महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 81-95

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तृतीय (3) अध्‍याय: आदि पर्व (पौष्य पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 81-95 का हिन्दी अनुवाद

तदनन्तर उपाध्याय की आज्ञा होने पर वेद समावर्तन संस्कार के पश्चात स्नातक होकर गुरूगृह से लौटे। घर आकर उन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। अपने घर में निवास करते समय आचार्य वेद के पास तीन शिष्य रहते हैं, किन्तु वे ‘काम करो अथवा गुरू सेवा में लगे रहो’ इत्यादि रूप से किसी प्रकार का आदेश अपने शिष्यों को नहीं देते थे; क्योंकि गुरू के घर में रहने पर छात्रों को जो इसलिये उनके मन में अपने शिष्यों को लोकेशदायक कार्य में लगाने की कभी इच्छा नहीं होती थी। एक समय की बात है-ब्रह्मवेत्ता आचार्य वेद के पास आकर ‘जनमेजय और पौष्य’ नाम वाले दो क्षत्रियों ने उनका वरण किया और उन्हें अपना उपाध्याय बना लिया। तदनन्तर एक दिन उपाध्याय वेद ने यज्ञमान के कार्य से बाहर जाने के लिये उद्यत हो उत्तंक नाम वाले शिष्य को अग्निहोत्र आदि के कार्य में नियुक्त किया और कहा-‘वत्स उत्तंग ! मेरे घर में मेरे बिना जिस किसी वस्तु की कमी हो जाये, उसकी पूर्ति तुम कर देना, ऐसी मेरी इच्छा है।’ उत्तंक को ऐसा आदेश देकर आचार्य वेद बाहर चले गये। उत्तंग गुरू की आज्ञा का पालन करते हुए सेवा परायण हो गुरू के घर में रहने लगे। वहाँ रहते समय उन्हें उपाध्याय के आश्रय में रहने वाली सब स्त्रियों ने मिलकर बुलाया और कहा। तुम्हारी गुरूपत्नी रजस्वला हुई हैं और उपाध्याय परदेश गये हैं। उनका यह ऋतुकाल जिस प्रकार निष्फल न हो, वैसा करो इसके लिये गुरूपत्नी बड़ी चिन्ता में पड़ी हैं।

यह सुनकर उत्तंक ने उत्तर दिया-‘मैं स्त्रियों के कहने से यह न करने योग्य निन्द्य कर्म नहीं कर सकता। उपाध्याय ने मुझे ऐसी आज्ञा नहीं दी है कि ‘तुम न करने योग्य कार्य भी कर डालना’। इसके बाद कुछ काल बीतने पर उपाध्याय वेद परदेश से अपने घर लौट आये। आने पर उत्तंक का सारा वृत्तान्त मालूम हुआ, इससे वे बड़े प्रसन्न हुए। और बोले-‘बेटा उत्तंक ! तुम्हारा कौन सा प्रिया कार्य करूँ ? तुमने धर्मपूर्वक मेरी सेवा की है। इससे हम दोनों की एक- दूसरे के प्रति प्रीति बढ़ गयी है। अब मैं तुम्हें घर लौटने की आज्ञा देता हूँ-जाओ, तुम्हारी सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी’। गुरू के ऐसा कहने पर उत्तंग बोले-‘भगवन ! मैं आपका कौन सा प्रिय कार्य करूँ ? वृद्ध पुरूष कहते भी हैं। जो अधर्मपूर्वक अध्यापन या उपदेश करता है अथवा जो अधर्मपूर्वक प्रश्न या अध्ययन करता हैं, उन दोनों में मे एक (गुरू अथवा शिष्य) मृत्यु एवं विद्वेष को प्राप्त होता है। अतः आपकी आज्ञा मिलने पर मैं अभीष्ट गुरू दक्षिणा भेंट करना चाहता हूँ।’उत्तंक के ऐसा कहने पर उपाध्याय बोले-‘बेटा उत्तंक ! तब कुछ दिन और यहीं ठहरों’। तदनन्तर किसी दिन उत्तंक ने फिर उपाध्याय से कहा- ‘भगवन् ! आज्ञा दीजिये, मैं आपको कौन सी प्रिय वस्तु गुरू दक्षिणा के रूप में भेंट करूँ। यह सुनकर उपाध्याय ने उनसे कहा-‘वत्स उत्तंक ! तुम बार बार मुझसे कहते हो कि ‘मैं क्या गुरू दक्षिणा भेट करूँ?’ अतः जाओ, घर के भीतर प्रवेश करके अपनी गुरूपत्नी से पूछ लो कि ‘मैं क्या गुरूदक्षिणा भेंट करूँ।' ‘वे जो बतावें वही वस्तु उन्हें भेंट करो। उपाध्याय के ऐसा कहने पर उत्तंग ने गुरूपत्नी में पूछा -‘देवि ! उपाध्याय ने मुझे घर जाने की आज्ञा दी है, अतः मैं आपको कोई अभीष्ट वस्तु गुरूदक्षिणा के रूप में भेंट करके गुरू के ऋण से उऋण होकर जाना चाहता हूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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