। वे कभी बारहवें दिन और कभी सोहलवें दिन फल-मूल का आहार कर लेते थे। दोनों बाँहे ऊपर उठाकर एकटक देखते हुए राजा श्वेतकि एकाग्रचित्त हो छः महीनों तक ठूँठ की तरह अविचल भाव से खड़े रहे। भारत ! उन नृपश्रेष्ठ को इस प्रकार भारी तपस्या करते देख भगवान् शंकर ने अत्यन्त् प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिया। और स्नेहपूर्वक गम्भीर वाणी में भगवान् ने उनसे कहा - ‘परंतप ! नरश्रेष्ठ ! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ। ‘भूपाल ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम जैसा चाहते हो, वैसा वर माँग लो।’ अमित तेजस्वी रूद्र का यह वचन सुनकर राजर्षि श्वेतकि ने परमात्मा शिव के चरणों में प्रणाम किया और इस प्रकार कहा -। ‘देवदेवश ! सुरेश्वर ! यदि मेरे ऊपर आप सर्वलोक वन्दित भगवान् प्रसन्न हुए हैं तो स्वयं चलकर मेरा यज्ञ करायें ।’ राजा की कही हुई यह बात सुनकर भगवान् शिव प्रसन्न होकर मुस्कुराते हुए बोले -। ‘राजन् ! यज्ञ कराना हमारा काम नहीं हैं; परंतु तुमने वही वर माँगने के लिये भारी तपस्या की है, अतः परंतप नरेश ! मैं एक शर्त पर तुम्हारा यज्ञ कराऊँगा’।

रूद्र बोले - राजेन्द्र ! यदि तुम एकाग्रचित्त हो ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए बारह वर्षों तक घृत की निरन्तर अविच्छिन्न धारा द्वारा अग्निदेव को तृप्त करो तो मुझसे जिस कामना के लिये प्रार्थना कर रहे हो, उसे पाओगे। भगवान रूद्र के ऐसा कहने पर राजा श्वेतकि ने शूलपाणि शिव की आज्ञा के अनुसार सारा कार्य सम्पन्न किया। बारहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर भगवान् महेश्वर पुनः आये। सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति करने वाले भगवान् शंकर नृपश्रेष्ठ श्वेतकि को देखते ही अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले -। ‘भूपाल शिरोमणे ! तुमने इस वेदविहित कर्म के द्वारा मुझे पूर्ण संतुष्ट किया है, परंतु परंतप ! शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ कराने का अधिकार ब्राह्मणों को ही है। ‘अतः परंतप ! मैं स्वयं तुम्हारा यज्ञ नहीं कराऊँगा। पृथ्वी पर मेरे ही अंशभूत एक महाभाग श्रेष्ठ द्विज है। ‘वे दुर्वासा नाम से विख्यात हैं। महातेजस्वी दुर्वासा मेरी आज्ञा से तुम्हारा यज्ञ करायेंगे। तुम सामग्री जुटाओ’। भगवान रूद्र का कहा हुआ यह वचन सुनकर राजा पुनः अपने नगर में आये और यज्ञ सामग्री जुटाने लगे। तदनन्तर सामग्री जुटाकर वे पुनः भगवान् रूद्र के पास गये और बोले - ‘महादेव ! आपकी कृपा से मेरी यज्ञ सामग्री तथा अन्य सभी आवश्यक उपकरण जुट गये। अब कल मुझे यज्ञ की दीक्षा मिल जानी चाहिये।’ महामना राजा का यह कथन सुनकर भगवान् रूद्र ने दुर्वासा को बुलाया और कहा - ‘द्विजश्रेष्ठ ! ये महाभाग राजा श्वेतकि हैं। विपेन्द्र ! मेरी आज्ञा से तुम इन भूमिपाल का यज्ञ कराओ।’ यह सुनकर महर्षि ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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